तीन दशक से अलग रह रहे दंपति को साथ रहने को मजबूर करना मानसिक क्रूरता: पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट

Update: 2025-09-16 03:24 GMT

पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी की कि जब पति-पत्नी में से कोई भी पक्ष “तीन दशकों से अधिक समय तक अलग रह रहा हो और सुलह या सहवास का कोई प्रयास भी न किया गया हो, तो विवाह का मूल सार ही नष्ट हो जाता है।”

अदालत ने कहा, “ऐसे में केवल एक कानूनी बंधन शेष रह जाता है, जिसमें कोई वास्तविकता नहीं होती। इतने लंबे अलगाव के बाद पक्षों को साथ रहने के लिए बाध्य करना अव्यावहारिक होगा और वास्तव में दोनों पक्षों पर और अधिक मानसिक क्रूरता थोपने जैसा होगा।”

यह नोट करते हुए कि दंपति वर्ष 1994 से अलग रह रहे हैं, जस्टिस गुरविंदर सिंह गिल और जस्टिस दीपिंदर सिंह नलवा ने कहा, “यह सही है कि अदालत पर विवाह की पवित्रता की रक्षा करने और जहाँ भी संभव हो वैवाहिक संबंधों को बनाए रखने का गंभीर दायित्व है। किंतु यह दायित्व इस सीमा तक नहीं बढ़ाया जा सकता कि ऐसे संबंध को भी जीवित रखने पर जोर दिया जाए जो पूरी तरह असहनीय और निरर्थक हो चुका हो। जब विवाह पूरी तरह टूट चुका हो, अपनी जीवंतता खो चुका हो और मात्र एक मृत औपचारिकता बनकर रह गया हो, तब पुनर्मिलन पर जोर देना न केवल व्यर्थ होगा, बल्कि दोनों पक्षों की पीड़ा को और लंबा करने के समान होगा।”

जस्टिस नलवा ने कहा, “रिकॉर्ड पर यह निर्विवाद तथ्य है कि पक्षकार वर्ष 1994 से अलग-अलग रह रहे हैं। तीन दशकों से अधिक समय से उनके बीच वैवाहिक दायित्वों और सहवास का पूर्ण रूप से अंत हो चुका है, जो स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि उनके वैवाहिक संबंध की नींव ही ढह चुकी है। इतने लंबे समय तक किसी भी पक्ष द्वारा साथ रहने का प्रयास न करना यह साबित करता है कि पुनर्मिलन की कोई वास्तविक संभावना नहीं बची है।”

परिवार न्यायालय के समक्ष दायर तलाक की याचिका पति ने दाखिल की थी। उसका कहना था कि विवाह 1986 में हुआ था और दोनों ने लगभग छह माह तक साथ निवास किया। अपीलकर्ता-पति का यह भी आरोप था कि विवाह के बाद पत्नी का व्यवहार उसके और उसके वृद्ध माता-पिता के प्रति अजीब, रूखा और अहंकारी था।

परिवार न्यायालय ने अपीलकर्ता-पति की तलाक याचिका खारिज करते हुए कहा कि जब पति-पत्नी 1994 से अलग रह रहे हैं और इस दौरान कोई सहवास नहीं हुआ, तो पत्नी द्वारा पति पर शारीरिक क्रूरता का प्रश्न ही नहीं उठता। साथ ही, पत्नी की ओर से पति पर दूसरी शादी करने और दूसरी पत्नी से दो बच्चों के पिता बनने की आपराधिक शिकायत को अदालत ने यह कहते हुए महत्व नहीं दिया कि यह मुद्दा विधिक उपचार द्वारा हल किया जा सकता है और इसे 'क्रूरता' नहीं माना जा सकता।

दलीलें सुनने के बाद हाईकोर्ट ने कहा कि यह निर्विवाद तथ्य है कि पक्षकार 1994 से अलग रह रहे हैं और इतने लंबे समय में न तो सुलह हुई और न ही वैवाहिक संबंध सुधारने का प्रयास किया गया। यह भी निर्विवाद है कि इस विवाह से कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई। सुनवाई के दौरान अदालत ने प्रतिवादी-पत्नी से, जो स्वयं उपस्थित थीं, विशेष रूप से पूछा कि क्या वह पति के साथ वन टाइम सेटलमेंट के लिए तैयार हैं, क्योंकि दोनों ने केवल छह माह साथ निवास किया और 31 वर्षों से अलग रह रहे हैं। किंतु पत्नी किसी भी प्रकार का समझौता करने को तैयार नहीं हुईं।

उपरोक्त परिस्थितियों को देखते हुए अदालत ने याचिका स्वीकार करते हुए पक्षकारों का विवाह भंग कर दिया। साथ ही, अदालत ने प्रतिवादी-पत्नी को यह स्वतंत्रता दी कि वह “स्थायी भरण-पोषण के लिए परिवार न्यायालय के समक्ष उपयुक्त आवेदन प्रस्तुत कर सकती हैं।”

यह मामला हाईकोर्ट नियमों के अनुसार प्रतिबंधित श्रेणी में आता है, इसलिए आदेश को अपलोड नहीं किया जा सकता।

Tags:    

Similar News