Hindu Marriage Act में विवाह का शून्य होना

Update: 2025-07-19 17:36 GMT

हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 11 शून्य विवाह से संबंधित है। धारा 11 उन विवाहों का उल्लेख कर रही है जो विवाह इस अधिनियम के अंतर्गत शून्य होते हैं, अर्थात वह विवाह प्रारंभ से ही कोई वजूद नहीं रखते हैं तथा उस विवाह के अधीन विवाह के पक्षकार पति पत्नी नहीं होते। शून्य विवाह वह विवाह है जिसे मौजूद ही नहीं माना जाता है।

शून्य विवाह का अर्थ है कि वह विवाह जिसका कोई अस्तित्व ही न हो अर्थात अस्तित्वहीन विवाह है। किसी भी वैध विवाह के संपन्न होने के बाद पुरुष और नारी के मध्य विधिक वैवाहिक संबंध स्थापित होते हैं परंतु यदि विवाह शुन्य है तो कोई भी ऐसा संबंध स्थापित नहीं होता है। उन लोगों के बीच केवल यौन संबंध स्थापित होता है तथा दोनों को ही एक दूसरे के प्रति कोई अधिकार तथा दायित्व नहीं होते हैं।

यमुनाबाई बनाम अन्तर राव एआईआर 1981 सुप्रीम कोर्ट 644 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा है कि शून्य विवाह उसे कहा जाता है जिसे विधि की दृष्टि में कोई अस्तित्व ही नहीं माना जा सकता है, ऐसे विवाह को इस के किसी भी पक्षकार द्वारा विधिक रूप से इंफ़ोर्स नहीं किया जा सकता है।

अधिनियम की धारा 11 यह घोषणा करती है कि इस अधिनियम की धारा 5 के खंडों (1) (4) और (5) में उल्लेखित शर्तों का उल्लंघन ऐसा विवाह शून्य विवाह कर देता है।

हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 हिंदू विवाह के लिए शर्तों का उल्लेख कर रही है। धारा 5 के अंतर्गत उन शर्तों का उल्लेख किया गया है जिन शर्तों के मुकम्मल होने पर हिंदू विवाह संपन्न होता है। अधिनियम की धारा 11 शून्य विवाह का उल्लेख कर रही है, धारा 11 के अनुसार धारा 5 की तीन शर्तों का उल्लंघन कर दिया जाता है तो विवाह शून्य हो जाता है।

धारा 11 का अध्ययन करने के बाद प्रश्न यह उठता है कि किसी भी विवाह को कोर्ट से शून्य घोषित करवाने हेतु याचिका कौन प्रस्तुत कर सकता है? यह उल्लेखनीय है कि केवल विवाह के वास्तविक पक्षकार ही विवाह को अकृत व शून्य घोषित कराने का आवेदन उपरोक्त वर्णित आधारों पर कर सकते हैं।

तृतीय पक्षकार उदाहरण के लिए पहली पत्नी ऐसा नहीं कर सकती है। धारा 11 में प्रयुक्त 'उसके किसी पक्षकार' शब्दों का अभिप्राय केवल दो व्यक्तियों से हो सकता है अर्थात विवाह के वास्तविक पक्षकार। इसलिए पहली पत्नी धारा 11 के अंतर्गत यह आवेदन नहीं कर सकती कि दूसरी पत्नी के विवाह को धारा 11 के अंदर शून्य घोषित किया जाए। लक्ष्मण अम्माल बनाम रामास्वामी नयकर एआईआर 1960 मद्रास 61 के मामले में स्पष्ट कहा गया है कि किसी भी हिंदू विवाह को शून्य घोषित करवाने हेतु कोर्ट के समक्ष याचिका केवल विवाह के दोनों पक्षकारों में से कोई एक पक्षकार ही कर सकता है।

पहली पत्नी द्वारा इस प्रकार की याचिका प्रस्तुत नहीं कि जाएगी। पहली पत्नी के पास भारतीय दंड संहिता की धारा 496 के अधीन दाण्डिक उपचार उपलब्ध है।

1976 के विवाह विधि संशोधन अधिनियम के बाद धारा 11 के अंतर्गत याचिका पति या पत्नी के द्वारा ही प्रस्तुत की जाती है। जिसके विरुद्ध अनुतोष मांगा गया है पति या पत्नी होने चाहिए।

पति और पत्नी से अलग किसी व्यक्ति द्वारा ऐसी याचिका प्रस्तुत नहीं की जाएगी। यदि किसी एक की मृत्यु हो जाए तो याचिका पोषणीय नहीं है। यदि याचिका के लंबित अवस्था में पति या पत्नी की मृत्यु हो जाए तो याचिका नहीं चल सकेगी। पति की मृत्यु पर पुत्र को उसके स्थान पर पक्षकार बनाकर याचिका नहीं चल सकती है।

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