संसद में बिना पर्याप्त चर्चा बने कानून को क्या चुनौती दी जा सकती है? मद्रास हाईकोर्ट का सवाल
मद्रास हाईकोर्ट ने गुरुवार को यह सवाल उठाया कि क्या संसद में किसी कानून के पारित होने के समय पर्याप्त विचार-विमर्श या चर्चा न होने के आधार पर किसी केंद्रीय कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी जा सकती है?
चीफ़ जस्टिस मनींद्र मोहन श्रीवास्तव और जस्टिस जी. अरुलमुरुगन की खंडपीठ भारत न्याय संहिता, भारत नागरिक सुरक्षा संहिता और भारत साक्ष्य अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी।
कोर्ट ने मौखिक रूप से कहा —
“आप यह कहकर किसी कानून को कैसे चुनौती दे सकते हैं कि उचित परामर्श नहीं किया गया, हमारी राय नहीं ली गई या संसद में चर्चा नहीं हुई। ये विधायी अधिकारिता (legislative competence) को चुनौती देने के आधार नहीं हैं। अगर आपके पास ऐसा कोई निर्णय (case law) है जिसमें इन आधारों पर कानून को रद्द किया गया हो, तो दिखाइए, नहीं तो हम याचिकाएं खारिज कर देंगे।”
मामले की पृष्ठभूमि:
पिछले वर्ष, जस्टिस एस.एस. सुंदर (अब सेवानिवृत्त) और जस्टिस एन. सेंथिलकुमार की खंडपीठ ने सवाल उठाया था कि नए कानून लाने की आवश्यकता क्या थी, जबकि मौजूदा कानूनों में संशोधन से काम चल सकता था।
बाद में पक्षकारों ने यह मामला सुप्रीम कोर्ट में स्थानांतरित करने की मांग की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट की राय इस मामले में सहायक होगी, इसलिए याचिकाकर्ताओं को हाईकोर्ट की सहायता करनी चाहिए। शीर्ष अदालत ने हाईकोर्ट को लंबित याचिकाओं की जल्द सुनवाई करने का अनुरोध किया, जिसके बाद आज इनकी सुनवाई हुई।
याचिकाकर्ताओं का पक्ष:
तमिलनाडु और पुडुचेरी बार एसोसिएशनों के महासंघ की ओर से अधिवक्ता महेश्वरन ने तर्क दिया कि नए आपराधिक कानून जल्दबाजी में पारित किए गए। उन्होंने कहा कि राज्यों से राय मांगी गई थी, और तमिलनाडु सरकार ने सुझाव दिया था कि कानून पारित करने से पहले और चर्चा की जाए, लेकिन सुझावों पर विचार किए बिना कानून पारित कर दिए गए।
यह भी कहा गया कि कानून पारित करते समय संसद में लगभग 130 सदस्य विरोध में शामिल थे और कार्यवाही में भाग नहीं ले रहे थे, इसलिए कोई विस्तृत चर्चा नहीं हुई।
इस पर चीफ़ जस्टिस ने पूछा कि क्या ऐसे आधार पर किसी कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी जा सकती है।
कोर्ट का अवलोकन:
खंडपीठ ने कहा कि किसी कानून की संवैधानिक वैधता को केवल तभी चुनौती दी जा सकती है जब —
1. विधायी अधिकारिता का अभाव हो,
2. मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ हो, या
3. कानून स्पष्ट रूप से मनमाना (manifestly arbitrary) हो।
कोर्ट ने पूछा कि “कानून पारित करते समय पर्याप्त चर्चा या विचार-विमर्श न होना” विधायी अधिकारिता को कैसे प्रभावित कर सकता है। कोर्ट ने वकीलों से आग्रह किया कि यदि ऐसे किसी निर्णय का उदाहरण हो, तो उसे पेश करें।
कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ताओं द्वारा पेश किए गए तर्कों में विधायी अधिकारिता को चुनौती देने का कोई ठोस आधार नहीं दिखता, लेकिन अंतिम निर्णय से पहले उन्हें अपने पक्ष में निर्णयों का हवाला देने का अवसर दिया गया।
“याचिकाकर्ताओं के तर्कों में कोई ठोस आधार नहीं है। खारिज करने से पहले उन्हें अपने समर्थन में निर्णय पेश करने का मौका दिया जाएगा,” कोर्ट ने कहा।
अन्य आवेदनों पर टिप्पणी:
कोर्ट ने अन्य पक्षों की ओर से दायर 'इम्पलीडिंग एप्लिकेशन' (intervention applications) को खारिज करते हुए कहा कि
“कानून की वैधता को चुनौती देने के मामलों में हम सभी को पक्षकार नहीं बनने देंगे। अगर किसी को कानून की किसी धारा से आपत्ति है, तो वह अलग याचिका दाखिल कर सकता है।”
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि ऐसे मामले जिनमें ठोस आधार नहीं हैं, उन पर सुनवाई कर न्यायालय का समय बर्बाद नहीं किया जाएगा।
“सार्वजनिक हित याचिका (PIL) के नाम पर कुछ भी दाखिल नहीं किया जा सकता। आप अदालत में हैं — सही और कानूनी आधार के साथ आइए।”
अंत में कोर्ट ने मामले की अगली सुनवाई नवंबर के अंतिम सप्ताह तक के लिए स्थगित कर दी।
तमिलनाडु और पुडुचेरी बार एसोसिएशनों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता पी. विल्सन और प्रभाकरन पेश हुए, जबकि एक अन्य याचिकाकर्ता आर.एस. भारती की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता एन.आर. इलंगो उपस्थित थे।