स्पष्ट रूप से अन्यथा न कहे जाने तक सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पूर्वव्यापी प्रभाव से लागू होते हैं: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट
पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णय पूर्वव्यापी प्रभाव से लागू होते हैं, जब तक कि स्पष्ट रूप से अन्यथा न कहा गया हो।
यह मामला हाल ही में मेसर्स सेलेस्टियम फाइनेंशियल बनाम ए. ज्ञानशेखरन मामले के आवेदन से संबंधित है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने माना कि परक्राम्य लिखत अधिनियम (NI Act) की धारा 138 के तहत चेक अनादर मामले में शिकायतकर्ता CrPC की धारा 2(wa) [BNSS की धारा 2(y)] के अर्थ में एक "पीड़ित" है, जो बरी किए जाने के खिलाफ अपील दायर कर सकता है।
जस्टिस सुमीत गोयल ने कहा,
"इसके विपरीत, सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया कोई भी निर्णायक निर्णय, अपने स्वभाव से ही, पूर्वव्यापी रूप से लागू होता है, जब तक कि विशेष रूप से अन्यथा निर्देशित न किया जाए। यह मूलभूत अंतर न्यायिक समीक्षा के मूल में निहित है: कोई भी निर्णय विधायी सृजन का कार्य नहीं, बल्कि विद्यमान कानून की एक प्रामाणिक व्याख्या और स्पष्टीकरण होता है।"
न्यायालय ने आगे कहा,
"यह केवल किसी क़ानून या प्रावधान के वास्तविक अर्थ और संरचना पर प्रकाश डालता है। उसके अंतर्निहित अर्थ को उसी रूप में घोषित करता है जैसा कि उसे विधायी उत्पत्ति के सटीक क्षण से ही समझा और लागू किया जाना चाहिए था।"
परिणामस्वरूप, इसका पूर्वव्यापी अनुप्रयोग न्यायशास्त्रीय अनिवार्यता बन जाता है, यह निष्कर्ष निकाला।
जज ने स्पष्ट किया,
"इस सिद्धांत का तार्किक परिणाम यह है कि एक न्यायिक निर्णय, विशेष रूप से कानून के मौलिक सिद्धांत को स्पष्ट करने वाला निर्णय, विभिन्न न्यायिक मंचों पर लंबित मामलों की स्थिति की परवाह किए बिना, सभी मामलों पर अपना व्यापक प्रभाव डालता है।"
न्यायालय ने कहा कि उपरोक्त निष्कर्ष इस आदरणीय तर्क से और पुष्ट होता है कि न्यायपालिका का अस्तित्व "नए कानून की घोषणा करना नहीं, बल्कि पुराने कानून को बनाए रखना और उसकी व्याख्या करना है।"
जज विधायक नहीं, बल्कि व्याख्याता के रूप में कार्य करते हैं
अदालत ने कहा,
"अतः न्यायिक कार्य मूलतः खोज का है, सृजन का नहीं; जज स्वप्रेरणा से विधायक के रूप में नहीं, बल्कि व्याख्याता के रूप में कार्य करते हैं, जो कानून के अंतर्निहित अर्थ को सावधानीपूर्वक उजागर करते हैं। इस प्रकार न्यायालय की घोषणा स्थायी सत्य की मान्यता है, न कि किसी नवीन कानूनी वास्तविकता की उत्पत्ति।"
ये टिप्पणियां अपीलकर्ता द्वारा NI Act की धारा 138 के तहत दायर शिकायत में बरी किए जाने के विरुद्ध अपील की सुनवाई के दौरान की गईं। अपील के साथ दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 378(4) के तहत अनुमति प्रदान करने के लिए एक आवेदन भी प्रस्तुत किया गया।
सुनवाई के दौरान, यह तर्क दिया गया कि सेलेस्टियम फाइनेंशियल का मामला वर्तमान मामले पर लागू नहीं होगा, क्योंकि शिकायत सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्णय सुनाए जाने से पहले दायर की गई थी।
इसे खारिज करते हुए न्यायालय ने कहा,
"यह वैधानिक व्याख्या का सुस्थापित सिद्धांत है कि किसी विधायी अधिनियम का बल और प्रभाव, सामान्य नियम के रूप में, उसके लागू होने पर भावी माना जाता है, जब तक कि उसके प्रावधानों में पूर्वव्यापी प्रभाव के लिए स्पष्ट और सुस्पष्ट विधायी आशय स्पष्ट रूप से व्यक्त न किया गया हो।"
वर्तमान मामले के संदर्भ में जस्टिस गोयल ने स्पष्ट किया कि CrPC की धारा 372 या BNSS की धारा 413 के प्रावधान के तहत अपील पर विचार करने के मानदंड और CrPC की धारा 378(4) या BNSS की 419(4) के तहत अपील पर लागू मानदंड स्पष्ट रूप से भिन्न हैं, क्योंकि पूर्व के मानदंड का दायरा बाद वाले की तुलना में काफी व्यापक है।
उपरोक्त के आलोक में न्यायालय ने अपील को सेशन जज, महेंद्रगढ़, नारनौल को इस निर्देश के साथ भेज दिया कि इसे CrPC की धारा 372 के तहत दायर माना जाए।
Title: Raj Kumar v. Rajender