भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 520 से 522 : हाईकोर्ट द्वारा किसी अपराध की सुनवाई की प्रक्रिया

Update: 2025-06-14 17:21 GMT

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita, 2023) के अंतिम अध्याय अर्थात अध्याय 39 में विविध (Miscellaneous) प्रावधान शामिल किए गए हैं।

ये प्रावधान मुख्य रूप से तीन विशिष्ट क्षेत्रों को संबोधित करते हैं:

1. जब हाईकोर्ट स्वयं किसी अपराध की सुनवाई करता है (धारा 520)

2. जब अपराध सशस्त्र बलों (armed forces) से संबंधित व्यक्ति द्वारा किया गया हो (धारा 521)

3. कानूनी प्रक्रियाओं में प्रयुक्त होने वाले निर्धारित प्रपत्रों (forms) की वैधता और उपयोग (धारा 522)

यह लेख इन तीनों धाराओं का सरल भाषा में व्याख्यात्मक विश्लेषण प्रस्तुत करता है और यह भी स्पष्ट करता है कि इनका व्यवहारिक और विधिक महत्व क्या है।

धारा 520 – हाईकोर्ट द्वारा किसी अपराध की सुनवाई की प्रक्रिया

यह धारा यह स्पष्ट करती है कि यदि हाईकोर्ट (High Court) किसी अपराध की सुनवाई स्वयं करता है — लेकिन धारा 447 के अंतर्गत नहीं, तो वह उसी प्रक्रिया का पालन करेगा जो किसी सेशन न्यायालय (Court of Sessions) द्वारा अपनाई जाती है।

यहाँ यह जानना आवश्यक है कि धारा 447 विशेष रूप से हाईकोर्ट द्वारा आपराधिक मामलों को स्थानांतरित किए जाने से संबंधित है। अगर कोई मामला उस प्रक्रिया के अंतर्गत नहीं आता लेकिन हाईकोर्ट खुद से सुनवाई करता है (जैसे किसी विशेष जनहित याचिका या संवैधानिक महत्व के कारण), तो सुनवाई की प्रक्रिया वही होगी जो एक सामान्य सत्र न्यायालय करता है।

उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि हाईकोर्ट किसी हत्या के मामले को विशेष परिस्थितियों में सीधे सुनता है, तो वह सबूतों को रिकॉर्ड करना, अभियोजन और बचाव पक्ष को समान अवसर देना, गवाहों की जिरह, और अंतिम तर्कों को सुनने जैसे सभी चरणों का उसी प्रकार से पालन करेगा जैसे एक सत्र न्यायालय करता।

इस प्रावधान से यह सुनिश्चित होता है कि हाईकोर्ट की प्रक्रिया भी न्याय की मूल भावना के अनुसार निष्पक्ष और विधिसम्मत हो।

धारा 521 – सशस्त्र बलों (Armed Forces) से संबंधित अभियोजन की विशेष व्यवस्था

यह धारा अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सशस्त्र बलों जैसे सेना (Army), वायुसेना (Air Force), और नौसेना (Navy) से जुड़े अपराधों के न्यायिक क्षेत्र को स्पष्ट करती है।

उपधारा (1): नियम बनाने की शक्ति और न्यायिक अधिकारों की सीमा

यह प्रावधान केंद्र सरकार को यह अधिकार देता है कि वह ऐसे नियम बना सके जो भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और सेना, नौसेना तथा वायुसेना के अलग-अलग अधिनियमों के अनुरूप हों। इन नियमों के अंतर्गत यह तय किया जाएगा कि किसी अपराध में दोषी सशस्त्र बल के सदस्य का मुकदमा सामान्य अदालत में चलेगा या कोर्ट मार्शल (Court-Martial) में।

यहाँ एक महत्वपूर्ण बात यह है कि जब कोई सशस्त्र बल का सदस्य किसी ऐसे अपराध का आरोपी हो जो दोनों अदालतों (सिविल कोर्ट या कोर्ट मार्शल) में चल सकता है, तब मजिस्ट्रेट को यह देखना होगा कि मामले की प्रकृति को देखते हुए किस न्यायालय में मामला भेजा जाना उपयुक्त है। वह आरोपी को उचित दस्तावेज़ों के साथ संबंधित कमांडिंग ऑफिसर को सौंप सकता है।

स्पष्टीकरण:

• “यूनिट” (unit) का अर्थ है कोई रेजिमेंट, कोर, जहाज, समूह, बटालियन या कंपनी।

• “कोर्ट-मार्शल” का अर्थ है कोई भी ऐसा ट्रिब्यूनल जिसकी शक्ति सेना अधिनियमों के तहत गठित कोर्ट-मार्शल के समकक्ष हो।

उदाहरण के लिए, मान लीजिए एक सैनिक पर चोरी का आरोप है और यह अपराध छुट्टी के दौरान हुआ है। मजिस्ट्रेट यह विचार करेगा कि क्या यह मामला सैन्य अनुशासन के अंतर्गत आता है या सामान्य आपराधिक कानून के तहत। यदि वह मानता है कि कोर्ट-मार्शल उचित है, तो वह सैनिक को सेना के कमांडिंग ऑफिसर को सौंप देगा।

उपधारा (2): अभियुक्त की गिरफ्तारी के लिए सहायता

यदि किसी सैन्य अधिकारी द्वारा लिखित आवेदन दिया जाए कि किसी सैनिक को गिरफ्तार किया जाए क्योंकि वह किसी अपराध में संलिप्त है, तो मजिस्ट्रेट को हर संभव प्रयास करना होगा कि वह व्यक्ति पकड़ा जाए और उसे सुरक्षित रखा जाए।

यहाँ नागरिक प्रशासन और सैन्य प्रशासन के बीच सहयोग सुनिश्चित किया गया है, ताकि अपराधों की निष्पक्ष और समयबद्ध जांच हो सके।

उपधारा (3): हाईकोर्ट की शक्ति

यह उपधारा हाईकोर्ट को यह अधिकार देती है कि वह किसी कैदी को, जो राज्य की किसी जेल में बंद है, कोर्ट-मार्शल के समक्ष प्रस्तुत करने या पूछताछ के लिए लाने का आदेश दे सकता है।

उदाहरण के लिए, यदि कोई सैनिक किसी मामले में जेल में बंद है और एक सैन्य कोर्ट-मार्शल में उससे संबंधित मामला लंबित है, तो हाईकोर्ट यह निर्देश दे सकता है कि उसे सैन्य न्यायालय में पेश किया जाए।

धारा 522 – निर्धारित प्रपत्रों (Forms) की उपयोगिता और वैधता

यह धारा प्रक्रिया की तकनीकी पक्षों से संबंधित है। इसमें बताया गया है कि इस संहिता के अंतर्गत जो भी प्रपत्र (forms) द्वितीय अनुसूची (Second Schedule) में दिए गए हैं, वे सभी वैध माने जाएंगे यदि उन्हें प्रत्येक स्थिति के अनुसार अनुकूलित (modify) करके प्रयोग किया जाए।

इसका तात्पर्य यह है कि यदि कोई वकील या मजिस्ट्रेट अनुसूची में दिए गए किसी प्रपत्र का उपयोग करता है और उसमें कुछ आवश्यक बदलाव करता है ताकि वह उस विशेष मामले की प्रकृति के अनुरूप हो जाए, तो वह फिर भी वैध और स्वीकार्य रहेगा।

यह प्रावधान अदालतों और वकीलों को लचीलापन देता है कि वे प्रक्रिया का पालन करते हुए कुछ हद तक व्यवहारिक आवश्यकताओं के अनुसार फॉर्मेट बदल सकते हैं।

उदाहरण के लिए, यदि समन (summons) जारी करने का निर्धारित प्रपत्र किसी विशिष्ट अपराध के लिए उपयुक्त नहीं है और उसमें एक पैराग्राफ जोड़ना आवश्यक हो, तो वह फॉर्म फिर भी मान्य रहेगा यदि उसका मूल स्वरूप इस संहिता के अनुरूप हो।

यह धारा संविधान के अनुच्छेद 227 के अधीन न्यायिक नियंत्रण को मान्यता देती है, जिसका अर्थ है कि हाईकोर्ट इन प्रक्रियाओं की निगरानी और दिशा-निर्देशन जारी कर सकता है।

धारा 520 से 522 तक की ये धाराएँ भले ही संहिता के अंतिम अध्याय में हैं, परंतु इनका महत्व गहरा और संस्थागत है। धारा 520 यह सुनिश्चित करती है कि जब हाईकोर्ट आपराधिक मामलों की सुनवाई करे, तो वह निष्पक्ष और व्यवस्थित रूप से सत्र न्यायालय जैसी प्रक्रिया अपनाए।

धारा 521 सशस्त्र बलों के अनुशासन, सम्मान और कार्यप्रणाली को बनाए रखते हुए यह संतुलन बनाती है कि सिविल न्यायपालिका और सैन्य न्याय प्रणाली आपस में संघर्ष न करें। वहीं, धारा 522 अदालतों को प्रक्रिया संबंधी लचीलापन और व्यावहारिक समझदारी प्रदान करती है।

इन धाराओं का समुचित पालन करना केवल कानूनी तकनीक नहीं बल्कि न्यायपालिका, कार्यपालिका और सशस्त्र बलों के बीच समन्वय और न्यायिक दक्षता का प्रतीक भी है। इस प्रकार, अध्याय 39 भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की संस्थागत मजबूती का आधार स्तंभ है।

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