Hindu Marriage Act में पत्नी को प्राप्त Divorce का विशेषाधिकार

Update: 2025-07-24 04:28 GMT

इस एक्ट की धारा धारा 13 की उपधारा (2) के अनुसार पत्नी को तलाक के कुछ विशेषाधिकार प्राप्त हैं उन विशेषाधिकारों में पति द्वारा दूसरी शादी करने और बलात्कार पशुगमन, मेंटेनेंस की डिक्री मिलने इत्यादि के आधार पर भी तलाक मांगने का अधिकार है।

पति द्वारा एक से अधिक पत्नियां रखना

वर्तमान हिंदू विवाह अधिनियम एक पत्नी के सिद्धांत पर अधिनियमित किया गया है। यह अधिनियम बहुपत्नी प्रथा का समर्थन नहीं करता है। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13 की उपधारा 2 के खंड 1 के अंतर्गत कोई भी हिंदू पत्नी इस अधिनियम के अंतर्गत अनुष्ठापित किए गए किसी मान्य विवाह में अपने पति द्वारा एक से अधिक पत्नियां रखने पर तलाक की अर्जी जिला कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत कर सकती है।

इस प्रावधान की शर्त यह है कि जिस समय पत्नी तलाक की अर्जी प्रस्तुत कर रही है उस समय पति द्वारा की गई दूसरी पत्नी जीवित होना चाहिए।

एक पत्नी के रहते हुए यदि पति दूसरी महिला से भी विवाह रचा लेता है तो ऐसी परिस्थिति में इस विवाह अधिनियम के अंतर्गत मान्य विवाह के अनुसार पत्नी तलाक की अर्जी प्रस्तुत कर सकती है।

वैंकेयाटम्मा बनाम पटेल वेंकटस्वामी एआईआर 1963 मैसूर 118 के प्रकरण में यह कहा गया है कि कभी-कभी पति के लिए ऐसी परिस्थिति दुखदायक हो सकती है जिसमें दोनों पत्नियों का साथ खोना होता है। एक पत्नी तो मृत्यु को प्राप्त हो गई और दूसरी को विवाह विच्छेद का उपचार मिल गया। कोर्ट इस प्रावधान को लागू करने के लिए बाध्य है क्योंकि इसकी भाषा पूर्णता स्पष्ट है, जहां पति ने अधिनियम के लागू होने के पश्चात विवाह कर लिया हो वहां प्रथम पत्नी इस प्रावधान के अधीन विवाह विच्छेद के लिए आवेदन कर सकती है। दूसरी पत्नी को यह अधिकार प्राप्त नहीं है क्योंकि दूसरा विवाह हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 के अनुसार मान्य हिंदू विवाह नहीं होता है।

लक्ष्मी बनाम अलगिरी एआईआर 1975 मद्रास 211 के प्रकरण में पति की दो पत्नियां अधिनियम के पारित होने के 6 वर्ष पूर्व से साथ साथ रह रही थी। वह दोनों की ही कोई संतान नहीं थी। यह निर्धारित किया गया कि दूसरी पत्नी विवाह विच्छेद की याचिका प्रस्तुत नहीं कर सकती। याचिका प्रस्तुत करने के पश्चात और विचारण के दौरान दूसरी पत्नी से विवाह विच्छेद भी हो जाता है प्रथम पत्नी की विवाह विच्छेद की याचिका को प्रभावित नहीं करेगी।

राम सिंह बनाम सुशीलाबाई एआईआर 1970 मैसूर 20 में पति ने दूसरी महिला के साथ ताली और कलावा बांधा था। यह एक शास्त्रीय पुरोहित की उपस्थिति में किया गया था। कोर्ट ने यह अभिमत प्रकट किया कि केवल हाथ में ताली बांधने से भी विवाह सिद्ध नहीं हो जाता है क्योंकि शास्त्रीय पुरोहित संस्कृत नहीं जानता था अतः वह सप्तपदी नहीं करा सकता था। इन आधारों पर कोर्ट ने अभिमत प्रकट किया कि अभियुक्त पति ने विपक्षी पत्नी के रहते हुए दूसरा विवाह नहीं किया वह प्रथम पत्नी ही उसकी सभी प्रयोजनों के लिए पत्नी थी। हालांकि बाद के निर्णय में यह आलोच्य माना गया क्योंकि इसके पहले के निर्णय पक्षकारों के आशय से संबंधित थे तथा इस निर्णय में पक्षकारों के आशय की अवहेलना की गई।

बलात्कार, गुदामैथुन और पशुगमन

बलात्कार, गुदामैथुन और पशुगमन तीनों गंदी मानसिकता से जुड़े हुए अपराध है तथा विभत्स स्वरूप के है। बलात्कार का अपराध दिनों दिन बढ़ रहा है बाकी के दो कारण गुदामैथुन और पशुगमन अर्थात पशुओं के साथ सेक्स करना। यह समाज के बहुत घृणित और गंदे अपराध है। हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत हिंदू विवाह एक पवित्र संस्कार है तथा पत्नी अर्धांगिनी होती है।

विधि किसी भी पत्नी को किसी इस प्रकार से घृणित कार्य करने वाले व्यक्ति के साथ साहचर्य का पालन करने के लिए बाधित नहीं कर सकती। इस विचार को ध्यान में रखते हुए हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13 की उपधारा (2) के खंड 2 के अनुसार जानवरों के साथ सेक्स करने वाले व्यक्ति और गुदा में सेक्स करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध पत्नी को जिला कोर्ट के समक्ष तलाक की अर्जी प्रस्तुत किए जाने का अधिकार दिया गया है।

अप्राकृतिक मैथुन को हिंदू विवाह के अधीन मान्यता नहीं दी गई है। एक प्रकरण में पत्नी का यह कथन था कि पति उसके साथ अप्राकृतिक मैथुन करता है। पति ने अपनी सफाई में अप्राकृतिक मैथुन को करना स्वीकार किया लेकिन इस प्रकार के मैथुन को पत्नी की सहमति से करना बताया। सहमति स्वैच्छिक प्रमाणित नहीं की जा सकीं यह अभिनिर्धारित किया गया कि पति अप्राकृतिक मैथुन का दोषी है। अतः पत्नी इस आधार पर विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त करने की अधिकारी है।

भरण पोषण की डिक्री पारित होने के बाद सहवास नहीं होना

हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत विवाह का यह उद्देश्य है कि विवाह के उपरांत विवाह के पक्षकार एक दूसरे को साहचर्य उपलब्ध करें तथा साथ साथ रहकर परिवार रूपी गाड़ी को चलाएं परंतु कभी-कभी पक्षकारों के आपसी मतभेद के परिणामस्वरूप यह स्थिति उत्पन्न होती है कि विवाह के पक्षकार एक दूसरे से अलग रहने लग जाते हैं। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन पत्नी को अपने पति से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार है तथा कोर्ट उसे अलग निवास के लिए भी डिक्री पारित कर देता है।

यदि किसी कोर्ट द्वारा किसी पत्नी के संबंध में भरण पोषण की ऐसी डिक्री पारीत की गई है जिसमें वह अलग निवास भी कर रही है ऐसी डिक्री पारित होने के पश्चात यदि 1 वर्ष तक विवाह के पक्षकारों पति और पत्नी में कोई सहवास नहीं हुआ है तो पत्नी जिला कोर्ट के समक्ष तलाक की अर्जी प्रस्तुत कर सकती है। पत्नी के अलग रहने के तथ्य के बावजूद भी कोर्ट द्वारा भरण पोषण की राशि निर्धारित की जाती है।

एक वर्ष तक पक्षकारों में सहवास का प्रारंभ नहीं होना यह तय करता है कि पक्षकार इस बंधन से स्वतंत्र होना चाहते हैं, फिर भी इस आधार पर तलाक की अर्जी प्रस्तुत करने का आधार पत्नी को ही दिया है।

भरण पोषण की डिक्री पत्नी के पक्ष में पारित होने की दिनांक से 1 वर्ष या उससे ऊपर की कालावधि में पक्षकारों के मध्य सहवास का नहीं होना चाहिए।

इस अवधि में पति पत्नी के बीच सहवास नहीं होता है तो पत्नी को इस आधार पर वर्तमान उपखंड के द्वारा तलाक का अधिकार दिया गया।

इस उपखंड के अधीन पत्नी द्वारा तलाक की अर्जी प्रस्तुत की जाती है तथा उससे तलाक होने पर भी पत्नी का भरण पोषण बंद नहीं किया जाता है। भरण पोषण तो ज्यों का त्यों चलता रहता है।

बाल विवाह के आधार पर

यदि किसी स्त्री का विवाह 15 वर्ष की उम्र से पूर्व कर दिया गया है तो ऐसी स्त्री 18 वर्ष तक की आयु प्राप्त करने के पूर्व कोर्ट के समक्ष तलाक की अर्जी प्रस्तुत कर सकती है। किसी हिंदू स्त्री को इस अधिनियम के अंतर्गत होने वाले विवाह में बाल विवाह से संरक्षण दिया गया है। ऐसा विवाह आयोजित करना धारा 5 (3)के प्रावधानों का उल्लंघन होने से इस अधिनियम की धारा 18 के द्वारा दंडनीय अपराध है।

पत्नी को यह अधिकार है कि वह चाहे तो 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने पर विवाह को यथावत रखें। यह धारा 13(2) (4) के प्रावधानों के अधीन याचिका प्रस्तुत की जाती है। सावित्री बनाम सीताराम एआईआर 1986 एमपी 2018 में यह कहा गया है कि विवाह के समय की आयु स्कूल के सर्टिफिकेट के अभाव में अन्य प्रकार से भी प्रमाणित की जा सकती है।

हालांकि बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम 1978 के बाद हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अधीन इस खंड का अधिक विशेष महत्व नहीं रह गया है क्योंकि विवाह की एक आयु निर्धारित की गई। विवाह के समय वर की आयु 21 वर्ष और वधू की आयु 18 वर्ष कर दी गई है। 

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