जानिए परिशांति बनाए रखने के लिए निष्पादित किए जाने वाले बंधपत्र की प्रक्रिया
जब कभी कार्यपालक मजिस्ट्रेट द्वारा परिशांति बनाए रखने के लिए बंधपत्र लिए जाते हैं तो ऐसे बंधपत्र लेने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अध्याय 8 में प्रक्रिया भी बताई गई है तथा बंधपत्रो को निष्पादित नहीं करने के कारण होने वाले परिणामों का भी उल्लेख किया गया है।
पूर्व के लेख में इस विषय पर वर्णन किया गया था कि किन लोगों के लिए इस तरह के बंधपत्र निष्पादित किए जाने का आदेश किया जा सकता है तथा इस लेख में बंधपत्र निष्पादित किए जाने की प्रक्रिया का उल्लेख किया जा रहा है।
प्रतिभूति के लिए आदेशित व्यक्ति को समन या वारंट
दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 113 के अंतर्गत ऐसे व्यक्ति के संबंध में उल्लेख किया गया है जो न्यायालय में उपस्थित नहीं है और उससे प्रतिभूति सहित या रहित बंधपत्र निष्पादित किए जाने का आदेश दिया है तो न्यायालय ऐसे व्यक्ति को न्यायालय में उपस्थित होने की अपेक्षा करते हुए समन या जब यदि वह किसी अधिकारी की अभिरक्षा में है तो उस अधिकारी को न्यायालय के समक्ष लाने का निर्देश देते हुए वारंट जारी किया जा सकता है।
मोहनलाल बनाम राज्य 1977 इलाहाबाद के मामले में कहा गया है कि यदि संबंधित व्यक्ति पहले से ही अभिरक्षा में है तो उस अधिकारी जिसकी अभिरक्षा में वह व्यक्ति है, को संबंधित व्यक्ति को न्यायालय में उपस्थित करने के लिए निर्देशित करते हुए वारंट जारी किया जा सकता है। धारा 111 में लिखित आदेश जारी किए बिना ही धारा 113 के अधीन सामान्य वारंट जारी किया जाता है तो यह कार्य इस धारा 113 में वर्णित आज्ञापक उपबंधों का उलंघन होगा।
आशय यह है कि धारा 113 के अंतर्गत सामान्य वारंट जारी किए जाने के लिए धारा 111 के अधीन आदेश जारी किया जाना इसकी पूर्ववर्त शर्त है। जब धारा 111 के अंतर्गत आदेश जारी कर दिया जाता है तो ही संबंधित व्यक्ति को धारा 113 के अंतर्गत समन या वारंट जारी करके न्यायालय में उपस्थित होने की अपेक्षा की जाती है। पहले आदेश जारी करना होगा फिर ही समन या वारंट जारी होगा।
समन और वारंट के साथ आदेश की प्रति
संहिता की धारा 113 के अंतर्गत जो समन या वारंट जारी किया जाता है उसके साथ धारा 111 के अधीन जो भी आदेश दिया जाता है, उसकी प्रति सामान्य वारंट की तामील के निष्पादन करने वाले अधिकारी द्वारा उस व्यक्ति को दी जानी चाहिए जिस पर उस समन का वारंट की तामील होना है या उसे गिरफ्तार करना है।
सुनील बत्रा बनाम पुलिस कमिश्नर दिल्ली एआईआर 1995 दिल्ली के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय यह अभिनिर्धारित किया है कि जब कभी परिशांति से संबंधित मामले में कोई व्यक्ति न्यायालय या मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाए तो उसे कारण बताया जाना आवश्यक है।
व्यक्तिगत हाजिरी से मुक्ति
न्यायालय कार्यपालक मजिस्ट्रेट को यदि पर्याप्त कारण दिखाई दे तो वह अभियुक्त को व्यक्तिगत हाजिरी से अभिमुक्ति दे सकता है। कारण बताओ नोटिस जारी किए जाने के बाद व्यक्ति न्यायालय या मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित होकर प्रतिभूति नहीं दिए जाने के कारणों का उल्लेख करता है इसके लिए उसे हाजिरी से मुक्ति दी जा सकती है तथा उसके लीडर या अधिवक्ता को उपस्थित होने की अनुज्ञा दी जा सकती है।
जांच
जब कभी परिशांति बनाए रखने या सदाचार बनाए रखने के लिए प्रतिभूति पेश करने का आदेश धारा 111 के अंतर्गत पारित किया जाता है तब सहिंता की धारा 116 के अंतर्गत जांच का उल्लेख किया गया है।
यह धारा मजिस्ट्रेट को ऐसी जांच करने की शक्ति प्रदान करती है जो सूचना की सच्चाई के बारे में होती है। कुसुमा देवी बनाम गोविंद सिंह एआईआर 1965 राजस्थान 40 के बाद में न्यायालय ने अभिनिश्चित किया है कि न्यायलय सूचना की जांच के लिए अतिरिक्त साक्ष्य भी ले सकता है।
अर्थात यदि मजिस्ट्रेट चाहे तो ऐसी जांच के दौरान कोई अतिरिक्त साक्ष्य भी ले सकता है जिससे यह तय किया जा सके कि जिस व्यक्ति से प्रतिभूति लेने का आदेश धारा 111 के अंतर्गत पारित किया गया है क्या वह वैधानिक है या अवैध है।
परिशांति बनाए रखने के लिए प्रतिभूति के मामले में धारा 116 अत्यंत महत्वपूर्ण धारा है। यह धारा अभियुक्त को अधिकार प्रदान करती है तथा वह न्यायालय में कुछ ऐसे साक्ष्य प्रस्तुत कर सकता है जिससे वह साबित कर सके कि वह ऐसी कोई प्रतिभूति देने का दायित्व नहीं रखता है तथा धारा 111 के अंतर्गत प्रतिभूति का बंधपत्र निष्पादित किए जाने का जो आदेश उसके विरुद्ध पारित किया गया है वह अवैध है।
धारा 116 उपधारा 6 के अधीन ऐसी जांच 6 माह की अवधि के अंदर पूरी की जाएगी। जांच इस प्रकार पूरी नहीं की जाती है तो कार्यवाही का अवसान हो जाता है।
जांच के बाद प्रतिभूति देने का आदेश
जांच कर लेने से यह साबित हो जाता है कि परिशांति बनाए रखने के लिए एवं सदाचार बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि वह व्यक्ति जिसके बारे में प्रतिभू सहित या रहित बंधपत्र निष्पादित करें तो मजिस्ट्रेट ऐसे व्यक्ति को प्रतिभूति देने का आदेश धारा 117 के अंतर्गत जारी कर देता है।
धारा 111 के अंतर्गत जांच कर लेने के पूर्व जो आदेश जारी किया गया था, उस आदेश से अधिक समय अवधि या अधिक धनराशि का कोई आदेश मजिस्ट्रेट जारी नहीं कर सकता है। मजिस्ट्रेट ऐसा आदेश अवश्य जारी कर सकता है, जो उस अवधि धनराशि से कम हो परंतु उस अवधि और धनराशि से अधिक का आदेश मजिस्ट्रेट द्वारा जारी नहीं किया जाएगा।
दसप्पा बनाम कर्नाटक राज्य के वाद में यह पाया गया कि उपखंड मजिस्ट्रेट ने आरोपी को उसका आरोप पढ़कर नहीं सुनाया था तथा न्यायालय ने निर्धारित किया है कि ऐसे मामले में उपखंड मजिस्ट्रेट का यह कर्तव्य था कि वह संबंधित व्यक्ति के विरुद्ध सूचना से प्राप्त हुई की सत्यता की जांच करता तथा वह सत्य पायी जाने वाली धारा 117 के आदेश पारित करने की कार्यवाही करता।
राजा वालिद हुसैन के मामले में एक महत्वपूर्ण बात कही गई है कि जांच के बाद केवल मजिस्ट्रेट का विवेक ही सब कुछ नहीं होता है, उसने जो अपनी जांच की है उसका विधिक निष्कर्ष निकालकर प्रस्तुत करना होता है।
जांच के बाद उन्मोचन
मजिस्ट्रेट को अपनी जांच के बाद ज्ञात हो जाता है कि ऐसा आदेश जो धारा 111 के अंतर्गत किसी व्यक्ति के लिए जारी किया गया था और परिशांति बनाए रखने के लिए बंधपत्र निष्पादित किए जाने का आदेश दिया गया था। उसकी सूचना सत्य नहीं है तथा अभी वह व्यक्ति अभिरक्षा में है तो धारा 118 के अंतर्गत उस व्यक्ति को अभिरक्षा से छोड़ देगा तथा प्रतिभूति के आदेश से उन्मोचित कर दिया जाता है और ऐसे उन्मोचन के कारणों को मजिस्ट्रेट अपने रिकॉर्ड में लिख देगा।
राज्य बनाम केशव कुरूप एआरआई 1953 के मामले में यह कह गया कि यदि व्यक्ति धारा 116 के अंतर्गत जांच के बाद उन्मोचित कर दिया जाता है, इस प्रश्न का विनिश्चय है कि संबंधित व्यक्ति से प्रतिभूति के लिए बंधपत्र का निष्पादन कराया जाए अथवा नहीं यह मात्र अभिलेख के आधार पर नहीं किया जाएगा अपितु उसका निर्धारण युक्तिसंगत साक्ष्य के आधार पर किया जाएगा।
कारावास में बंद व्यक्ति के प्रतिभूति की अवधि उसके दंड का अवसान हो जाने के तदुपरांत प्रारंभ होगी, जब तक वह निरुद्ध है तब तक ऐसी प्रतिभूति की अवधि प्रारंभ नहीं होगी।
संहिता की धारा 120 के अंतर्गत यदि प्रतिभूति के लिए बंधपत्र निष्पादित करने के उपरांत कोई अपराध कर दिया जाता है जिसके लिए प्रतिभूति दी गयी है तो ऐसा बंधपत्र भंग हो जाता है और प्रतिभूति को जप्त कर लिया जाता है।
अब्दुल अजीज के एक बहुत पुराने मामले में कहा गया है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 323 के अंतर्गत की गयी दोषसिद्धि पर धारा 110 के अधीन निष्पादित बंधपत्र भंग हो जाता है तथा ऐसा बंधपत्र जप्त किया जा सकता है।
प्रतिभूओ को अस्वीकार करना
जब कभी बंधपत्र निष्पादित करने के लिए आदेशित किया जाता है तथा अभियुक्त प्रतिभूओ को प्रस्तुत करता है तो धारा 121 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट प्रतिभू को अनुपयुक्त भी मान सकता है। प्रतिभूओ को अस्वीकार करने के पूर्व मजिस्ट्रेट द्वारा जांच की जाना अपेक्षित है। मजिस्ट्रेट अपने किसी अधीनस्थ की रिपोर्ट के आधार पर भी इस धारा के अधीन कार्यवाही करता है। उल्लेखनीय की प्रतिभू की उपयुक्तता संबंधी जांच एक न्यायिक कार्यवाही है।
प्रतिभूति नहीं देने के परिणाम
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 122 के अंतर्गत इस बात का उल्लेख किया गया है कि जिस व्यक्ति से धारा 106 या धारा 117 के अधीन प्रतिभू मांगा गया है, वह प्रतिभू देने में व्यतिक्रम करता है अर्थात प्रतिभू देने में चूक करता है तो उसे कारावास में निरुद्ध किया जा सकता है। यदि वह पहले से कारावास निरुद्ध है तो उसे तब तक कारावास में रखा जाएगा, जब तक कि प्रतिभूति की अवधि समाप्त न हो जाए। ऐसी अवधि के भीतर उच्च न्यायालय या मजिस्ट्रेट को प्रतिभूति न दे दे जिसने प्रतिभू संबंधी आदेश दिया है।
परंतु ऐसा कोई कारावास का आदेश दिए जाने के लिए कुछ नियम बताए गए हैं, जो निम्न हैं।
1) परिशांति कायम रखने के लिए प्रतिभूति देने में असमर्थ रहने पर साधारण कारावास का दंडादेश ही दिया जा सकता है।
2) यदि धारा 108 के अधीन की गई कार्यवाही में सदाचार के लिए प्रतिभूति देने में व्यतिक्रम हुआ है तो उस दशा में भी साधारण कारावास ही दिया जाएगा।
यदि कार्यवाही धारा 109 एवं धारा 110 के अधीन की गयी है जो कि संदिग्ध व्यक्तियों और अभ्यस्त अपराधियों से प्रतिभूति लेने का अधिकार कार्यपालक मजिस्ट्रेट को देती है और इसका व्यतिक्रम जल्दी होता है तो ऐसे मामले में मजिस्ट्रेट के विवेक अनुसार सश्रम अथवा साधारण कारावास दोनों तरीके का दिया जा सकता है। यह धारा केवल एक ही स्थिति में लागू होगी तब प्रतिभू देने में व्यतिक्रम हुआ हो।
प्रतिभूति नहीं देने के कारण कारावास में निरूद्ध किए गए व्यक्तियों को छोड़ा जाना
धारा 123 के अंतर्गत उच्च न्यायालय सेशन न्यायालय अथवा मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को यह विशेष शक्ति दी गयी है कि उसके विचार से किसी व्यक्ति को आबद्ध रखना आवश्यक नहीं है तो वह ऐसे कारणों को अभिलिखित करके उस व्यक्ति के बंधपत्र के आदेश को निरस्त कर सकता है और उसको प्रतिभूतियों के दायित्व से मुक्त कर सकता है।