संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 34: पट्टे की परिभाषा (धारा 105)

Update: 2021-08-22 05:30 GMT

संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 के अंतर्गत जिस प्रकार विक्रय विक्रय एक व्यवहार है वह संपत्ति के अंतरण का माध्यम है इसी प्रकार पट्टा भी संपत्ति के अंतरण का एक माध्यम है तथा इससे भी संपत्ति का अंतरण किया जाता है। संपत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत पट्टे से संबंधित विधानों को व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया गया है।

इस आलेख के अंतर्गत पट्टे की परिभाषा प्रस्तुत की जा रही है जो कि इस अधिनियम की धारा 105 से संबंधित है। इसके बाद के आलेखों में पट्टे से संबंधित दूसरे भी प्रावधान प्रस्तुत की जाएंगे।

पट्टा- (धारा 105)

धारा 105 पट्टा को परिभाषित करती है। एक आंशिक अन्तरण के रूप में अर्थात् कतिपय कालावधि के लिए उपभोगों के अधिकार का अन्तरण इस धारा के अनुसार अचल या स्थावर सम्पत्ति का पट्टा से अभिप्रेत है।

ऐसी सम्पत्ति का उपभोग करने के अधिकार का अन्तरण जो किसी निश्चित अवधि के लिए भुगतान किए गये या भुगतान का वचन दिए गये मूल्य, धन, फसलों के अंश अथवा आवधिक रूप में दिए जाने वाले मूल्य की किसी अन्य वस्तु के प्रतिफल में अन्तरितों द्वारा अन्तरक को विशिष्ट अवसरों पर दिया जाता है।

साधारण शब्दों में कहा जा सकता है। कि पट्टादाता अपनी स्थावर या अचल सम्पत्ति के उपभोग का अधिकार पट्टाग्रहीता को हस्तान्तरित करता है तथा पट्टाग्रहीता इस अधिकार के बदले में पट्टाकर्ता को मूल्य प्रतिफल के रूप में या तो अदा करता है या अदा करने का वचन देता है।

प्रतिफल मूल्य के रूप में फसलों के अंश के रूप में या किसी सेवा के रूप में या किसी अन्य मूल्यवान वस्तु के रूप में जो कालावधीय रूप में या विनिर्दिष्ट अवसरों पर अन्तरिती द्वारा अन्तरक को दी जाती है या दी जानी है।

पट्टा का महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि इसमें स्वामित्व एवं कब्जा को पृथक्-पृथक् कर दिया जाता है। उपभोग का अधिकार पट्टाग्रहीता को मिलता है जिसके लिए सम्पत्ति का कब्जा मिलना आवश्यक है, जबकि स्वामित्व का अधिकार, अन्तरक में ही बना रहता है।

चूँकि अन्तरक सम्पत्ति में अपना सम्पूर्ण हित अन्तरित अर्थात् पट्टाग्रहीता को अन्तरिती नहीं करता है, जो कुछ उसके पास अवशिष्ट रूप में बचा रहता है उसे 'राइट आफ रिवर्सन' कहा जाता है। यह राइट ऑफ रिवर्सन पट्टाकर्ता का महत्वपूर्ण अधिकार होता है जिसके माध्यम से वह पट्टाग्रहीता को प्रदत्त सम्पत्ति वापस पाने का अधिकारी होता है और उसका विखण्डित स्वामित्व पुनः सम्पूर्ण हो जाता है।

पट्टा की विशेषताएँ– निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

(1) इसमें सिर्फ उपभोग का अधिकार मात्र अन्तरित किया जाता है। पट्टाग्रहीता को सम्पत्ति से सम्बन्धित अन्य महत्वपूर्ण अधिकार जैसे सम्पत्ति को अन्तरित करने का अधिकार विनष्ट करने का अधिकार इत्यादि नहीं प्राप्त होते हैं।

(2) पट्टे का सृजन उसी स्थिति में होगा जबकि सम्पत्ति का स्वामित्व एवं स्वत्व पृथक् पृथक् हो गया हो। स्तवत्व अर्थात् भौतिक कब्जा पट्टाग्रहीता के पास चला जाता है जबकि स्वामित्व पट्टाकर्ता के पास रहता है।

(3) पट्टा का सृजन संविदा से होता है, परन्तु यह संविदा मात्र ही नहीं है। इसमें सम्पत्ति में का महत्वपूर्ण हित अन्तरित होता है जिसके आधार पर पट्टाग्र होता इसका उपभोग करने हेतु समर्थ होता है। इसके द्वारा लोक लक्षी अधिकार का सृजन होता

(4) पट्टा सामान्यतया संक्रमणीय एवं उत्तराधिकार दोनों ही गुणों से युक्त होते हैं, पर रेण्ट अधिनियम के अन्तर्गत सृजित होने वाले पट्टे इन गुणों से युक्त नहीं होते हैं। वे पूर्णरूपेण वैयक्तिक होते हैं तथा पट्टाग्रहीता के जीवनकाल तक अस्तित्ववान रहते हैं एवं उसकी मृत्यु के साथ इसका भी पर्यवसान हो जाता है।

पट्टा का आवश्यक तत्व- धारा 105 में प्रदत्त परिभाषा के आधार पर पट्टा के निम्नलिखित आवश्यक तत्व होते हैं-

1. पक्षकार।

2. पट्टा की विषयवस्तु।

3. अधिकार का अन्तरण।

4. प्रतिफल या भाटक या रेण्ट।

पट्टा अचल सम्पत्ति में एक हित का अन्तरण है। यह अधिनियम की धारा 105 के अन्तर्गत सम्पत्ति का अन्तरण है अतः इसे अन्तरण की सभी औपचारिकताओं को पूर्ण करना होगा, साथ ही अधिनियम की अन्य उन धाराओं का भी अनुपालन करना होगा जहाँ तक वे इस पर प्रवर्तनीय हैं धारा 105 के अन्तर्गत उल्लिखित पट्टा में उपपट्टा स्पष्टतः समाहित है।

इस धारा में दी गयी परिभाषा केवल इसी अधिनियम के अन्तर्गत सृजित पट्टों पर लागू होगी। उन पट्टों पर यह परिभाषा नहीं होगी जो इस अधिनियम से शासित नहीं होते हैं जैसे कृषि हेतु पट्टा या इन स्थानों पर सृजित पट्टा जिन पर यह अधिनियम प्रवर्तित नहीं होता है। इत्यादि।

पट्टा की मौलिक विशेषताओं को किसी भी प्रकार जैसे अधित्यजन, विबन्धन, अभिस्वीकृति अथवा का प्रयोग करके भी, परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। यहाँ तक कि पक्षकारों के अभिवचन द्वारा भी इसे परिवर्तित नहीं किया जा सकता है।

1. पक्षकार-

एक सामान्य करार की भाँति, पट्टा में भी दो पक्षकार होते हैं तथा उन्हीं के बीच हुए करार से पट्टे का सृजन होता है। एक व्यक्ति सम्पत्ति का स्वामी होता है जिसे पट्टाफत या लेसरे कहा जाता है, जिससे दूसरा व्यक्ति उस सम्पत्ति को एक अवधि के लिए प्रतिफल या रेण्ट पर लेने का प्रस्ताव करता है। प्रस्तावक को पट्टाग्रहीता या 'लेसी' कहा जाता है।

दोनों पक्षकारों को क्रमश: लैण्डलार्ड एवं टेनेन्ट भी कहा जाता है। पट्टाकर्ता के लिए यह आवश्यक है कि वह संविदा अधिनियम, 1872 में संविदा के पक्षकारों हेतु उल्लिखित समस्त अर्हताओं से युक्त हो, जैसे, उसे वयस्क होना चाहिए, मानसिक रूप से स्वस्थ होना चाहिए सम्पत्ति उसकी होनी चाहिए एवं अन्य वैधानिक क्षमताओं से वह युक्त हो तथा प्रतिबन्धों से मुक्त हो।

सम्पत्ति पट्टाकर्ता की होनी चाहिए। इस पद से यह अभिप्रेत है कि पट्टाकर्ता सम्पत्ति का स्वामी हो अथवा सम्पत्ति के स्वामी द्वारा इस निमित्त प्राधिकृत हो। यदि पट्टा सम्पत्ति के स्वामी द्वारा किया जा रहा है जो किसी अनर्हता से प्रभावित नहीं है तो पट्टा किसी भी कालावधि के लिए जिसे पट्टाकर्ता उपयुक्त समझे सृजित किया जा सकेगा।

किन्तु यदि पट्टा ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जा रहा है जो स्वयं सम्पत्ति का स्वामी नहीं है या सम्पत्ति में सीमित धारक है, जैसे जीवनकाल के लिए या एक निश्चित अवधि के लिए तो ऐसा व्यक्ति अपने धारणाधिकार के अन्तर्गत हो सम्पत्ति का पट्टा कर सकेगा जब तक कि वह अन्यथा विशिष्टतः प्राधिकृत न हो इस सिद्धान्त के अन्तर्गत पट्टा धारक भी सम्पत्ति का पट्टा करने के लिए प्राधिकृत है तथा उसके द्वारा किया गया पट्टा, उपपट्टा या अधीनस्थ पट्टा कहलाता है।

यदि पट्टा संयुक्त अभिधारी (टेनेन्ट) द्वारा प्रदान किया गया है तथा एक अभिधारी को मृत्यु हो जाती है तो पट्टाग्रहीता उत्तरजीवी पट्टादाता के अध्यधीन पट्टा धारण करेगा, पर पट्टा सामान्यिक अभिधारों द्वारा प्रदान किया गया है और उनमें से एक की मृत्यु हो जाती है तो पट्टा धारकों का कब्जा सामान्य कब्जा नहीं होगा और वे सामान्यिक अभिधारी नहीं कहलाएंगे।

ऐसा प्रत्येक व्यक्ति जो संविदा करने के लिए अर्ह है तथा अन्तरणीय सम्पत्ति के स्वामी हैं अथवा यदि सम्पत्ति उसकी अपनी नहीं है तो सम्पत्ति के स्वामी द्वारा अन्तरणीय सम्पत्ति का अन्तरण करने के लिए प्राधिकृत है, पट्टा प्रदान करने के लिए सक्षम है एक अवयस्क द्वारा की गयो संविदा शून्य होती है। अतः ऐसा व्यक्ति पट्टा प्रदान करने के लिए सक्षम नहीं है। वह पट्टादाता नहीं हो सकता है।

यदि वह पट्टा प्रदान करता है तो पट्टा का सृजन शून्य होगा। अवयस्क व्यक्ति, वयस्क होने के पश्चात् अपने द्वारा अवयस्कता के दौरान किए गये पट्टे का अनुसमर्थन भी नहीं कर सकता है किराया लेकर या अन्यथा किन्तु अवयस्क का संरक्षक पट्टा प्रदान कर सकता है और यदि उसने अपने प्राधिकार से अधिक का पट्टा प्रदान किया है तो अवयस्क, वयस्क होने के उपरान्त ऐसे पट्टे का अनुसमर्थन कर सकेगा। अनुसमर्थन के समय अवयस्क अपनी शर्तें पट्टा हेतु रख सकेगा और यदि पट्टाग्रहीता नई शर्तें स्वीकार कर लेता है तो पूर्ववर्ती पट्टा नवीन पट्टे द्वारा प्रतिस्थापित हो जाएगा।

एक अवयस्क की सम्पत्ति का संरक्षक प्राधिकृत है, न्यायालय की अनुमति के बिना भी पाँच वर्ष से अनधिक अवधि तक का या एक वर्ष से अनधिक अवधि तक का जब से अवयस्क ने पट्टा प्रदान करने के लिए वयस्कता प्राप्त की हो।

एक वसीयती संरक्षक, वसीयत की शर्तों के अध्यधीन पट्टा प्रदान करने के लिए प्राधिकृत है तथा प्रशासक या निष्पादक, भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 307 की परिसीमा के अन्तर्गत पट्टा प्रदान करने के लिए प्राधिकृत है।

एक अवयस्क, अपने दूसरे मित्र, जो वयस्क है, के माध्यम से पट्टा का सृजन कर सकता है, जिसमें ऐसी शर्तें हो सकती हैं, जो अवयस्क को कतिपय कार्य करने के लिए बाध्य करती हों। ऐसा पट्टा शून्य नहीं होगा भले ही वह प्रसंविदा अवयस्क के विरुद्ध अप्रवर्तनीय हो। पट्टाग्रहीता पट्टा को समाप्त नहीं करा सकेगा।

वह अवयस्क से प्रसंविदा का विशिष्ट अनुपालन भी नहीं करा सकेगा, परन्तु वह क्षतिपूर्ति पाने का अधिकारी होगा। एक अवयस्क द्वारा किया गया पट्टा यदि शून्य होता है, फिर भी साम्या के साधारण सिद्धान्तों के अन्तर्गत न्यायालय को यह अधिकार प्राप्त है कि वह आदेश करे कि पट्टाग्रहीता को निष्काषित करने से पूर्व उसके द्वारा संदत्त प्रतिफल उसे वापस कर दिया जाए।

अवयस्क के पक्ष में सम्पत्ति का अन्तरण जैसा कि अधिनियम की धारा 7 में उल्लिखित है, शून्य नहीं होता है। परन्तु यदि पट्टा अवयस्क के पक्ष में किया जाता है जिसमें ऐसी प्रसंविदाएँ हैं जिसे अवयस्क द्वारा पूर्ण किया जाना है तो पट्टा अवैध होगा।

यदि पट्टा की शर्तों के अधीन प्रतिफल का प्रीमियम के रूप में भुगतान एकमुश्त कर दिया गया है और कोई भी प्रसंविदा बकाया नहीं है जिसे अवयस्क पट्टाग्रहीता द्वारा पूर्ण किया जाना है, तो ऐसा पट्टा वैध होगा।

राघवाचारियर बनाम श्रीनिवास राघव के वाद में न्यायमूर्ति श्री निवास आयंगर ने उन मामलों, जिनमें अन्तरण कतिपय वचनों या प्रसंविदाओं के प्रतिफलस्वरूप तथा उन मामलों में जिनमें अन्तरित सम्पत्ति स्वयं कतिपय दायित्वों से युक्त होती है, के बीच अन्तर सुस्पष्ट किया है। प्रथम स्थिति में अवयस्क के पक्ष में अन्तरण शून्य होगा जबकि बाद वाली स्थिति में शून्य नहीं होगा।

मुस्लिम विधि के अन्तर्गत एक अवयस्क, जिसका प्रतिनिधित्व उसका वस्तुतः नियुक्त संरक्षक कर रहा हो, एक ऐसी संविदा में भागीदार नहीं हो सकेगा जो उसकी अचल सम्पत्ति से सम्बन्धित हो या उसे प्रभावित करता हो।

यदि वह ऐसा करता है तो संविदा शून्य होगी और दोनों में से किसी भी पक्षकार द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होगा पट्टा एक अचल सम्पत्ति में हित सृजित करता है अतः अवयस्क के वस्तुतः संरक्षक द्वारा पट्टा को संविदा शून्य होगी। किन्तु एक मुस्लिम पिता यदि ऐसा करता है। और उसके द्वारा सृजित पट्टा उसके बच्चों के लाभ के लिए है तो वह वैध होगा।

पट्टा का सृजन करने के लिए पट्टाकर्ता का सक्षम होना आवश्यक है? एक ऐसे व्यक्ति द्वारा पट्टे का सृजन, जिसके विरुद्ध कब्जा वापसी की डिक्री पारित हुई हो स्वामित्व की उद्घोषणा के पश्चात् वैध नहीं होगा क्योंकि वह सम्पत्ति अन्तरित करने के लिए सक्षम नहीं था। पट्टाग्रहीता को किसी प्रकार का हित नहीं प्राप्त होगा।

पट्टाग्रहीता पट्टा लेने वाले व्यक्ति जिसे पट्टाग्रहीता कहा जाता है में भी संविदा करने की क्षमता होनी चाहिए। यह क्षमता पट्टा लेने की तिथि पर होनी चाहिए। पट्टा एक व्यक्ति या एक से अधिक व्यक्तियों के नाम एक साथ हो सकता है। पट्टा जीवित व्यक्तियों के अतिरिक्त विधिक व्यक्तियों के नाम भी हो सकता है जैसे कम्पनी भागीदारी फर्म सोसाइटी, इत्यादि।

अव्यस्क पट्टाग्रहीता नहीं हो सकता है क्योंकि पट्टा के अन्तर्गत उत्पन्न प्रसंविदाओं को पूर्ण करने के लिए अवयस्क को बाध्य नहीं किया जा सकता है यदि पट्टा एक से अधिक व्यक्तियों के पक्ष में संयुक्त रूप में किया जा रहा है तो सुस्पष्ट तत्प्रतिकूल प्रावधान के अभाव में समस्त पट्टाग्रहोता. एक पट्टाग्रहीता के रूप में समझे जाएंगे।

2. पट्टा की विषयवस्तु-

सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम के अन्तर्गत जिस वस्तु का पट्टा किया जा सकेगा उसे अचल या स्थावर सम्पत्ति होनी चाहिए। अचल या स्थावर सम्पत्ति किसे कहा जाएगा, इसका वर्णन अधिनियम की धारा 3 में किया गया है। इसके अनुसार स्थावर सम्पत्ति के अन्तर्गत खड़ाकाष्ठ, उगती फसलें या घास नहीं आती हैं।

यह एक नकारात्मक परिभाषा है जिनमें उन वस्तुओं को सम्मिलित नहीं किया गया है, अर्थात् इनको छोड़कर शेष समस्त वस्तुएँ स्थावर सम्पत्ति है। परन्तु यह सत्य नहीं है। मेज, कुर्सी, बर्तन, मोटर इत्यादि स्थावर या अचल सम्पत्ति नहीं होंगे।

अतः स्थावर या अचल सम्पत्ति को समझने के लिए हमें अन्य संविधियों जैसे रजिस्ट्रेशन अधिनियम, जनरल क्लाजेज अधिनियम माल विक्रय अधिनियम इत्यादि का भी सहारा लेना होगा। अचल या स्थावर सम्पत्ति चाहे वह मूर्त हो या अमूर्त, हो पट्टा की विषयवस्तु होगी।

इन विभिन्न अधिनियमों में वर्णित परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि भूमि, भवन, भूमि से उद्धृत होने वाले प्रलाभ जैसे मछली पकड़ने का अधिकार नौकायन का अधिकार एक निश्चित कालावधि तक वृक्षों को काटने एवं ले जाने का अधिकार, बाजार से उद्धृत होने वाले शुल्क इत्यादि पट्टा की विषयवस्तु होंगे। वह वस्तु जिसके विषय में पट्टा का सृजन होगा या हो सकेगा, सुनिश्चित होनी चाहिए।

उदाहरण के लिए यदि पट्टा के अन्तर्गत वस्तु को स्टोर करने का दायित्व सृजित हुआ है, परन्तु वस्तु को स्टोर करने के लिए कोई कक्ष अभिनिश्चित नहीं है अथवा कक्ष समय-समय पर परिसर के स्वामी की सुविधानुसार परिवर्तनीय है तो ऐसी स्थिति में पट्टा का सृजन हुआ नहीं माना जाएगा। परन्तु यदि परिसर स्पष्टतः अभिनिश्चित है, तो परिसर के उपभोग पर लगाया गया प्रतिबन्ध कितना हो क्लिष्ट क्यों न हो, पट्टा के सृजन को रोक नहीं सकेगा पट्टा सृजित हुआ माना जाएगा।

भूमि अथवा जमीन सबसे महत्वपूर्ण वस्तु है जिसके सम्बन्ध में पट्टा का सृजन होता है। भूमि के सम्बन्ध में यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि भूमि को ऊपरी सतह के साथ-साथ सतह के नीचे को विभिन्न पर्तों का भी पट्टा किया जा सकेगा जैसे खनिजों एवं खदानों के सम्बन्ध में पट्टा। भूमि से सम्बन्धित विवेचना में 'भूबद्ध' वस्तुएं भी सम्मिलित होती हैं।

'भूबद्ध' वस्तुओं से अभिप्रेत है-

(क) भूमि में मूलित, जैसे पेड़ एवं झाड़ियाँ

(ख) भूमि में निविष्ट जैसे भित्तियों या निर्माण

(ग) ऐसी निविष्ट वस्तु से इसलिए बद्ध कि जिससे वह बद्ध है, उसका स्थायी लाभप्रद उपयोग किया जा सके।

भवन या उसका कोई भाग भी पट्टा को विषयवस्तु है। खदान का पट्टा-खदानों का पट्टा यद्यपि खान एवं खनिज (विनियमन एवं विकास) अधिनियम, 1957 के द्वारा विनियमित होता है और इस अधिनियम के अन्तर्गत 'पट्टा' की परिभाषा संकुचित एवं तकनीकी अर्थ में उस प्रकार नहीं प्रतिपादित की गयी है जिस प्रकार से 'पट्टा' की परिभाषा सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम, 1882 की धारा 105 में दी गयी है।

किन्तु खदानों के सम्बन्ध में होने वाली कोई भी व्यवस्था या समझौता भारत में 'पट्टा' ही माना जाता है। भूमि में खनन संक्रिया को जारी रखने का अधिकार धारा 105 सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम के अर्थ के अन्तर्गत स्थावर सम्पत्ति के उपभोग का एक अधिकार है।

यह अधिकार तब और पुख्ता या मजबूत हो जाता है जब इस अधिकार के सम्बन्ध में एक निश्चित कालावधि के लिए अनन्य अधिकार प्राप्त हो जाए। सम्पत्ति के उपभोग का अधिकार से अभिप्राय है कि सम्पत्ति का जिस रूप में उपभोग किया जा सकता हो, उस रूप में सम्पत्ति का उपभोग करने का अधिकार अतः खान या खदान का पट्टा सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 105 के अन्तर्गत पट्टा माना जाएगा।

महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि एक बार में हो सम्पूर्ण खनिज क्षेत्र का कब्जा नहीं प्राप्त होता है। इस सम्बन्ध में कब्जा तब माना जाता है जब खनन संक्रिया वस्तुतः सम्पादित की जा रही हो। यदि भूमि की सतह के अन्दर विद्यमान खनिजों तक पहुँच न होने के फलस्वरूप खनिजों का निकाला जाना सम्भव न हो पा रहा।

हो तो इस आधार पर सम्पूर्ण खनिज क्षेत्र का कब्जा प्राप्त करना सम्भव नहीं होगा। भौतिक कहा केवल खनन संक्रिया द्वारा ही प्राप्त किया जाता है। जब तक यह प्रक्रिया पूर्ण नहीं होती है, भौतिक धारणाधिकार आंशिक ही रहेगा।

खान एवं खनिज (विनियमन एवं विकास) अधिनियम, 1957 की धारा 9 अन्य बातों के साथ साथ यह भी उपबन्धित करती है कि खान का पट्टा धारक रायल्टी का भुगतान कर खनिजों को हटाने एवं उसका उपभोग करने के लिए प्राधिकृत है। इससे यह अभिप्रेत है कि पट्टाग्रहीता प्रतिफल करके भूमि को विनष्ट कर खनिजों का उपभोग कर सकेगा।

धारा 105 के अर्थ के अन्तर्गत यह अचल सम्पत्ति के उपभोग का अधिकार है विशेष कर तब जब कि पट्टाग्रहीता को धारणाधिकार एवं कब्जा एक विशिष्ट कालावधि के लिए दिया गया है।

3. अन्तरण-

पट्टा का सम्व्यवहार एक ऐसा संव्यवहार है जिसमें अन्तरण आंशिक होता है, आत्यंतिक नहीं। दूसरे शब्दों में सम्पत्ति पर अन्तरक एवं अन्तरिती दोनों का हो अधिकार होता है। दोनों में फर्क यह होता है कि सम्पत्ति का भौतिक कब्जा अन्तरितों के पास होता है जबकि स्वामित्वाधिकार अन्तरक के पास ही रहता है।

सम्पत्ति का उपभोग, पट्टा की अवधि के दौरान अन्तरिती या पट्टाग्रहीता करता है जबकि अन्तरक अथवा पट्टाकर्ता तद् कालावधि में पट्टा के उपयोग के अधिकार से वंचित रहता है। इस प्रकार के संव्यवहार के लिए इंग्लिश विधि में डिमाइस' शब्द का प्रयोग किया जाता है, जिसका अभिप्राय होता है आंशिक अन्तरण विशेषकर पट्टा द्वारा किया गया अन्तरण।

भारत में 'डिमाइस' शब्द का प्रयोग सम्पति अन्तरण अधिनियम में नहीं किया गया था, फिर भी अन्तरणकर्ताओं द्वारा इसका प्रयोग पट्टा के निमित्त ही किया जाता है। 'डिमाइस' शब्द लॅटिन भाषा के 'डेमिट्टो' शब्द से बना है जिसका अभिप्राय है कोई भी अन्तरण जिसमें सम्पत्ति से सम्बन्धित आंशिक अधिकार एक दूसरे व्यक्ति को प्रदान किया गया हो। किन्तु कालान्तर में इस शब्द का प्रयोग पट्टा तक ही सीमित रह गया।

पट्टा की स्थिति सुस्पष्ट करते हुए कहा गया है- बैरमजी भाय (प्रा०) लि० बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के वाद में अभिप्रेक्षित किया था कि :-

एक पट्टा अभिकल्पित करता है एक 'डिमाइस' की अथवा एक भूमि के उपभोग का अधिकार एक कालावधि के लिए या शाश्वतकाल के लिए किसी कीमत के, जो दे दी गयी हो या जिसे देने का वचन दिया गया हो अथवा धन या फसल के अंश या सेवा या किसी अन्य मूल्यवान वस्तु के, जो कालावधीय रूप से या विनिर्दिष्ट अवसरों पर अन्तरितों द्वारा अन्तरक को देय हो।'

यदि संव्यवहार में स्वामित्व का अन्तरण होता है चाहे प्रतिबन्ध के साथ अथवा बिना प्रतिबन्ध के तो, संव्यवहार, पट्टा का संव्यवहार नहीं होगा। धारा 105 में प्रयुक्त पदावलि सम्पत्ति का उपभोग करने के अधिकार का ऐसा अन्तरण" यह दर्शित करती है कि स्वामित्व के समस्त अधिकारों का पट्टे के संव्यवहार में अन्तरण नहीं होता है, यदि धारा 105 में प्रयुक्त पदावलि को धारा 54 में प्रयुक्त पदावलि से तुलना की जाए तो यह स्थिति और भी सुस्पष्ट हो जाती है। धारा 54 में प्रयुक्त पदावति "कीमत के बदले में स्वामित्व का अन्तरण" स्पष्टतः स्वामित्व के अन्तरण की प्रकल्पना करती है।

गिरधारी सिंह बनाम मेघलाल पाण्डेय के वाद में लार्ड शा ने अभिप्रेक्षित किया था कि-

"पट्टा का आवश्यक गुण है कि इसकी विषयवस्तु एक होती है जिसका उपभोग एवं धारणाधिकार एक व्यक्ति के पास होता है जबकि उसका स्वत्व (कार्पस) दूसरे के पास होता है तथा अपनी प्रकृति एवं उपभोग के कारण वह अदृश्य नहीं होता है।"

नाई बाबू बनाम लाला राम नारायण के वाद में लैण्ड लार्ड ने टेनेन्ट की बेदखली हेतु वाद संस्थित किया। वाद का अन्त एक समझौते के रूप में हुआ जिसमें टेनेन्ट सम्पत्तिमुक्त करने के लिए सहमत हो गया, पर दोनों के बीच यह सहमति भी बनी कि टेनेण्ट एक भाग में आने वाले पांच वर्षों तक निवास कर सकेगा।

पाँच वर्ष की अवधि के समापन पर लैण्ड लार्ड ने उक्त हिस्से का कब्जा प्राप्त करने हेतु विधिक कार्यवाही प्रारम्भ की जिसका विरोध टेनेन्ट ने किया। विवादित बिन्दु यह था कि क्या टेनेन्ट उक्त भाग का पट्टादार है।

समस्त परिस्थितियों का अवलोकन करने के पश्चात् न्यायालय ने निर्णय दिया कि इस प्रकरण में किसी अंश के सम्बन्ध में पट्टा सृजित करने का कोई आशय नहीं था। अतः डिक्री के पंजीकरण का कोई प्रश्न नहीं है। पट्टाग्रहीता समझौते के अन्तर्गत सम्पत्ति का कब्जा सौंपने के दायित्वाधीन है।

पट्टा एक लोकलक्षी अधिकार का सृजन करता है। पट्टाग्रहीता का यह अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (च) के अर्थ के अन्तर्गत सम्पत्ति का अधिकार है। सूचना के के बावजूद भी यह अधिकार सम्पूर्ण विश्व के विरुद्ध एक महत्वपूर्ण अच्छा अधिकार है तथा पट्टाकर्ता के पाश्चिक अन्तरण के बाद भी यह प्रभावित नहीं होता है।

जो सम्पत्ति पट्टाग्रहीता को अन्तरित की जाती है वह 'लीजहोल्ट' 'पट्टा सम्पत्ति' कहलाती है तथा यह पट्टाकर्ता में अवशिष्ट अधिकार, 'उत्तरभोग' कहलाता है। यदि पट्टा का सृजन शाश्वतता के लिये है तो भी 'उत्तरभोग' का अधिकार पट्टाकर्ता में रहता है।

केलीदास अहोरी बनाम मनमोहिनी दास के वाद में सर लारेंस जेनकिन्स ने कहा कि "एक व्यक्ति जो भूमि का स्वामी है शाश्वतता के लिए भूमि का पट्टा प्रदान करता है। वह अपने सम्पत्ति हितों में से एक अधीनस्थ हित पृथक् करता है और अपने हितों का सर्वनाश नहीं करता है।

यह निष्कर्ष निकाला जाता है "पट्टा" शब्द के प्रयोग के कारण जिसमें अन्तर्निहित होता है कि पट्टाकर्ता में अभी भी एक हित अवशिष्ट है। पट्टा से पूर्व स्वामी को अधिकार था सम्पति (भूमि) के कब्जे के उपभोग का तथा पट्टा द्वारा वह पट्टा की अवधि के दौरान अपने आपको इस अधिकार के उपभोग से वंचित कर लेता है।

पर पट्टा के अवसान से वह अवरोध समाप्त हो जाता है और तब कुछ भी ऐसा नहीं रहता है जो उसे उसके उपभोग के अधिकार से वंचित कर सके जिससे वह पट्टा के कारण वंचित हुआ था।"

पट्टा जनित सम्पत्ति में पट्टाकर्ता एवं पट्टाग्रहीता दोनों का हो हित उत्तराधिकार में प्राप्त होने वाला हित है और उनका हित उनको मृत्यु के पश्चात् उनके वारिसों में, निष्पादकों में एवं उत्तरदान ग्राहियों में निहित हो जाता है।

यदि पट्टा जनित हित सरकार में निहित हो जाता है, तो न तो मूल पट्टाकर्ता और न ही उसके उत्तराधिकारी अन्तरिती सहित, यदि कोई हो। सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त करने हेतु वाद संस्थित कर सकेगा और यदि बाद संस्थित करता है तो वह पोषणीय नहीं होगा।

कोई व्यक्ति को किसी लीजहोल्ड में अंश प्राप्त करता है समनुदेशन द्वारा या उत्तराधिकार द्वारा वह सम्पूर्ण सम्पत्ति में सह-टेनेन्ट बन जाएगा और जहाँ तक उसके एवं पट्टाकर्ता के बीच का सम्बन्ध है, वह एक पट्टाग्रहीता ही होगा, वह पट्टाकर्ता के सापेक्ष, पृथक् हित धारण नहीं कर सकेगा। प्रत्येक पट्टाग्रहीता पट्टाकर्ता के प्रति सम्पूर्ण मूल्य के लिए उत्तरदायी है तथा समस्त प्रसंविदाओं के लिए जो भूमि से सम्बद्ध है।

'डिमाइण्ड प्रेमिसेस' पदावलि क्या एकान्तिक या अनन्य कब्जा का प्रतीक है—

संव्यवहार के पक्षकारों के बीच पट्टाकर्ता एवं पट्टाग्रहीता का सम्बन्ध स्थापित करने के लिए एकान्तिक कब्जा एकमात्र परीक्षण नहीं है। यह बिन्दु उच्चतम न्यायालय ने डेल्टा इण्टर नेशनल लि० बनाम श्याम सुन्दर गनेरी वाला' के वाद में सुस्पष्ट कर दिया है। फिर भी पट्टा के निर्धारण में एकान्तिक कब्जा का महत्वपूर्ण स्थान है। इस सन्दर्भ में लार्ड डेन्माण्ट ने निम्नलिखित अभिप्रेक्षण किया है-

"पद 'पट्टा', मेरे अनुसार अनन्य धारणाधिकार स्थापित करता है। शब्द 'डिमाइस' प्रथम दृष्टया अकेले ही पट्टा की स्थापना करने के लिए पर्याप्त है। मैं उस दूरी तक नहीं जाऊँगा यह कहने के लिए कि जहाँ 'डिमाइस' शब्द का प्रयोग पट्टा में या करार में किया गया है, इसके ऐसा प्रयोग से उत्पन्न उपधारणा को विस्थापित करने के लिए कोई साक्ष्य स्वीकार्य नहीं होगा परन्तु यह शब्द, प्रथम दृष्टया आत्यन्तिक कब्जा स्थापित करेगा।"

उपरोक्त अभिप्रेक्षण से स्पष्ट है कि यदि पट्टा विलेख या पट्टा हेतु करार विलेख में "डिमाइज्ड प्रेमिसेस" पद का प्रयोग हुआ है तो यह उपधारणा की जा सकेगी कि पट्टाग्रहीता को आत्यन्तिक कब्जा प्रदान किया गया है। पर यह उपधारणा विखण्डनीय है और विखण्डन का भार उस व्यक्ति पर होता है जो इस विधिक स्थिति का खण्डन करता है।

ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि पट्टाकर्ता एवं पट्टाग्रहीता का सम्बन्ध संविदा से उत्पन्न होता है इसमें अन्तरण भी अन्तर्निहित है। इसी 'अन्तरण' को दर्शाने के लिए 'डिमाइस' शब्द का प्रयोग किया जाता है। पर दस्तावेज में इस शब्द का या किसी अन्य शब्द का प्रयोग आवश्यक नहीं है, परन्तु यह आवश्यक है कि विलेख से यह सुस्पष्ट हो कि पक्षकारों में से एक अपने आप को कब्जा से वंचित करता है तथा दूसरा एक निर्धारित समय के लिए कब्जा प्राप्त करता है तो तुरन्त या भविष्य में, ऐसी स्थिति में संव्यवहार पट्टा होगा।

ऐसा तब भी होगा चाहे संव्यवहार साधारण रूप में हो चाहे प्रसंविदा के रूप में या करार के रूप में या पट्टा पर देने के लिए प्रस्ताव के रूप में या लेने के लिए प्रस्ताव के रूप में जो पत्र व्यवहार से प्रकट हो।"

उपरोक्त के आधार पर यह कहा जा सकता है कि "डिमाइन्ड प्रेमिसेस" पद प्रयुक्त किए जाने से यह उपधारणा बनती है कि अनन्य कब्जा प्रदान किया गया है अतः पट्टा का सृजन हुआ है, यह उपधारणा एक कमजोर उपधारणा है तथा तत्प्रतिकूल साक्ष्य प्रस्तुत कर इसका विखण्डन किया जा सकेगा।

साक्ष्य का निर्धारण दस्तावेज में उल्लिखित तथ्यों एवं तत्समय विद्यमान परिस्थितियों से होगा, साथ ही साथ कथित पद को विरचना उस सन्दर्भ में की जाएगी जिसमें इसका प्रयोग किया गया था।

4. कालावधि-

कालावधि पट्टे का एक महत्वपूर्ण घटक है। शाश्वतता के लिए पट्टा का सृजन एक निश्चित कालावधि हेतु किया गया। यह कालावधि प्रत्यक्षतः या परोक्षतः निर्धारित होगी। पट्टा के प्रारम्भ होने की तिथि साधारणतया पट्टाकर्ता एवं पट्टाग्रहीता द्वारा आपसी करार के माध्यम से निर्धारित की जाती है, पर यदि किसी कारणवश या उदासीनता के फलस्वरूप तिथि का निर्धारण नहीं हुआ है जिससे पट्टा का प्रारम्भ हुआ माना जा सके, तो इस अधिनियम की धारा 110 के अन्तर्गत पट्टा निष्पादन की तिथि से प्रारम्भ हुआ माना जाएगा।

परन्तु यह नियम निष्पाद्य मामलों में लागू नहीं होगा। जहाँ तक निष्पाद्य मामलों का प्रश्न है मार्शल बनाम बेरीज के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि ऐसा पट्टा अनिश्चितता के कारण शून्य होगा यदि पट्टा के प्रारम्भ होने की तिथि का उल्लेख पट्टा विलेख में नहीं किया गया है और न ही इसके निर्धारण के लिए कोई सामग्री है।

यदि पट्टा के सृजन हेतु हुए करार के अध्यधीन पट्टाग्रहीता सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त कर लेता है, तो पट्टे का प्रारम्भ उस तिथि से हुआ माना जाएगा जिस तिथि को सम्पत्ति का कब्जा लिया गया था।

पट्टा वर्तमान के प्रभाव से प्रभावी हो सकेगा या भविष्य के प्रभाव से या किसी ऐसी घटना के घटित होने पर जो निश्चयतः घटित हो। यदि पट्टा भविष्य की किसी तिथि से प्रभावी होने वाला है, तो यह पर्याप्त होगा यदि वह पर्याप्त रूप से अभिनिश्चित किये जाने योग्य हो जब पट्टा प्रभावी हो।

यदि पट्टा में कोई शर्त उल्लिखित है जिसके अन्तर्गत पट्टे के नवीकरण का विकल्प रखा गया है तो इससे पट्टा की कालावधि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा चाहे वह पट्टाकर्ता या पट्टाग्रहीता के विकल्प पर नवीकृत होने वाली हो। ऐसा इसलिए है क्योंकि जब तक विकल्प का प्रयोग नहीं किया जाता है तब तक पट्टा की अवधि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम के अन्तर्गत पट्टा किसी निश्चित कालावधि के लिए या शाश्वतता के लिए सृजित किया जा सकता है। पर कठिनाई तब उत्पन्न होती है जब पट्टा विलेख में कालावधि का उल्लेख न किया गया हो। ऐसे पट्टे को वैध संव्यवहार की संज्ञा दी जाए अथवा नहीं, यह एक कठिन प्रश्न है।

सेवक राम बनाम मेरठ म्यूनिसिपल बोर्ड के वाद में यह अभिनिर्णीत हुआ था कि ऐसा संव्यवहार पट्टा के रूप में शून्य होगा। परन्तु यह भी मत व्यक्त किया गया है कि ऐसा संव्यवहार यथेच्छ किरायादारी का सृजन करेगा जो किराया के भुगतान के पश्चात् वर्षानुवर्षी या मासानुमासी पट्टा में परिवर्तित हो जाएगा।

एक बेमियादी काबुलियत अर्थात् वार्षिक किराया के लिए कालावधि निर्धारित किये बिना पट्टा का करार के मामले में प्रिवी कौंसिल ने अभिनिर्णीत किया है कि बेमियादी काबुलियत या तो शाश्वत पट्टा या वर्षानुवर्षी पट्टा के रूप में प्रभावी होगी और इन दोनों के बीच में इसकी कोई स्थिति नहीं बनती है।

पट्टा के सृजन के लिए, यह आवश्यक नहीं है कि पट्टा सावधि हो। यह पर्याप्त होगा यदि पट्टा निश्चित है।

यदि किसी सम्पत्ति (दुकान) का पट्टा एक पूर्व सैनिक को पाँच वर्ष की अवधि के लिए एक सरकारी नीति के तहत प्रदान किया गया है तो ऐसी सम्पत्ति के पट्टे का नवीकरण नहीं किया जा सकेगा।

पाँच वर्ष की अवधि के समापन के उपरान्त पट्टाग्रहीता का सम्पति में कोई हित नहीं रहता है और वह नवीकरण हेतु दावा प्रस्तुत नहीं कर सकता है। ऐसे व्यक्ति नवीन पट्टा प्राप्त करने हेतु, यदि चाहें, तो आवेदन कर सकेंगे

5. प्रतिफल पट्टा-

यह एक संव्यवहार है जिसे वैध होने के लिए प्रतिफल की आवश्यकता होती है। प्रतिफल या तो प्रीमियम हो सकता है या रेन्ट या दोनों प्रीमियम तथा रेण्ट एक ही वस्तु नहीं है। प्रीमियम वस्तु के हस्तान्तरण का मूल्य या कीमत होता है जिसका भुगतान या तो कर दिया गया हो या करने का वचन दिया गया हो। इसके विपरीत रेन्ट पट्टाग्रहीता द्वारा किया गया कोई भुगतान है जो पट्टा के प्रतिफल का भाग है। प्रीमियम एवं रेन्ट के विभेद को उच्चतम न्यायालय के कमिश्नर ऑफ इन्कम टैक्स बनाम पानवारी टी० कं० के वाद में सुस्पष्ट किया है।

उच्चतम न्यायालय ने सुस्पष्ट किया है कि :-

"जब पट्टाकर्ता का हित मूल्य के बदले अन्तरित किया जाता है तो संदत्त कीमत या मूल्य को प्रीमियम या सलामी कहा जाता है। जबकि पट्टा के अन्तर्गत लाभ के निरन्तर उपभोग के लिए रकम का नियतकालिक भुगतान रेन्ट की प्रकृति का होगा। प्रथम भुगतान पूँजीगत आय है जबकि पाश्चिक भुगतान एक राजस्व प्राप्ति है।"

न्यायालय ने यह भी इंगित किया है कि प्रीमियम एवं अग्रिम रेन्ट में विभेद किया जाना चाहिए। प्रीमियम वह रकम है जो पट्टा प्राप्त करने के लिए मूल्य के रूप में संदत्त की जाती है कि रेन्ट उन समस्त भुगतानों को कहा जाता है जो भूमि या भवन के धारणाधिकार एवं उपभोग के अधिकार के लिए अदा किया जाता है।

धारा 105 के अन्तर्गत रेन्ट का भुगतान रकम या धन के अतिरिक्त फसलों के अंश या सेवा या किसी अन्य मूल्यवान वस्तु के, जो कालावधीय रूप से या विनिर्दिष्ट अवसरों पर अन्तरिती द्वारा अन्तरक को दी जाती है या दी जाती है। संव्यवहार की वैधता के लिए यह आवश्यक है कि रेन्ट निश्चित हो पर उसका वास्तविक आँकड़ा या मात्रा निश्चित हो यह आवश्यक नहीं है।

यदि उसे अभिनिश्चित करने में कोई अनिश्चितता नहीं है। यदि किसी पट्टा विलेख में यह उल्लिखित है तथा पक्षकार उस पर सहमत हैं कि पट्टा के नवीकरण के समय रेन्ट अभिनिश्चित किया जाए तत्समय प्रचलित परिसर के बाजार मूल्य को ध्यान में रखकर तो यह संव्यवहार अनिश्चितता के आधार पर शून्य नहीं होगा।

संव्यवहार में यदि हासित रेन्ट का भुगतान किया जाता है और उसे स्वीकार कर लिया जाता है तो इससे निश्चयतः यह निष्कर्ष नहीं निकाला जाएगा कि नये पट्टे का सृजन हुआ है। पर यदि रेन्ट की मात्रा में परिवर्तन के साथ-साथ पट्टा की अन्य आवश्यक शर्तों में भी परिवर्तन हुआ है, तो नवीन पट्टे का सृजन हुआ माना जाएगा।

रेन्ट का एक महत्वपूर्ण गुण है विनिर्दिष्ट अवसरों पर इसका आवर्ती होना। परन्तु पट्टाग्रहीता द्वारा किया गया व्यक्तिगत करार कि यह एक रकम वार्षिक रूप में अदा करेगा रेन्ट नहीं होगा पट्टाग्रहीता द्वारा किया गया म्यूनिसिपल करों का भुगतान पट्टा का भाग हो सकेगा।

यदि पट्टा करार के अनुसार रेन्ट के रूप में धन को एक निश्चित मात्रा देय थी और चूक होने की दशा में एक निश्चित रकम इसके मूल्य के रूप में देय थी, जब चूक हुई तो न्यायालय ने अभिनित किया कि लैण्ड लार्ड केवल निर्धारित रकम पाने का अधिकारी है न कि बाजार मूल्य पर फसल की कीमत।

एक सेवक या नौकर जो सेवा प्रदान करने के बदले में रेन्ट मुक्त भूमि धारित करता है, पट्टाग्रहीता होगा तथा उसके द्वारा प्रदत्त सेवा रेन्ट समझा जाएगा। इसी प्रकार यदि यह समझौता हुआ हो कि रेन्ट का भुगतान करने के बजाय प्रतिवादी, वादी को अपनी सेवायें पारिवारिक डॉक्टर के रूप में प्रदान करेगा, यह करार पट्टा माना जाएगा।

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