Constitution में कहां प्राप्त होता है स्वतंत्रता का अधिकार

Update: 2024-11-30 06:08 GMT

भारत के संविधान का आर्टिकल 19 स्वतंत्रता के संदर्भ में खुलकर उद्घोषणा कर रहा है। भारत के सभी नागरिकों को आर्टिकल 19 के अंतर्गत स्वतंत्रता के वे सभी अधिकार दे दिए गए हैं जिन अधिकारों के लिए भारत की जनता द्वारा एक लंबे समय तक संघर्ष किया गया है। भारतीय संविधान के आर्टिकल 19 से 22 तक में भारत के नागरिकों को स्वतंत्रता संबंधी विभिन्न अधिकार प्रदान किए गए हैं। यह चारों आर्टिकल दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार पत्र स्वरूप हैं। यह स्वतंत्रता मूल अधिकारों का आधार स्तंभ भी है।

इनमें 6 मूलभूत स्वतंत्रताओं का प्रमुख स्थान है, वह मूलभूत स्वतंत्रता निम्न है-

वाक्य और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।

शांतिपूर्वक सम्मेलन करने की स्वतंत्रता।

संगम या संघ बनाने की स्वतंत्रता।

भारत के राज्य में सर्वत्र अबाध संचरण की स्वतंत्रता।

भारत के राज्य क्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बस जाने की स्वतंत्रता।

कोई भी वृत्ति, उपजीविका, व्यापार या कारोबार करने की स्वतंत्रता।

आर्टिकल 19 के अंतर्गत दी गई ऊपर वर्णित निम्न 6 स्वतंत्रता केवल नागरिकों को प्राप्त है। आर्टिकल 19 में नागरिक शब्द का प्रयोग करके यह स्पष्ट कर दिया गया है कि यह स्वतंत्रता केवल भारत के नागरिकों को ही उपलब्ध है। भारत का नागरिक होना अपने आप में एक गरिमामय है तथा भारत का नागरिक होने की कुछ उपयोगिता भी होना चाहिए। इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए आर्टिकल 19 के सभी अधिकार केवल भारत के नागरिकों को उपलब्ध किए गए हैं। इस नागरिक शब्द में केवल मनुष्यों का बोध है इसमें किसी प्रकार का कोई कृतिम व्यक्ति कोई कंपनी या फर्म सम्मिलित नहीं है क्योंकि मूल अधिकार केवल मनुष्य को प्राप्त है।

भारत के संविधान के आर्टिकल 19 के अंतर्गत दिए गए स्वतंत्रता के अधिकार आत्यंतिक नहीं है। किसी भी देश में नागरिकों के अधिकार असीमित नहीं हो सकते हैं। एक व्यवस्थित समाज में ही अधिकारों का अस्तित्व हो सकता है। नागरिकों को ऐसे अधिकार नहीं प्रदान किए जा सकते जो समस्त समुदाय के लिए अहितकार हो, यदि व्यक्तियों के अधिकारों पर समाज अंकुश न लगाएं तो उसका परिणाम विनाशकारी होगा। स्वतंत्रता का अस्तित्व भी तभी संभव है जब विधि द्वारा अपने अधिकारों के प्रयोग में हम दूसरे के अधिकारों पर आघात नहीं पहुंचाते है।

भारत के संविधान के आर्टिकल 19 के अंतर्गत जो स्वतंत्रता के अधिकार दिए गए हैं उन पर निर्बंधन खंड 2 से 6 के अधीन दिए गए आधारों पर ही लगाए जा सकते हैं। इस प्रकार के निर्बंधन युक्तियुक्तता की कसौटी पर होना चाहिए। कोई निर्बंधन युक्तियुक्त है या नहीं इसकी युक्तियुक्तता का निर्धारण करना न्यायालयों का कार्य है। इस प्रकार युक्तियुक्त शब्दावली न्यायालयों के पुनर्विलोकन की शक्ति को अत्यंत विस्तृत कर देती है।

जब स्वतंत्रता के इन अधिकारों का प्रयोग करते हुए किसी दूसरे के अधिकारों का आघात पहुंचाया जाता है तो ऐसी स्थिति में न्यायालय इन अधिकारों पर निर्बंधन की व्यवस्था करती है तथा युक्तियुक्त का की कसौटी की जांच करके न्यायालय उन अधिकारों पर निर्बंधन तय कर देती है। नागरिकों के अधिकारों पर लगाए गए निर्बंधन अन्यायपूर्ण या सामान्य जनता के हितों में अपेक्षित है उससे अधिक नहीं होना चाहिए। व्यक्तिगत हित और सामाजिक हित में सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास होना चाहिए आवश्यक है कि लगाए गए निर्बंधन और उस उद्देश्य में तर्कसंगत संबंध हो जिसे विधि बनाकर विधानमंडल प्राप्त करना चाहता है।

यदि विधि स्वेच्छाचारी आवश्यकता से अधिक निर्बंधन लगाने की अनुमति देती है तो उसे अवैध घोषित किया जा सकता है। राज्य की नीति निर्देशक तत्व में निहित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए लगाए गए निर्बंधन उपयुक्त माने जा सकते हैं। निर्बंधन को मौलिक विधि और क्रियात्मक विधि दोनों दृष्टिकोण से युक्तिसंगत होना चाहिए इसलिए न्यायालय को प्रतिबंधों की केवल अवधि की और मात्रा ही नहीं उसकी परिस्थिति और उसको लागू करने के लिए प्राधिकृत किए गए ढंग पर भी विचार करना चाहिए।

इस आलेख में ऊपर वर्णित किया गया है भारत के संविधान के आर्टिकल 19 के अंतर्गत कुल 6 प्रकार की स्वतंत्रताओं की घोषणा की गई है। उन स्वतंत्रताओं का उल्लेख इस आलेख में आगे किया जा रहा है।

Freedom of speech आर्टिकल-19 (1) (क)

भारत के संविधान के आर्टिकल 19 (1) (क) के अंतर्गत बोलने की स्वतंत्रता का प्रावधान किया गया है। वाक्य और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था की महत्वपूर्ण आधारशिला है। प्रत्येक प्रजातांत्रिक सरकार इस स्वतंत्रता को बड़ा महत्व देती है, इसके बिना जनता की तार्किक के आलोचनात्मक शक्ति को जो प्रजातांत्रिक सरकार के समुचित संचालन के लिए आवश्यक है विकसित करना संभव नहीं है। संविधान के इस आर्टिकल के अंतर्गत बोलने की स्वतंत्रता भारत के नागरिकों को दी गई है।

वाक्य और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ शब्द, लेखों, मुद्रन, चिन्हों या किसी अन्य प्रकार से अपने विचारों को व्यक्त करना है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में किसी व्यक्ति के विचारों को किसी ऐसे माध्यम से अभिव्यक्त करना सम्मिलित है जिससे वह दूसरे तक उन्हें संप्रेषित कर सके। इस प्रकार इनमें संकेत चिन्ह तथा ऐसी ही अन्य क्रियाओं द्वारा किसी व्यक्ति के विचारों की अभिव्यक्ति सम्मिलित है। आर्टिकल 19 में प्रयुक्त अभिव्यक्ति शब्द इसके क्षेत्र को बहुत विस्तृत कर देता है। विचारों को व्यक्त करने के जितने भी माध्यम है अभिव्यक्ति पदावली के अंतर्गत आ जाते हैं। इस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में प्रेस की स्वतंत्रता भी सम्मिलित हो जाती है। विचारों का स्वतंत्र प्रसारण स्वतंत्रता का मुख्य उद्देश्य है। यह भाषण द्वारा यह समाचार पत्र द्वारा किया जा सकता है।

समय के साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्षेत्र विस्तृत होता चला गया। रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा है कि वाक्य और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में विचारों के प्रसार की स्वतंत्रता सम्मिलित हैं और वह स्वतंत्रता विचारों के प्रसारण की स्वतंत्रता द्वारा सुनिश्चित है। उस स्वतंत्रता के लिए परिचालन की स्वतंत्रता उतनी ही आवश्यक है जितनी कि प्रकाशन की स्वतंत्रता। निसंदेह परिचालन के बिना प्रकाशन का कोई महत्व नहीं होगा। लोकहित के महत्व की बातों का प्रकाशन करने का समाचार पत्रों को पूर्ण अधिकार है और उस पर पूर्व में कोई अवरोध नहीं लगाया जा सकता।

भारत के संविधान के अंतर्गत दिए गए इस आर्टिकल से ही जानने के अधिकार का भी जन्म हुआ है। सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 भारत के संविधान के इस आर्टिकल के अंतर्गत ही बनाया गया है। इस अधिनियम का उद्देश्य देश के नागरिकों को लोक अधिकारियों के पास सरकारी कामकाज से संबंधित सूचनाओं को प्राप्त करने का अधिकार प्रदान करना है।

इस अधिकार की मांग बहुत दिनों से चल रही थी और यह कहा जाता है कि लोकतांत्रिक प्रणाली में सूचना का अधिकार एक अत्यंत आवश्यक अधिकार है जिससे प्रत्येक नागरिक की जान सके कि लोग अधिकारीगण सरकारी कामकाज कैसे करना है।

ब्रिटिश शासन काल से चला आ रहे कानून की दुहाई देकर नागरिकों को लोक प्राधिकारी महत्वपूर्ण सूचनाओं को गोपनीय बनाकर उनका गलत उपयोग करते रहे हैं। सूचना के अधिकार के संबंध में ही सेक्रेटरी जनरल सुप्रीम कोर्ट बनाम सुभाष चंद्र अग्रवाल एआईआर 2010 के प्रकरण में दिल्ली हाई कोर्ट ने अभिनिर्धारित किया कि सूचना के अधिकार का स्त्रोत सूचना का अधिकार अधिनियम से उत्पन्न नहीं होता है जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने बहुत से मामलों में अभिनिर्धारित किया है कि यह वह अधिकार है जो आर्टिकल 19 (1) (क) के अधीन ग्यारंटी किए गए संविधानिक अधिकार से उत्पन्न होता है। इसका अर्थ यह है कि जानने का अधिकार मौलिक अधिकार है तथा वाक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत यह अधिकार भी सम्मिलित है।

माननीय श्री रंगनाथ मिश्र बनाम भारत संघ 2003 के प्रकरण में पिटीशन ने न्यायालय को पत्र लिखकर यह निवेदन किया कि वह केंद्र और राज्य सरकारों को यह निर्देश दे कि नागरिकों को अपने मूल कर्तव्यों के पालन करने में सचेत रहें तथा अधिकारों और कर्तव्यों में उचित सामंजस्य स्थापित करें। पत्र को न्यायालय में रिट मानकर केंद्र और राज्य सरकारों को समुचित आदेश दिया कि वह इस मामले में नागरिकों को प्रेरित करें कि वह अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक बने।

अजय गोस्वामी बनाम भारत संघ के मामले में यह निर्धारित किया गया है कि किशोरों कि निर्दोषसिता को बचाने के लिए अश्लील सामग्री के प्रकाशन पर पूर्व अवरोध नहीं लगाया जा सकता है। किसी भी समाचार को अलग से नहीं देखा जा सकता है, उस पर संपूर्ण रूप से विचार किया जाना चाहिए। प्रकाशन को एक सम्यक दृष्टि से देखना चाहिए। किशोर की अज्ञानता के लिए वाद न्यायालय में नहीं उठाया जाना चाहिए। सरकार को पिटीशनर की प्रार्थना स्वीकार करनी चाहिए और संबंधित कानून के उपबंध में संशोधन करना चाहिए।

वाक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर सरकार के अधिक एकाधिकार को भी समाप्त कर दिया गया। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर सरकार का एकाधिकार नहीं है तथा उसके बाद अनेक इलेक्ट्रॉनिक चैनल मीडिया से संबंधित भारत के संविधान के अंतर्गत चलने लगे।

साकल पेपर्स लिमिटेड बनाम भारत संघ एआईआर 1962 सुप्रीम कोर्ट 305 के मामले में यह कहा गया है कि वाक्य और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में प्रेस की स्वतंत्रता भी शामिल है क्योंकि समाचार पत्र विचारों को अभिव्यक्त करने के माध्यम मात्र ही हैं। प्रेस की स्वतंत्रता एक साधारण नागरिक की स्वतंत्रता से बढ़कर नहीं है और यह उन निर्बंधनो के अधीन आर्टिकल 19(2) द्वारा नागरिकों के वाक्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाए गए हैं।

भारत के संविधान के आर्टिकल 19 से ही संबंधित राजगोपाल बनाम तमिलनाडु राज्य 1994 का एक प्रकरण है जिसे ऑटो शंकर का मामला कहा जाता है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने प्रेस की स्वतंत्रता के संदर्भ में यह अभिनिर्धारित किया कि सरकार को ऐसी सामग्री के प्रकाशन को रोकने के लिए पूर्व अवरोध लगाने की विधि शक्ति नहीं है जिससे उसके अधिकारियों को बदनाम होने की आशंका हो। लोक अधिकारीगण को आशंका है कि वह या उनके सहयोगी को बदनामी होगी और वैसी सामग्री के प्रकाशन को रोक नहीं सकते।

प्रकाशन के पश्चात नुकसानी और मानहानि की कार्यवाही कर सकते हैं यह साबित करने की प्रकाशन झूठे तथ्यों पर आधारित थे। न्यायालय ने कहा कि यदि प्रकाशन अदालत के अभिलेख समेत किसी भी लोक अभिलेख पर आधारित हैं तो प्रेस के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती है।

वाक्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर निर्बंधनो निम्न आधार पर लगाए जा सकते हैं जिनका उल्लेख भारत के संविधान के आर्टिकल 19 (2) के अंतर्गत किया गया है-

राज्य की सुरक्षा।

विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों के हित में।

लोक व्यवस्था।

शिष्टाचार और सदाचार के हित में।

न्यायालय अवमानना।

मानहानि।

अपराध उद्दीपन के मामले।

भारत की संप्रभुता और अखंडता।

निवास की स्वतंत्रता का अधिकार।

भारत के संविधान के आर्टिकल 19 (1) (ड) के अंतर्गत भारत के सभी नागरिकों को संपूर्ण भारत में कहीं भी बस जाने और निवास करने की स्वतंत्रता प्रदान की गई है। इस प्रकार भारत में कहीं भी बस जाने के संदर्भ में पूर्व अनुमति की कोई आवश्यकता नहीं है पर इस आर्टिकल के अंतर्गत खंड 5 में कुछ निर्बंधन लगाए गए हैं जिनका उद्देश्य राज्य साधारण जनता के हित में या अनुसूचित जनजातियों के संरक्षण के लिए युक्तियुक्त निर्बंधन है।

निवास की स्वतंत्रता और भ्रमण की स्वतंत्रता एक दूसरे के पूरक हैं और दोनों का लक्ष्य राष्ट्रीय एकता की स्थापना करना है। भ्रमण की स्वतंत्रता की भांति निवास की स्वतंत्रता पर साधारण जनता के हित में या किसी अनुसूचित जनजाति के हित में संरक्षण के लिए युक्तियुक्त निर्बंधन लगाए जा सकते हैं। भ्रमण की स्वतंत्रता से संबंधित अधिकांश विनिश्चय निवास की स्वतंत्रता से भी संबंधित हैं। सारे भारत में भारत के नागरिकों को कहीं भी बस जाने की स्वतंत्रता दिए जाने के अधिकार में भारत की अखंडता प्रमुख है।

किसी समय भारत अलग-अलग प्रांतों में बंटा हुआ था तथा संपूर्ण भारत की अखंडता नहीं थी। एक स्थान के व्यक्ति को दूसरे स्थान पर निवास करना कठिन कार्य होता था। भारत को राज्यों का संघ बनाया गया परंतु राज्य को यह शक्ति नहीं दी गई है कि वह अपने राज्य की सीमा में भारत के किसी दूसरे राज्य के व्यक्ति को निवास नहीं करने दे। कोई भी भारत का नागरिक भारत के किसी भी हिस्से में अबाध रूप से बस सकता है और निवास कर सकता है, वहां संचरण कर सकता है। इससे भारत की अखंडता की भावना अधिक मजबूत होती जिसका उल्लेख भारत की प्रस्तावना के अंतर्गत किया गया।

अनैतिक व्यापार अधिनियम 1956 मजिस्ट्रेट को अनैतिक कार्य करने वाले व्यक्तियों को किसी विशेष स्थान से हटाने आदेश देने की शक्ति प्रदान करता है। इस अधिनियम के अंतर्गत मजिस्ट्रेट ने एक वेश्या को शहर की घनी आबादी वाले क्षेत्र से बाहर चले जाने का आदेश दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस को उसके भ्रमण एवं निवास की स्वतंत्रता पर उचित निर्णय माना है। इस बात का निर्णय मजिस्ट्रेट ही करेगा कि एक विशेष स्थान से एक वेश्या का निष्कासन सामान्य जनता के हित में है या नहीं।

घूमने और निवास करने की स्वतंत्रता को आपातकाल में भी निलंबित नहीं किया जा सकता है। यह अधिकार सदा प्रभाव में बना रहता है। इब्राहिम वजीर बनाम मुंबई राज्य एआईआर 1964 सुप्रीम कोर्ट के मामले में पाकिस्तान आगमन नियंत्रण अधिनियम की धारा 7 की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी। इस अधिनियम के अंतर्गत किसी भी व्यक्ति द्वारा पाकिस्तान से भारत में बिना किसी अनुज्ञा पत्र या परिपत्र के प्रवेश करना एक दंडनीय अपराध है। अधिनियम की धारा 7 केंद्र सरकार को यह शक्ति देती है जिसके अधीन वह किसी भी व्यक्ति को जिसमें भारत का नागरिक भी शामिल है जिसने इस अधिनियम के अंतर्गत अपराध किया है या जिसके विरुद्ध ऐसे अपराध करने का युक्तियुक्त साधन है भारत से निकल जाने का आदेश दे सकती है।

इस मामले में प्रार्थी बिना अनुज्ञा पत्र के भारत में घुस गया था उसे उक्त अधिनियम के अंतर्गत बंदी बनाकर देश से निष्कासित कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट अधिनियम के आधार पर अवैध घोषित कर दिया कि यह नागरिकों को भारत क्षेत्र में कहीं भी बसने में निवास करने के मूल अधिकार पर आयुक्तियुक लगता है। किसी नागरिक का बिना अनुमति अपनी मातृभूमि में आना कोई ऐसा गंभीर अपराध नहीं है जिसके आधार पर उसका निष्कासन है। इसके अतिरिक्त अधिनियम के अंतर्गत निर्धारण कि किसी ने अपराध किया है या नहीं सरकार के व्यक्ति के निर्णय पर छोड़ दिया गया है जो सरकार को मनमानी शक्ति प्रदान कर देता है।

मध्यप्रदेश राज्य में नाम भरत सिंह एआईआर 1956 सुप्रीम कोर्ट 170 के मामले में मध्य प्रदेश लोक सुरक्षा अधिनियम 1959 की धारा 3 सरकार को यह शक्ति प्रदान करती है कि वह किसी व्यक्ति को ऐसे स्थान में रहने या बने रहने जिसका उल्लेख आदेश में किया गया हो या स्थान को छोड़कर अधिकारियों द्वारा नियत स्थान में जाकर निवास करने में बने रहने के लिए आदेश दे सकती थी। न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह अधिनियम संविधान के आर्टिकल 19(1)(6) में दिए गए अधिकार पर आयुक्तियुक निर्बंधन लगाता है इसलिए अवैध है।

अधिनियम के अंतर्गत निश्चित व्यक्ति को अपनी सफाई देने का युक्तियुक्त अवसर नहीं दिया गया था न ही इसमें उस स्थानीय क्षेत्र के विस्तार या निष्कासित व्यक्ति के निवास स्थान से उसकी दूरी आदि का स्पष्ट उल्लेख किया गया था। स्थान चयन के बारे में अंतिम निर्णय लेने का अधिकार सरकार का था ऐसी स्थिति में सरकार ऐसे स्थान का चयन कर सकती थी जहां रहने का कोई आवास न हो या जीविका का कोई साधन न हो।

व्यापार और कारोबार करने की स्वतंत्रता आर्टिकल-19 (1)6 (छ)

भारत के संविधान का आर्टिकल 19(1) (6)(छ) का भारत के किसी भी व्यक्ति को कोई भी व्यक्ति व्यापार उपजीविका या कारोबार करने की पूरी स्वतंत्रता प्रदान करता है। इस अधिकार पर राज युक्तियुक्त निर्बंधन लगा सकती है। खंड 6 के अधीन निम्नलिखित आधारों पर राज्य किसी भी व्यापार करने की स्वतंत्रता पर निर्बंधन लगा सकता है।

साधारण जनता के हित में-

किसी वृत्तीय व्यापार के लिए आवश्यक वृद्धि के तकनीकी अर्हता निर्धारित करने के उद्देश्य से-

नागरिकों को पूर्णतः या भागतः किसी व्यापार या कारोबार से बहिष्कृत करने की शक्ति प्रदान करके-

भारत के संविधान में सभी व्यक्तियों को व्यापार करने की स्वतंत्रता दी है। व्यापार करने के अधिकार में व्यापार को बंद कर देने का अधिकार भी शामिल है। राज्य किसी व्यक्ति को व्यापार करने के लिए बाध्य भी नहीं कर सकती है किंतु अन्य अधिकारों की तरह व्यापार को बंद करने का अधिकार भी एक आत्यंतिक अधिकार नहीं है और सर्वजनिक हित के लिए इसे निर्बंधित व नियमित और नियंत्रित किया जा सकता है। व्यापार प्रारंभ करना और उसे बंद करने का अधिकार दोनों एक ही जैसे हैं किंतु यदि किसी व्यक्ति ने व्यापार प्रारंभ कर दिया है तो उसे उसके बंद करने का अत्यंत अधिकार नहीं होता है सर्वजनिक हित में उसे व्यापार को बंद करने से रोका जा सकता है।

न्यायालय की स्थापना ही न्याय संपादन के प्रयोजन के लिए की जाती है और एक न्यायाधीश का अपने सहायकों पर नियंत्रण का उद्देश्य भी न्याय की शुद्धता को कायम रखना होता है इसलिए हाई कोर्ट के लिए आवश्यक है कि वे अधीनस्थ न्यायालयों के न्याय प्रशासन से संबंधित आचरण के संबंध में सचेत रहें पक्षकारों के मध्य विवादों का निर्णय ही न्याय प्रशासन का संपूर्ण सार नहीं है। अनुशासनिक नियंत्रण का कार्य भी समुचित न्याय प्रशासन में उतना ही सहायक के जितना की विधि स्थापना या पक्षकारों के मध्य न्याय निर्णय।

संघ बनाने की स्वतंत्रता आर्टिकल-19 (1) (ग)

भारत के संविधान का आर्टिकल 19 (1) भारत के समस्त नागरिकों को संस्थाएं संघ बनाने की स्वतंत्रता प्रदान करता है पर स्वतंत्रता पर भी इस आर्टिकल के खंड 4 के अंतर्गत राज्य को इस अधिकार पर लोक व्यवस्था या नैतिकता के हित में युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाने की शक्ति भी प्रदान है। संघ या संस्था बनाने के अधिकार में संगठन या प्रबंध का अधिकार भी निहित है, यह स्थाई संस्था होती है इस प्रकार की संस्था और उनके सदस्यों का उद्देश भी सामान्य होता है।

इस प्रकार इसमें कंपनी सोसाइटी साझेदारी श्रमिक संघ और राजनीतिक दल आदि बनाने का अधिकार भी सम्मिलित है। इसमें केवल संघ या संस्था बनाने का ही नहीं बल्कि उसे चालू रखने का भी अधिकार है। संक्षेप में इस अधिकार में संघ बनाने या न बनाने उसे चालू रखने के रखने या उसमें शामिल होने या न होने की पूर्ण स्वतंत्रता का अधिकार सम्मलित है।

इस अधिकार के सरकार निर्बंधन लगा सकती है, अन्य अधिकारों की भांति इस आर्टिकल के खंड 4 के अधीन भी राज्य को इस स्वतंत्रता पर लोक व्यवस्था के सदाचार या देश की प्रभुता के हित में युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाने की शक्ति प्राप्त है। खंड 4 इस विषय से संबंधित वर्तमान विधियों की भी रक्षा करता है जो संघ या संस्था की स्वतंत्रता से असंगत नहीं है।

लखन सिंह बनाम उड़ीसा राज्य के मामले में अभिनिर्धारित किया गया कि मादक द्रव्य में व्यापार या कारोबार करने का किसी व्यक्ति का कोई मूल अधिकार नहीं है। मादक पेय से शराब गांजा अफीम आदि के व्यापार करने का राज्य को एकाधिकार प्राप्त है और वह जनहित में नागरिकों को इस व्यापार से पूर्ण बहिष्कार कर सकता है। शराब आदि के बनाने रखने या बेचने का राज्य को एकाधिकार प्राप्त है। वह किसी व्यक्ति को इन पदार्थों के व्यापार करने के लिए लाइसेंस फीस रिपोर्ट निर्बंधन के अधीन प्रदान कर सकता है।

सुकुमार मुखर्जी बनाम पश्चिम बंगाल राज्य के एक मामले में पश्चिम बंगाल राज्य स्वास्थ्य सेवा अधिनियम 1990 की धारा 9 के द्वारा राज्य के मेडिकल शिक्षा सेवा में कार्यरत चिकित्सकों की प्राइवेट प्रैक्टिस पर रोक लगा दी गई जबकि बंगाल स्वास्थ्य सेवा में कार्यरत डॉक्टरों पर यह रोक नहीं लगाई गई थी।

यह अभिकथन किया गया कि धारा 9 आर्टिकल 19(1)(6) का अतिक्रमण करती है अतः अवैध है। किंतु सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में यह अभिनिर्धारित किया की धारा 9 द्वारा लगाया गया निर्बंधन आर्टिकल 19 (2)(6) के अधीन युक्तियुक्त है। यह सभी डॉक्टरों को प्राइवेट प्रैक्टिस करने से नहीं रोकता है केवल उन डॉक्टरों को रोकता है जो सरकारी सेवा का विकल्प चुनते हैं।

अध्यापक डॉक्टरों के ऊपर ऐसा प्रतिबंध लगाना मेडिकल शिक्षा में सुधार के लिए आवश्यक है। प्रत्येक नागरिक को यह स्वतंत्रता है कि वह कोई भी पैसा या व्यवसाय कर सकता है किंतु यदि वह स्वेच्छा से सरकारी सेवा में आता है तो वह सेवा शर्तों के मानने के लिए बाध्य है जो आर्टिकल 19 (1) (घ) के अंतर्गत युक्तियुक्त है।

पान मसाला प्रोडक्ट आईपी लिमिटेड बनाम भारत संघ एआईआर 2004 सुप्रीम कोर्ट 4057 के मामले में महाराष्ट्र सरकार ने एक अधिसूचना द्वारा राज्य में पान मसाला और गुटखा के निर्माण बिक्री संग्रह तथा वितरण पर 5 वर्षों के लिए रोक लगा दी।

इस आदेश को इस आधार पर चुनौती दी इससे उनके आर्टिकल 19 (1) (g) में उल्लेखनीय मूल अधिकार का उल्लंघन होता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा उक्त आदेश आर्टिकल 19 (1) उल्लंघन करता है। उक्त चीजों का आवास को बिक्री करने पर रोक होनी चाहिए, पूर्ण रूप इस प्रकार का निषेध युक्तियुक्त नहीं है।

खटकी अहमद बनाम लौंड नगर पालिका एआईआर 1979 सुप्रीम कोर्ट 418 के मामले में नगरपालिका के एक उपनियम की वैधता को न्यायालय में इस आधार पर चुनौती दी कि वह उसके कारोबार के आधार पर आयुक्तियुक निर्बंधन लगाता है।

उपरोक्त विधि के अधीन नगर पालिका ने पिटीशनर को मांस बेचने की दूसरी दुकान खोलने के लिए लाइसेंस देने से इंकार कर दिया गया था क्योंकि इस क्षेत्र में पहले से ही 3 मांस बेचने की दुकानें थी जिसमें एक पिटीशनर के पिता की दुकान थी, ऐसी दशा में उसी व्यक्ति को उसी छोटे से क्षेत्र में एक अन्य दुकान खोलने की अनुमति देना उचित नहीं था। इसके अतिरिक्त उस क्षेत्र में लोगों में भी इसके लिए विरोध की भावना थी जिससे शांति भंग होने की समस्या उत्पन्न होने की आशंका थी।

न्यायालय इन बातों की उपेक्षा नहीं कर सकता है, यह अभिनिर्धारित किया गया कि किसी व्यक्ति को इस बात का निर्णय करने का अधिकार किसी व्यक्ति को किसी विशेष स्थान पर मांस बेचने की दुकान खोलने का लाइसेंस दिया जाए या नहीं। नगरपालिका अधिकारी क्षेत्र की समस्याओं से अवगत है। नगर पालिका में जिन आधारों पर पिटीशनर को लाइसेंस देने से इनकार किया अनुचित नहीं कहे जा सकते और कारोबार के अधिकार पर प्रतिबंध नहीं लगाते हैं, यह विधि विधिमान्य एवं संवैधानिक है।

आर्टिकल 21(A) तथा शिक्षा का अधिकार अधिनियम की योजना में राज्य की प्राथमिक बाध्यता है कि वह 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को अनिवार्य और निशुल्क शिक्षा उपलब्ध कराएं इसके अनुसार प्रत्येक नागरिक का अधिकार है कि वह आर्टिकल 19(1)(6) के अधीन शैक्षिक संस्थाएं स्थापित करें प्रशासित करें।

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