राजस्थान हाईकोर्ट ने बर्खास्त किए गए कांस्टेबल को 24 साल बाद बहाल करने का निर्देश दिया, कहा- सह-अपराधियों को अलग-अलग सजा देना अनुच्छेद 14 का उल्लंघन
राजस्थान हाईकोर्ट ने 24 साल पहले सेवा से बर्खास्त किए गए कांस्टेबल को बहाल करने का निर्देश दिया। इसमें कहा गया कि जब दोनों व्यक्तियों के खिलाफ आरोप समान हैं तो अन्य आरोपियों की तुलना में सह-अपराधी को अधिक कठोर सजा देना संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन है।
जस्टिस गणेश राम मीना की पीठ पुलिस अधीक्षक द्वारा पारित बर्खास्तगी आदेश और पुनर्विचार याचिका खारिज करने वाले आदेश के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी। याचिकाकर्ता कांस्टेबल था, जिसके खिलाफ 4 अन्य कांस्टेबलों के साथ धारा 301 और 201, IPC के तहत आपराधिक मामला दर्ज किया गया। इनमें से एक सह-आरोपी को ट्रायल कोर्ट ने बरी कर दिया, जबकि याचिकाकर्ता को ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट ने दोषी ठहराया। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उसे बरी कर दिया।
याचिकाकर्ता के वकील ने दलील दी कि याचिकाकर्ता की बर्खास्तगी आपराधिक मामले के कारण नहीं बल्कि जानबूझकर ड्यूटी से अनुपस्थित रहने के आरोप में की गई। याचिकाकर्ता आपराधिक मामले में गिरफ्तारी से बचने के लिए करीब 105 दिनों तक ड्यूटी से अनुपस्थित रहा। याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि मामले में सह-आरोपी को भी इसी आरोप के कारण बर्खास्त किया गया। हालांकि, बाद में उसे दो वार्षिक वेतन वृद्धि रोककर कम दंड के साथ बहाल कर दिया गया।
इसलिए वकील ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता और सह-आरोपी दोनों की जानबूझकर अनुपस्थिति के समान आरोप के मद्देनजर, याचिकाकर्ता को बहाल न करना अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है।
याचिकाकर्ता के वकील द्वारा प्रस्तुत तर्क से सहमत होते हुए न्यायालय ने याचिकाकर्ता और सह-आरोपी के खिलाफ लगाए गए आरोपों का अवलोकन किया और पाया कि आरोप समान थे और दोनों मामलों में एकमात्र अंतर बरी होने के चरणों का था। न्यायालय ने सह-आरोपी की बहाली के आदेश पर भी विचार किया, जिसमें यह माना गया कि सह-आरोपी की अनुपस्थिति को गंभीर नहीं माना गया, क्योंकि वह अपनी गिरफ्तारी से बचने के लिए ड्यूटी से अनुपस्थित था। बाद में ट्रायल कोर्ट द्वारा उसे बरी कर दिया गया। इस पर न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्ता भी गिरफ्तारी से बचने के लिए अनुपस्थित था और उसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा बरी कर दिया गया।
न्यायालय ने राजेंद्र यादव बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य के सुप्रीम कोर्ट के मामले का संदर्भ दिया, जिसमें एक ही कृत्य के लिए आरोपित 3 कांस्टेबलों और एक हेड कांस्टेबल में से 2 को दोषमुक्त कर दिया गया, जबकि एक को सेवा से बर्खास्त कर दिया गया और अन्य को अनिवार्य सेवानिवृत्ति दे दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने सह-अपराधियों के बीच सजा में समानता बनाए रखने के लिए सेवा से बर्खास्तगी के स्थान पर अनिवार्य सेवानिवृत्ति के आदेश को प्रतिस्थापित किया और कहा कि अन्यथा अनुच्छेद 14 का उल्लंघन होगा।
उन्होंने कहा,
“समानता का सिद्धांत उन सभी पर लागू होता है जो समान स्थिति में हैं यहां तक कि उन व्यक्तियों पर भी जो दोषी पाए जाते हैं। दोषी पाए गए व्यक्ति भी समान व्यवहार का दावा कर सकते हैं यदि वे सजा देते समय भेदभाव स्थापित कर सकते हैं, जबकि वे सभी एक ही घटना में शामिल है एक ही लेनदेन या घटना में सह-अपराधियों की भागीदारी की तुलना करते समय सजा असंगत नहीं होनी चाहिए।”
न्यायालय ने यह भी पाया कि याचिकाकर्ता को राजस्थान सिविल सेवा (वर्गीकरण, नियंत्रण एवं अपील) नियम, 1958 के नियम 16(10) के तहत कारण बताओ नोटिस और अनुशासनात्मक प्राधिकारी की जांच रिपोर्ट उपलब्ध नहीं कराई गई, जो प्रमुख दंड लगाने की प्रक्रिया निर्धारित करता है। न्यायालय ने फैसला सुनाया कि किसी सरकारी कर्मचारी पर जांच रिपोर्ट के साथ-साथ कारण बताओ नोटिस दिए बिना दंड आदेश पारित करना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है और इसलिए, चुनौती दिए गए आदेशों को प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का घोर उल्लंघन माना जाता है।
इस पृष्ठभूमि में न्यायालय ने पुलिस अधीक्षक द्वारा पारित बर्खास्तगी आदेश के साथ-साथ समीक्षा याचिका को खारिज करने वाले आदेश को भी खारिज कर दिया, जिसमें इन्हें भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन माना गया। तदनुसार, याचिकाकर्ता को सभी परिणामी लाभों के साथ सेवा में बहाल करने का निर्देश दिया गया।
केस टाइटल- राजेश कुमार बनाम राजस्थान राज्य और अन्य।