कई विरोधाभासी मृत्यु-पूर्व कथन दर्ज किए जाते हैं तो मजिस्ट्रेट को दिए गए कथन पर भरोसा किया जाना चाहिए: राजस्थान हाईकोर्ट

Update: 2024-07-30 07:02 GMT

राजस्थान हाईकोर्ट ने 35 साल बाद दोषसिद्धि आदेश पलट दिया और कुल तीन आरोपियों में से जीवित बचे आरोपियों को बरी कर दिया, जिन्हें 1989 में ट्रायल कोर्ट द्वारा हत्या का दोषी ठहराया गया था और आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।

जस्टिस पुष्पेंद्र सिंह भाटी और जस्टिस मुन्नुरी लक्ष्मण की खंडपीठ ने कहा कि कई मृत्यु-पूर्व कथनों के मामले में जो एक-दूसरे के विरोधाभासी हैं, मजिस्ट्रेट या उच्च अधिकारी द्वारा दर्ज किए गए कथन पर भरोसा किया जा सकता है, जिसमें सत्यता और संदेह से मुक्त होने के तत्वों को ध्यान में रखा जाता है, जो मृत्यु-पूर्व कथनों पर भरोसा करने के लिए आवश्यक हैं।

कोर्ट ने कहा,

"यह न्यायालय यह भी मानता है कि जब कई मृत्यु पूर्व कथन दर्ज किए गए हों और उनमें विसंगतियां/विरोधाभास पाए गए हों तो मजिस्ट्रेट या उच्च अधिकारी द्वारा दर्ज किए गए कथन पर भरोसा किया जा सकता है, बशर्ते कि सत्यता और संदेह से मुक्त होने के अपरिहार्य गुण हों।"

न्यायालय अपीलकर्ता द्वारा दायर अपील पर सुनवाई कर रहा था, जिसे 1989 में हत्या के मामले में दोषी ठहराया गया था। अपीलकर्ता का मामला था कि मामले में मृतक ने सहायक उपनिरीक्षक को मृत्यु पूर्व कथन दिया, जिसमें उसने अपीलकर्ता सहित 3 आरोपियों का नाम लिया। इस मृत्यु पूर्व कथन के आधार पर एफआईआर दर्ज की गई, जिसके अनुसार मजिस्ट्रेट के सामने एक और मृत्यु पूर्व कथन दर्ज किया गया, जिसमें मृतक ने पूरी तरह से अलग-अलग व्यक्तियों को आरोपी के रूप में नामित किया, जिन पर पुलिस द्वारा मुकदमा नहीं चलाया गया।

ट्रायल कोर्ट ने दूसरे मृत्यु पूर्व कथन को नजरअंदाज कर दिया और पुलिस को दिए गए बयान के आधार पर अपीलकर्ता को दो अन्य आरोपियों के साथ दोषी ठहराया। अपीलकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि दो मृत्यु पूर्व कथनों के बीच स्पष्ट विरोधाभासों के मद्देनजर वे विश्वसनीय नहीं थे।

इसके अलावा मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज दूसरे मृत्युकालिक कथन में नामित व्यक्तियों पर मुकदमा नहीं चलाया गया और न ही उनकी जांच की गई। इसलिए यह तर्क दिया गया कि ट्रायल कोर्ट का निर्णय कानून में न्यायोचित नहीं था।

अपीलकर्ता के वकील की दलीलों से सहमत होते हुए न्यायालय ने कहा कि जब दो मृत्युकालिक कथन सामने आए तो अभियोजन पक्ष की कहानी ही संदेह के घेरे में थी।

न्यायालय ने कई मृत्युकालिक कथनों पर सुप्रीम कोर्ट के कुछ मामलों का संदर्भ दिया। अनमोल सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य के मामले में यह निर्णय दिया गया कि यदि कई मृत्युकालिक कथनों के बीच विसंगतियां हैं तो न्यायालय को विभिन्न तथ्यों और परिस्थितियों के प्रकाश में ऐसी विसंगतियों की भौतिकता की जांच करनी चाहिए।

इसके अलावा लखन सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य के मामले मे सुप्रीम कोर्ट ने माना कि कई असंगत मृत्युकालिक कथनों के मामले में मजिस्ट्रेट जैसे उच्च अधिकारी द्वारा दर्ज किए गए कथन पर भरोसा किया जा सकता है, बशर्ते कि उस मृत्युकालिक कथन की सत्यता के बारे में कोई संदेह न हो।

अभिषेक शर्मा बनाम राज्य (दिल्ली सरकार) के मामले का भी संदर्भ दिया गया, जिसमें कई मृत्यु पूर्व कथनों से जुड़े मामले से निपटने के लिए कुछ सिद्धांत निर्धारित किए गए और निम्नलिखित बातें कही गई:

“जब विभिन्न मृत्यु पूर्व कथनों में विसंगतियां पाई जाती हैं तो मृत्यु पूर्व कथनों की विषय-वस्तु की पुष्टि के लिए रिकॉर्ड पर उपलब्ध अन्य साक्ष्यों पर विचार किया जा सकता है जब विसंगतियां होती हैं तो मजिस्ट्रेट या उच्च अधिकारी द्वारा दर्ज किए गए बयान पर भरोसा किया जा सकता है, बशर्ते कि सत्यता और संदेह से मुक्त होने के अपरिहार्य गुण हों।”

इस विश्लेषण की पृष्ठभूमि में न्यायालय ने पाया कि वर्तमान मामले में विरोधाभासी मृत्यु पूर्व कथनों के आलोक में पुलिस के समक्ष दर्ज किए गए मृत्यु पूर्व कथन पर ट्रायल कोर्ट का भरोसा कानून में उचित नहीं था। खासकर तब जब कानून में यह तय हो चुका था कि कई विरोधाभासी मृत्यु पूर्व कथनों के मामले में मजिस्ट्रेट के समक्ष दर्ज किए गए कथन पर विचार किया जाना चाहिए।

न्यायालय ने माना कि किसी मामले में विसंगतियां/विरोधाभास दर्ज किए जाने के बाद अन्य पुष्टिकारी साक्ष्य की आवश्यकता होती है।

वर्तमान मामले में अभियोजन पक्ष के इस दावे का समर्थन करने के लिए कोई मजबूत पुष्टिकारी साक्ष्य नहीं था कि पुलिस द्वारा दर्ज किया गया मृत्युपूर्व कथन विश्वसनीय था, न कि मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किया गया कथन।

तदनुसार दोषसिद्धि आदेश रद्द कर दिया गया और अपीलकर्ता को बरी कर दिया गया।

केस टाइटल- जीत सिंह बनाम राज्य 

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