तलाक के मामलों को मध्यस्थता के माध्यम से निपटाने के बारे में फैमिली कोर्ट को संवेदनशील बनाने की आवश्यकता : पटना हाईकोर्ट

Update: 2024-09-30 06:37 GMT

पटना हाईकोर्ट ने बेगूसराय फैमिली कोर्ट के प्रिंसिपल जज के आचरण पर नाराजगी व्यक्त की, जिन्होंने फैमिली कोर्ट एक्ट, 1984 की धारा 9 की भावना के अनुरूप पक्षों के बीच विवाद के समाधान के लिए प्रयास किए बिना तलाक का मामला खारिज कर दिया।

जस्टिस पीबी बजंथरी और जस्टिस आलोक कुमार पांडे की खंडपीठ ने पीठासीन अधिकारी को संवेदनशील बनाने की आवश्यकता व्यक्त की और अपने रजिस्ट्रार जनरल से कहा कि वे इस निर्णय की कॉपी राज्य भर के फैमिली कोर्ट के सभी पीठासीन अधिकारियों के बीच प्रसारित करें। आवश्यक कार्रवाई के लिए निदेशक बिहार न्यायिक अकादमी को कॉपी भेजें।

न्यायालय ने आदेश दिया,

"फैमिली कोर्ट के पीठासीन अधिकारी को संवेदनशील बनाना आवश्यक है, क्योंकि वर्तमान मामले पर निर्णय में विस्तार से चर्चा की गई। इसमें इस बात पर प्रकाश डाला गया कि किस प्रकार फैमिली कोर्ट ने उक्त मामले को आकस्मिक और नियमित तरीके से संभाला है तथा किस प्रकार फैमिली कोर्ट ने फैमिली कोर्ट एक्ट की भावना के विपरीत कार्य किया। उक्त पहलू पर, रजिस्ट्रार जनरल से अनुरोध है कि वे इस निर्णय की कॉपी फैमिली कोर्ट के सभी पीठासीन अधिकारियों के बीच प्रसारित करें तथा आवश्यक कार्रवाई के लिए निदेशक बिहार न्यायिक अकादमी को कॉपी भेजें।"

वर्तमान मामले में अपीलकर्ता/पति और प्रतिवादी/पत्नी ने 05.05.2013 को विवाह किया। पति/अपीलकर्ता को अपनी पत्नी/प्रतिवादी के साथ वैवाहिक कलह का सामना करना पड़ा। इसलिए उसने राहत पाने के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।

फैमिली कोर्ट ने विवाद में पक्षकारों की सुनवाई किए बिना पति द्वारा दायर तलाक याचिका खारिज की। मामले की सुनवाई की तिथि पर पति और पत्नी दोनों उपस्थित हुए तथा संबंधित न्यायालय ने एक्ट की धारा 9 के अनुसार आवश्यक मूल सिद्धांत का पालन नहीं किया। चूंकि फैमिली कोर्ट के प्रिंसिपल जज ने मामले को मध्यस्थता के लिए भेजने के वैधानिक आदेश का पालन नहीं किया। इसके बजाय याचिका सीधे खारिज की। इसलिए न्यायालय ने कहा कि फैमिली कोर्ट को लापरवाही और यंत्रवत तरीके से काम करने से बचना चाहिए।

न्यायालय ने कहा,

“फैमिली कोर्ट के प्रिंसिपल जज ट्रायल स्तर पर सबसे अनुभवी न्यायालयों में से एक हैं और फैमिली कोर्ट को मुख्य रूप से सुलह या मध्यस्थता या अन्य तरीकों के माध्यम से वैवाहिक विवाद को सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटाने का विशेष कार्य सौंपा गया, जो पक्षों के लिए उपयुक्त है, लेकिन संबंधित फैमिली कोर्ट द्वारा उसी सिद्धांत का पालन नहीं किया गया, क्योंकि संबंधित न्यायालय ने वैधानिक प्रावधान के अनुसार आवश्यक बुनियादी सिद्धांत का पालन किए बिना वैवाहिक विवाद को बहुत ही लापरवाही से संभाला है।”

के. श्रीनिवास राव बनाम डी.ए. दीपा (2013) और जलेंद्र पढियारी बनाम प्रगति छोटराय (2018) में सुप्रीम कोर्ट ने वैवाहिक विवादों को सुनवाई के शुरुआती चरण में मध्यस्थता और सुलह केंद्रों में भेजने की आवश्यकता पर जोर दिया, जिससे प्रशिक्षित मध्यस्थों की सहायता से विवादों को निपटाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सके।

तदनुसार, अपील को अनुमति दी गई और विवादित आदेश रद्द कर दिया गया।

अदालत ने कहा,

"ऊपर की गई चर्चाओं के आलोक में यह स्पष्ट है कि प्रिंसिपल जज, फैमिली कोर्ट, बेगूसराय द्वारा पारित आदेश बिना सोचे-समझे और नियमित और आकस्मिक तरीके से संबंधित अदालत ने संवेदनशील मामले को संभाला है, जो वैवाहिक विवाद से संबंधित है। ऐसा आदेश रद्द किए जाने योग्य है।"

मामले को फैमिली कोर्ट में वापस भेज दिया गया, जिससे दोनों पक्षों को नोटिस देकर मामले की नए सिरे से सुनवाई की जा सके। साथ ही दोनों पक्षों को अपनी दलीलें दाखिल करने का पर्याप्त अवसर दिया जा सके। उसके बाद रिकॉर्ड पर उपलब्ध सामग्री के आधार पर मुद्दों का फैसला किया जा सके। इस फैसले की कॉपी प्राप्त होने/पेश होने की तारीख से छह महीने के भीतर फैमिली कोर्ट एक्ट 1984 की उचित प्रक्रिया का पालन करने के बाद तर्कसंगत आदेश पारित किया जा सके।

केस टाइटल: राजीव कुमार @ राजीव कुमार बनाम आरती कुमारी, विविध अपील संख्या 352/201

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