भर्ती नियमों में संशोधन न होने तक पद का पुनर्नामांकन किसी अन्य संवर्ग में विलय के बराबर नहीं: पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट
पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट की जस्टिस हरसिमरन सिंह सेठी और जस्टिस विकास सूरी की खंडपीठ ने कहा कि किसी पद का पुनर्नामांकन मात्र किसी अन्य संवर्ग में विलय के बराबर नहीं है; वास्तविक विलय के लिए सेवा नियमों में संशोधन आवश्यक है। ऐसे संशोधन के बिना वेतनमान या संवर्ग लाभों में समानता का दावा नहीं किया जा सकता।
पृष्ठभूमि तथ्य
याचिकाकर्ता को चंडीगढ़ के सेक्टर 10 स्थित राजकीय संग्रहालय एवं कला दीर्घा में गाइड के पद पर नियुक्त किया गया। चंडीगढ़ प्रशासन ने कर्मचारियों को बेहतर करियर की संभावनाएं प्रदान करने के लिए 15.04.1991 को पृथक पदों को मंत्रिस्तरीय पदों में विलय करने के निर्देश जारी किए। 19.10.2001 को प्रशासन ने गाइड के पद को गाइड-सह-लिपिक के रूप में पुनर्नामांकन को इस शर्त के साथ मंजूरी दे दी कि यह परिवर्तन निर्धारित प्रक्रिया का पालन करने के बाद भर्ती नियमों में शामिल किया जाना होगा।
अतः अनुमोदन के अनुपालन में राजकीय संग्रहालय एवं कला दीर्घा, चंडीगढ़ ने 17.01.2002 के आदेश द्वारा याचिकाकर्ता के पद को गाइड-सह-लिपिक के रूप में पुनः नामित कर दिया। याचिकाकर्ता के अनुसार, चूंकि गाइड का पद क्लर्क संवर्ग में विलय हो गया, इसलिए उसने क्लर्कों के समान वेतनमान और लाभों में समानता का दावा किया। साथ ही क्लर्क संवर्ग में पदोन्नति के लिए विचार किए जाने के अधिकार का भी दावा किया। बाद में चंडीगढ़ प्रशासन ने 07.12.2018 को एक स्पष्टीकरण जारी किया, जिसमें कहा गया कि गाइड के पद का क्लर्क के पद में विलय नहीं हुआ है, क्योंकि गाइड के पद को क्लर्क संवर्ग में शामिल करने के लिए भर्ती नियमों में कभी संशोधन नहीं किया गया।
अतः, याचिकाकर्ता ने गाइड के पद को क्लर्क संवर्ग में विलय किए जाने के बाद उसे क्लर्क संवर्ग का सदस्य मानकर वेतनमान की समानता का लाभ प्रदान करने के लिए केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण, चंडीगढ़ पीठ का दरवाजा खटखटाया। न्यायाधिकरण ने 24.12.2018 को याचिकाकर्ता का दावा खारिज कर दिया। इसने याचिकाकर्ता को स्पष्टीकरण आदेश को चुनौती देने की स्वतंत्रता प्रदान की। हालांकि, याचिकाकर्ता ने उस आदेश को चुनौती नहीं दी।
इससे व्यथित होकर याचिकाकर्ता ने रिट याचिका दायर की।
याचिकाकर्ता ने दलील दी कि प्रतिवादियों ने 15.04.1991 को निर्देश जारी करके गाइड के पद को क्लर्क के पद में विलय करने की प्रक्रिया पूरी कर ली थी। इसके बाद 19.10.2001 को इस पद का गाइड-सह-क्लर्क के रूप में पुनर्नामांकन स्वीकृत किया गया। यह तर्क दिया गया कि 17.01.2002 को संग्रहालय द्वारा पुनर्नामांकन लागू किए जाने के बाद याचिकाकर्ता क्लर्क संवर्ग का हिस्सा बन गया। इसलिए वह वेतनमान की समानता और पदोन्नति के अवसरों सहित सभी लाभों का हकदार था।
दूसरी ओर, प्रतिवादियों ने दलील दी कि गाइड के पद को गाइड-सह-क्लर्क के पद के रूप में पुनर्नामांकन किया गया। हालांकि, इसे कभी भी क्लर्क संवर्ग का हिस्सा नहीं बनाया गया, क्योंकि सेवा को नियंत्रित करने वाले नियमों में कभी भी गाइड के पद को क्लर्क संवर्ग में शामिल करने के लिए संशोधन नहीं किया गया। यह भी तर्क दिया गया कि चंडीगढ़ प्रशासन ने 07.12.2018 को स्पष्ट किया कि गाइड संवर्ग का क्लर्क संवर्ग में कोई विलय नहीं हुआ है।
अदालत के निष्कर्ष
अदालत ने पाया कि याचिकाकर्ता का दावा चंडीगढ़ प्रशासन द्वारा जारी दिनांक 19.10.2001 के पत्र पर आधारित है, जिसमें केवल गाइड के पद को गाइड-सह-क्लर्क के रूप में पुनर्निर्धारित करने को मंजूरी दी गई, न कि क्लर्क संवर्ग में इसके विलय को। यह माना गया कि इस प्रक्रिया को पूरा करने के लिए भर्ती नियमों में आवश्यक संशोधन आवश्यक है, जो कभी नहीं किए गए। इसलिए याचिकाकर्ता का यह तर्क कि पुनर्निर्धारित करना विलय के बराबर है, स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह भी देखा गया कि चंडीगढ़ प्रशासन द्वारा 07.12.2018 को जारी स्पष्टीकरण में कहा गया कि कोई विलय या विभाजन नहीं हुआ, क्योंकि नियमों में कभी संशोधन नहीं किया गया। याचिकाकर्ता ने इस स्पष्टीकरण को चुनौती नहीं दी। इसलिए उसने प्रशासन के रुख को स्वीकार कर लिया।
अदालत ने यह माना कि पुनर्पदनामांकन से वेतनमान, वरिष्ठता या पदोन्नति में समानता का दावा करने का कोई अधिकार नहीं बनता है और जब तक सेवा नियमों में संशोधन नहीं किया जाता, ऐसे लाभ प्रदान नहीं किए जा सकते। यह भी माना गया कि यह मानते हुए भी कि विलय हो चुका है, याचिकाकर्ता मौजूदा लिपिकों से वरिष्ठता का दावा नहीं कर सकता, क्योंकि वरिष्ठता केवल वास्तविक विलय की तिथि से ही दी जा सकती है, न कि गाइड के रूप में उसकी प्रारंभिक नियुक्ति की तिथि से पूर्वव्यापी रूप से।
अदालत ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता लगभग सात वर्ष पहले गाइड के पद पर रहते हुए रिटायर हुआ था और उसे उसकी पूरी सेवा के दौरान कभी भी लिपिक संवर्ग का हिस्सा नहीं माना गया। इसलिए मांगी गई राहत प्रदान करने के लिए कोई कानूनी या न्यायसंगत आधार मौजूद नहीं है।
इन टिप्पणियों के साथ न्यायालय ने यह माना कि न्यायाधिकरण का 24.12.2018 का आदेश किसी भी तरह से अवैध नहीं था। तदनुसार, रिट याचिका खारिज कर दी गई।
Case Name : Narinder Pal Singh vs Central Administrative Tribunal And Ors