वैवाहिक मामलों में निरस्तीकरण रिपोर्ट से निपटने के दौरान न्यायालयों को सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण अपनाना चाहिए: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट
पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा कि वैवाहिक कलह से संबंधित मामलों में निरस्तीकरण रिपोर्ट से निपटने के लिए न्यायालयों को सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। खासकर तब जब शिकायतकर्ता स्वयं उन्हें स्वीकार करता है।
पुलिस जांच के बाद निरस्तीकरण रिपोर्ट दायर करती है, जब आरोपी के खिलाफ आरोपपत्र दायर करने के लिए कोई सामग्री नहीं मिलती है।
वर्तमान मामले में न्यायालय ने पत्नी द्वारा अपने पति और ससुराल वालों के खिलाफ क्रूरता का आरोप लगाते हुए दर्ज की गई FIR खारिज की। ट्रायल कोर्ट ने यह देखने के बावजूद कि कोई मामला नहीं बनता, पुलिस द्वारा निरस्तीकरण रिपोर्ट दायर करने के बाद आगे की जांच का निर्देश दिया।
जस्टिस सुमित गोयल ने कहा,
"इस तरह के मामले में दायर निरस्तीकरण रिपोर्ट से निपटते समय न्यायालय को, जो कि पक्षकारों के बीच वैवाहिक कलह से उत्पन्न हुई, विशेष रूप से शिकायतकर्ता द्वारा स्वयं इस तरह का निरस्तीकरण स्वीकार करने की पृष्ठभूमि में दयालु तरीके से आगे बढ़ना चाहिए न कि पांडित्यपूर्ण दृष्टिकोण से।"
न्यायाधीश ने कहा,
यह कानून का स्थापित प्रस्ताव है कि आधुनिक समाज में समझौता सद्भाव और व्यवस्थित व्यवहार की अनिवार्य शर्त है। यह न्याय की आत्मा है। यदि न्यायालय की प्रक्रिया का उपयोग इस तरह के सामंजस्यपूर्ण माहौल को आगे बढ़ाने में किया जाता है तो यह निश्चित रूप से पक्षों के बीच सौहार्द को बढ़ावा देगा, जिससे व्यवस्थित और शांत समाज का निर्माण होगा।
यह टिप्पणियां शिकायतकर्ता के पति और ससुर की धारा 482 CrPc के तहत FIR रद्द करने की याचिका पर सुनवाई करते समय की गईं। FIR IPC की धारा 406, 498-A और 34 के तहत दर्ज की गई।
यह आरोप लगाया गया कि शिकायतकर्ता को उसके ससुराल वालों द्वारा दहेज की विभिन्न मांगों के लिए परेशान किया गया।
जांच के बाद पुलिस ने पाया कि याचिकाकर्ताओं के खिलाफ IPC की धारा 406 और 498-A के तहत कोई अपराध नहीं बनता। उनके खिलाफ गलत तरीके से FIR दर्ज की गई थी।
तदनुसार, पुलिस द्वारा उप-विभागीय न्यायिक मजिस्ट्रेट न्यायालय में रद्दीकरण रिपोर्ट दायर की गई। हालांकि पुलिस द्वारा दायर रद्दीकरण रिपोर्ट को न्यायालय ने यह कहते हुए खारिज कर दिया,
"जांच के दौरान रिपोर्ट के अनुसार मामले में पक्षों के बीच समझौता हुआ, जिसके आधार पर रद्दीकरण रिपोर्ट प्रस्तुत की गई। कानून के अनुसार IPC की धारा 498-A गैर-समझौता योग्य अपराध है। तदनुसार, मेरे विचार में समझौते के आधार पर रद्दीकरण को स्वीकार नहीं किया जा सकता।"
प्रस्तुतियों की जांच करने के बाद न्यायालय ने कहा,
"यह स्पष्ट रूप से स्पष्ट है कि एफआईआर पक्षों के बीच वैवाहिक कलह का परिणाम थी।”
अदालत ने कहा,
"याचिकाकर्ताओं के खिलाफ दर्ज FIR का अवलोकन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह शिकायतकर्ता की ओर से विद्वेष का मामला है, क्योंकि इसमें ऐसे तथ्य हैं, जो किसी भी तरह से आईपीसी की धारा 406 और 498-A के तहत अपराध नहीं बनाते हैं। धारा 406 और 498-A के तहत अपराध के तत्व न केवल अनुपस्थित हैं बल्कि स्पष्ट रूप से और आश्चर्यजनक रूप से एफआईआर की पूरी सामग्री में मौजूद नहीं पाए जाते हैं।"
अदालत ने कहा,
"पूरी FIR में याचिकाकर्ताओं के खिलाफ दहेज की मांग या मांग के संबंध में शिकायतकर्ता के साथ किसी भी तरह की क्रूरता करने का कोई भी आरोप नहीं है।"
परिणामस्वरूप न्यायालय ने कहा कि यह धारा 482 के तहत इस न्यायालय द्वारा अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने के लिए एफआईआर रद्द करने के लिए उपयुक्त मामला है।
जस्टिस गोयल ने इस बात पर प्रकाश डाला कि मजिस्ट्रेट न्यायालय ने रद्दीकरण रिपोर्ट स्वीकार करने से इनकार करते हुए ऐसा कोई उदाहरण नहीं बताया, जो प्रकृति में गंभीर तो बिल्कुल भी नहीं हो, जो आरोपी द्वारा आईपीसी की धारा 406 और 498-A के तहत दंडनीय अपराध किए जाने की ओर इशारा करता हो।
कोर्ट ने कहा,
“FIR को पढ़ने के साथ-साथ पुलिस द्वारा दायर रद्दीकरण रिपोर्ट के तथ्य और शिकायतकर्ता द्वारा स्वयं इस तरह का रद्दीकरण स्वीकार करने से पुलिस द्वारा दायर रद्दीकरण रिपोर्ट को खारिज करते समय उप-विभागीय न्यायिक मजिस्ट्रेट, पायल द्वारा मामले में की गई गलती का पता चलता है।”
उपर्युक्त के आलोक में न्यायालय ने FIR रद्द कर दी गई।
केस टाइटल- XXXX बनाम XXXX