मजिस्ट्रेट द्वारा लिए जाने वाले बॉण्ड क्या होते हैं और क्या है उनसे संबंधित मुकदमें जानिए प्रावधान
दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के चैप्टर 8 में ऐसे बॉण्ड लेने के लिए मजिस्ट्रेट को सशक्त किया गया है जहां किसी अपराध के होने की संभावना है। कभी-कभी यह होता है कि किन्ही लोगों से हमारा विवाद हो जाता है विवाद में कोई अपराध नहीं होता है पर सामने वाले द्वारा इसकी शिकायत की जाती है।
अनेक मामलों में पुलिस समझाइश देकर छोड़ देती है पर बहुत से मामले ऐसे भी होते हैं जहां पुलिस इस बात के बारे में एसडीएम को संज्ञान दे देती है या फिर पक्षकार स्वयं इसकी जानकारी एसडीएम को देता है। कार्यपालक मजिस्ट्रेट एसडीएम होता है, दंड प्रक्रिया संहिता के अध्याय 8 के अंतर्गत उसे बॉण्ड लेने की शक्ति प्राप्त है।
एसडीएम ऐसा बॉण्ड उस व्यक्ति से लेता है जिस व्यक्ति के बारे में यह संभावना है कि वह कोई अपराध कर देगा। जैसे कि दो पड़ोस में रहने वाले लोगों का आपस में झगड़ा हुआ, उन्होंने इसकी शिकायत पुलिस को की, पुलिस ने मामले की जांच की जांच के बाद पाया कि कोई भी संज्ञेय अपराध नहीं हुआ है तब पुलिस किसी भी पक्ष पर किसी भी प्रकार का कोई प्रकरण दर्ज नहीं करती है पर पुलिस को यह लगता है कि अगर किसी पक्षकार से बांड नहीं भरवाया गया तब उसके द्वारा किसी प्रकार का अपराध कारित कर देने की संभावना है।
ऐसी स्थिति में पुलिस एसडीएम को संज्ञान दे देती है और पुलिस ही नहीं बल्कि पीड़ित पक्ष भी एसडीएम को संज्ञान दे देता है और उसे इस बात से अवगत कराता है कि उसके साथ किसी अपराध के किए जाने की प्रबल संभावना है।
जैसे कि झगड़े के बाद उसकी हत्या कर दी जाना उसका अपहरण होना इत्यादि अपराध के होने की संभावना है। पुलिस और व्यक्ति ऐसे व्यक्ति के बारे में नामजद रिपोर्ट करता है और मजिस्ट्रेट को यह कहता है कि हमें फला व्यक्ति से खतरा है इस बात की प्रबल संभावना है कि वह व्यक्ति हमारे साथ कोई न कोई अपराध कारित करेगा।
कार्यपालक मजिस्ट्रेट को ऐसी शक्तियों से शक्ति संपन्न किया गया है जो अपराध को रोके। इसका उद्देश्य अपराध को होने के पहले ही रोक देना है। अपराध होने की संभावना होने पर हस्तक्षेप कर उस अपराध को होने से रोके जाने के लिए यह प्रावधान शक्ति के रूप में सरकार के अधिकारियों को दिए गए है।
एक कार्यपालक मजिस्ट्रेट न्यायाधीश नहीं होता है बल्कि वह सरकार का आदमी होता है और कार्यपालिका का हिस्सा होता है। आमतौर पर यह कार्यपालक मजिस्ट्रेट उपखंड अधिकारी जिसे एसडीएम कहा जाता है वही होता है। यह एक आईएएस अधिकारी होता है। जहां पर इसे यह जिम्मेदारी दी गई है कि वे किसी भी अपराध को होने से पहले ही रोक दें।
अनेक मामले ऐसे होते हैं जहां लोगों को यह प्रतीत हो जाता है कि उनके साथ कोई न कोई घटना घट जानी है तब उनके द्वारा ऐसी शिकायत पुलिस को की जाती है। फिर पुलिस ऐसी शिकायत के बाद कोई ऐसी कार्यवाही करती है जिससे अपराध को रोका जा सके। उन कार्यवाही में यह बॉण्ड लेने की कार्यवाही भी है।
कैसे लेते हैं बॉण्ड
जब एसडीएम को ऐसी शिकायत प्राप्त होती है तब वे उस व्यक्ति को समन या वारंट के जरिए धारा 107 के अंतर्गत उपस्थित होकर बॉण्ड भरने के लिए कहता है और जमानत लेने के लिए कहता है। ऐसा बॉण्ड या जमानत अधिकतम एक वर्ष के लिए भरवाया जा सकता है।
एक वर्ष से अधिक किसी भी व्यक्ति से बॉण्ड या जमानत नहीं ली जाती है उसकी ओर से एक अन्य व्यक्ति यह गारंटी लेता है कि वे उसकी निगरानी करेगा और किसी भी प्रकार का अपराध नहीं करने देगा।
अगर व्यक्ति इस प्रकार की शिकायत के संबंध में प्रतिरोध करता है और कार्यपालक मजिस्ट्रेट से यह कहता है कि उसने शिकायतकर्ता के साथ किसी प्रकार की किसी घटना को अंजाम नहीं दिया है और न ही देने का कोई इरादा है तब कार्यपालक मजिस्ट्रेट के पास ऐसी शक्ति है कि वह धारा 116 के अंतर्गत इस मामले की जांच कर सकता है क्योंकि यहां पर जिस व्यक्ति से जमानत लेने और बॉण्ड बनने के लिए कहा गया है वह व्यक्ति जमानत देने और बॉण्ड देने से इंकार कर देता है।
तब एसडीएम ऐसी शिकायत की जांच करता है और ऐसी जांच किसी भी आपराधिक प्रकरण की तरह चलती है इसमें सबूत बुलाए जाते हैं और यह देखा जाता है कि क्या वाकई कोई मामला है या फिर कोई झूठी शिकायत की गई है।
अगर सबूतों और गवाहों के अवलोकन से यह साबित हो जाता है कि वहां पर कोई घटना है कोई मामला है तथा अपराध होने की संभावना है तब उसके द्वारा यह आदेश दिया जाता है कि आपको ऐसा बॉण्ड भरना ही होगा।
प्रकरण की समय अवधि
किसी भी एसडीएम के पास जब इस प्रकार का प्रकरण चलता है तब उसमें सबूत और गवाहों को बुलाया जाता है और जांच की जाती है। इस मामले को लेकर एक समय सीमा का निर्धारण कर दिया गया है उस समय सीमा से अधिक समय तक कार्यवाही को नहीं चलाया जा सकता।
6 महीने का समय ऐसी जांच के लिए दिया गया है अगर एसडीएम द्वारा ऐसी जांच 6 महीने के भीतर पूरी नहीं की जाती है तब मामला अपने आप ही समाप्त हो जाता है। किसी भी जांच को 6 महीने से अधिक नहीं चलाया जा सकता। 6 महीने में ही जांच को पूरा करके एसडीएम को अपना निर्णय देना होता है।
जांच में दोषमुक्त
बहुत दफा यह भी होता है कि ऐसी जांच में जिस व्यक्ति के विरुद्ध शिकायत की गई है उसका पक्ष सही साबित होता है और यह निकल कर सामने आता है कि शिकायत झूठी की गई थी और कोई भी प्रकरण नहीं बन रहा है न ही किसी घटना के होने की कोई संभावना है और न ही दोनों पक्षों के बीच किसी प्रकार का कोई विवाद है बल्कि एक प्रवंचना बनाकर व्यक्ति से बॉण्ड लिया जा रहा है तब एसडीएम ऐसे व्यक्ति को दोष मुक्त कर देता है। ऐसी दोषमुक्ति धारा 118 के अंतर्गत होती है।
यह कोई अपराध नहीं
आमतौर पर किसी व्यक्ति को कार्यपालक मजिस्ट्रेट के पास जब भी पेश होने के लिए कहा जाता है तब उसे ऐसा लगता है कि उसने किसी अपराध को कर दिया है जबकि यह बात ठीक नहीं है। यह किसी भी तरह का कोई अपराध नहीं है बल्कि अपराध को रोकने की पूर्व प्रक्रिया है। पुलिस इस रिकॉर्ड को किसी भी प्रकार से रिकॉर्ड पर नहीं रखती है और इसे किसी व्यक्ति के आचरण से संबंधित भी नहीं माना जा सकता।
जैसे कि अनेक लोग सरकारी सेवाओं में है अगर उनके खिलाफ इस प्रकार का कोई बॉण्ड लिया जाता है तब यह नहीं माना जाता कि उन लोगों ने कोई अपराध कारित कर दिया है और उन्हें किसी अपराध में दोषसिद्ध कर दिया गया है। ऐसे बॉण्ड किसी भी अपराध को रोकने के लिए किसी व्यक्ति की शिकायत पर लिए जाते हैं न कि किसी व्यक्ति द्वारा अपराध किए जाने के बाद लिए जाते हैं।
अगर कोई व्यक्ति अपराध कर देता है तब उससे संबंधित विचारण न्यायिक मजिस्ट्रेट की कोर्ट में चलाया जाता है ना कि कार्यपालक मजिस्ट्रेट की कोर्ट में। यह बात स्पष्ट होना चाहिए कि एक कार्यपालक मजिस्ट्रेट सरकार की कार्यपालिका का हिस्सा होता है और उसको किसी भी प्रकार से न्यायिक नहीं माना जा सकता।
बहुत सीमा तक उसे अर्ध न्यायिक माना जा सकता है पर पूर्ण न्यायिक किसी भी सूरत में नहीं माना जा सकता। किसी भी व्यक्ति का दोषी करार होना तब ही माना जा सकता है जब उसे किसी न्यायिक मजिस्ट्रेट या न्यायाधीश द्वारा किसी मामले में दोषसिद्ध किया जाए।
बॉण्ड भर देने पर
अगर किसी व्यक्ति को सीआरपीसी की धारा 107 के अंतर्गत बॉण्ड भरने के लिए कार्यपालक मजिस्ट्रेट ने बुलाया है तब अगर वह व्यक्ति सीधे बॉण्ड भर देता है तब किसी प्रकार की कोई जांच नहीं की जाती है और न ही कोई केस चलाया जाता है पर व्यक्ति इस प्रकार का बांड भरने से इंकार इसलिए करता है क्योंकि उसका यह कहना होता है कि उसने कोई भी अपराध नहीं किया है और न ही कोई अपराध करने का इरादा है।
उसके ऐसे कथन के बाद जांच की प्रक्रिया शुरू होती है। कार्यपालक मजिस्ट्रेट को जांच करनी होती है गवाहों और सबूतों को बुलाना होता है तब मामला साबित होता है फिर ही उसके द्वारा बॉण्ड या जमानत ली जाती है।