हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24-25: वाद के लंबित रहने के दौरान और स्थायी भरण-पोषण एवं गुजारा भत्ता

Update: 2025-07-22 11:58 GMT

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (Hindu Marriage Act, 1955) न केवल वैवाहिक संबंधों की स्थिति को परिभाषित करता है, बल्कि यह उन वित्तीय चुनौतियों (Financial Challenges) को भी संबोधित करता है जो वैवाहिक विवादों (Matrimonial Disputes) के दौरान और बाद में उत्पन्न होती हैं।

धारा 24 (Section 24) "वाद के लंबित रहने के दौरान भरण-पोषण" (Maintenance Pendente Lite) का प्रावधान करती है, जिसका उद्देश्य कार्यवाही के दौरान जरूरतमंद पति या पत्नी को सहायता प्रदान करना है।

वहीं, धारा 25 (Section 25) "स्थायी गुजारा भत्ता और भरण-पोषण" (Permanent Alimony and Maintenance) से संबंधित है, जो वैवाहिक संबंधों के कानूनी विघटन (Legal Dissolution) के बाद दीर्घकालिक वित्तीय सुरक्षा (Long-term Financial Security) सुनिश्चित करती है। ये धाराएँ सामाजिक न्याय (Social Justice) और समानता (Equality) के सिद्धांतों को कायम रखती हैं, यह सुनिश्चित करती हैं कि कोई भी पक्ष वित्तीय अक्षमता (Financial Incapacity) के कारण प्रतिकूल स्थिति में न हो।

24. वाद के लंबित रहने के दौरान भरण-पोषण और कार्यवाही का खर्च (Maintenance pendente lite and expenses of proceedings)

जहाँ इस अधिनियम के तहत किसी भी कार्यवाही में न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि या तो पत्नी या पति, जैसा भी मामला हो, के पास अपने समर्थन (Support) और कार्यवाही के आवश्यक खर्चों (Necessary Expenses of the Proceeding) के लिए पर्याप्त स्वतंत्र आय (Independent Income) नहीं है, तो वह पत्नी या पति के आवेदन पर, प्रतिवादी को कार्यवाही का खर्च (Expenses of the Proceeding), और कार्यवाही के दौरान मासिक (Monthly) ऐसी राशि का भुगतान करने का आदेश दे सकता है, जो याचिकाकर्ता की अपनी आय और प्रतिवादी की आय को ध्यान में रखते हुए, न्यायालय को उचित (Reasonable) प्रतीत हो।

स्पष्टीकरण: यह धारा वैवाहिक विवादों के दौरान एक महत्वपूर्ण अंतरिम राहत (Interim Relief) प्रदान करती है। "पेंडेंटे लाइट" (Pendente Lite) का अर्थ है "वाद के लंबित रहने के दौरान" या "जब तक मुकदमा चल रहा हो"।

इस प्रावधान का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कार्यवाही के दौरान कोई भी पक्ष, विशेषकर वह जो वित्तीय रूप से कमजोर है, वित्तीय कठिनाई के कारण अपने मामले को आगे बढ़ाने या बचाव करने में असमर्थ न हो। न्यायालय आवेदन पर विचार करते समय दोनों पक्षों की आय (Income) और वित्तीय जरूरतों (Financial Needs) को ध्यान में रखेगा। इसमें न केवल दैनिक जीवन-यापन के खर्च (Daily Living Expenses) बल्कि कानूनी कार्यवाही से जुड़े खर्च (Legal Expenses) भी शामिल होते हैं।

उदाहरण: यदि पत्नी तलाक के लिए याचिका दायर करती है और उसके पास कोई आय नहीं है, जबकि पति अच्छी कमाई करता है, तो पत्नी धारा 24 के तहत आवेदन कर सकती है। न्यायालय पति को कार्यवाही के खर्चों (जैसे वकील की फीस) और कार्यवाही के लंबित रहने तक पत्नी के जीवन-यापन के लिए एक मासिक राशि का भुगतान करने का आदेश दे सकता है।

परंतु (Provided that) कार्यवाही के खर्चों और ऐसी मासिक राशि के भुगतान के लिए आवेदन, जहाँ तक संभव हो, पत्नी या पति, जैसा भी मामला हो, पर सूचना की तामील (Service of Notice) की तारीख से साठ दिनों के भीतर (Within sixty days) निपटाया जाएगा।

स्पष्टीकरण: यह परंतुक यह सुनिश्चित करने के लिए 2001 के संशोधन (Amendment of 2001) द्वारा जोड़ा गया था कि अंतरिम भरण-पोषण के आवेदन में अनावश्यक देरी न हो। यह न्यायालयों पर एक समय-सीमा (Time-bound) कर्तव्य डालता है कि वे ऐसे आवेदनों का तेजी से निपटारा करें, क्योंकि इन मामलों में तत्काल वित्तीय सहायता की आवश्यकता होती है।

महत्वपूर्ण केस लॉ (Landmark Case Law):

1. जसबीर कौर सहगल बनाम जिला न्यायाधीश, देहरादून (Jasbir Kaur Sehgal v. District Judge, Dehradun), 1997:

o सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में धारा 24 के उद्देश्यों पर जोर दिया। न्यायालय ने कहा कि इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी पक्ष न्याय से वंचित न हो क्योंकि उसके पास अदालत में अपने मामले को प्रस्तुत करने के लिए पर्याप्त धन नहीं है। न्यायालयों को इस प्रावधान की उदारतापूर्वक (Liberally) व्याख्या करनी चाहिए और तात्कालिकता (Urgency) के साथ आवेदनों का निपटारा करना चाहिए।

2. मनीष के. शाह बनाम प्रियंका एम. शाह (Manish K. Shah v. Priyanka M. Shah), 2012 (गुजरात हाईकोर्ट):

o इस मामले में न्यायालय ने 60 दिनों की समय-सीमा के महत्व को रेखांकित किया। न्यायालय ने कहा कि यह समय-सीमा अनिवार्य है और इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि लंबित भरण-पोषण और खर्च के आवेदनों को त्वरित रूप से निपटाया जाए।

25. स्थायी गुजारा भत्ता और भरण-पोषण (Permanent alimony and maintenance)

(1) इस अधिनियम के तहत अधिकारिता का प्रयोग करने वाला कोई भी न्यायालय, किसी भी डिक्री (Decree) को पारित करते समय या उसके बाद किसी भी समय (At any time subsequent thereto), पत्नी या पति, जैसा भी मामला हो, द्वारा इस उद्देश्य के लिए किए गए आवेदन पर, प्रतिवादी को आवेदक को उसके भरण-पोषण और समर्थन (Maintenance and Support) के लिए एकमुश्त राशि (Gross Sum) या आवेदक के जीवनकाल से अधिक न होने वाली अवधि के लिए मासिक या आवधिक राशि (Monthly or Periodical Sum) का भुगतान करने का आदेश दे सकता है, जैसा कि प्रतिवादी की अपनी आय और अन्य संपत्ति (Income and Other Property), यदि कोई हो, आवेदक की आय और अन्य संपत्ति, पक्षों के आचरण (Conduct of the Parties) और मामले की अन्य परिस्थितियों (Other Circumstances of the Case) को ध्यान में रखते हुए, न्यायालय को न्यायोचित (Just) प्रतीत हो, और ऐसे किसी भी भुगतान को, यदि आवश्यक हो, तो प्रतिवादी की अचल संपत्ति पर प्रभार (Charge on the immovable property) द्वारा सुरक्षित किया जा सकता है। (Any court exercising jurisdiction under this Act may, at the time of passing any decree or at any time subsequent thereto, on application made to it for the purpose by either the wife or the husband, as the case may be, order that the respondent shall pay to the applicant for her or his maintenance and support such gross sum or such monthly or periodical sum for a term not exceeding the life of the applicant as, having regard to the respondent's own income and other property, if any, the income and other property of the applicant [the conduct of the parties and other circumstances of the case], it may seem to the court to be just, and any such payment may be secured, if necessary, by a charge on the immovable property of the respondent.)

स्पष्टीकरण: यह धारा तलाक, न्यायिक पृथक्करण या शून्यकरणीय विवाह जैसी किसी भी वैवाहिक डिक्री के पारित होने के बाद या यहां तक कि उसके बहुत बाद में भी स्थायी वित्तीय सहायता (Permanent Financial Support) के लिए एक प्रावधान है। यह धारा धारा 24 से भिन्न है क्योंकि धारा 24 कार्यवाही के दौरान अंतरिम राहत है, जबकि धारा 25 एक अंतिम राहत है।

• आवेदन का समय: न्यायालय किसी भी वैवाहिक डिक्री को पारित करते समय या उसके बाद किसी भी समय (कोई समय सीमा नहीं) आवेदन पर विचार कर सकता है।

• कौन आवेदन कर सकता है: पति या पत्नी दोनों में से कोई भी।

• सहायता का प्रकार: यह एक एकमुश्त राशि (Lump Sum) हो सकती है (जो एक बार में दी जाती है) या एक नियमित मासिक/आवधिक भुगतान (Regular Monthly/Periodical Payment) हो सकती है, जो आवेदक के जीवनकाल से अधिक नहीं होनी चाहिए।

• निर्धारण के कारक: न्यायालय को उचित राशि तय करते समय कई कारकों पर विचार करना होगा, जिनमें शामिल हैं:

o भुगतान करने वाले पक्ष (प्रतिवादी) की आय और संपत्ति।

o भुगतान प्राप्त करने वाले पक्ष (आवेदक) की आय और संपत्ति।

o दोनों पक्षों का आचरण (Conduct of Both Parties): यह एक महत्वपूर्ण कारक है, खासकर जब तलाक दोष-आधारित हो। न्यायालय देख सकता है कि वैवाहिक टूटने के लिए कौन सा पक्ष जिम्मेदार था।

o मामले की अन्य सभी प्रासंगिक परिस्थितियाँ (Relevant Circumstances)।

• सुरक्षा (Security): यदि आवश्यक हो, तो न्यायालय आदेश दे सकता है कि भुगतान को प्रतिवादी की अचल संपत्ति पर प्रभार (यानी, संपत्ति पर एक बोझ) के रूप में सुरक्षित किया जाए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि भुगतान नियमित रूप से किया जाएगा।

उदाहरण: तलाक के बाद, पत्नी (जिसके पास पर्याप्त आय नहीं है) स्थायी गुजारा भत्ता के लिए आवेदन कर सकती है। न्यायालय पति की आय और संपत्ति, पत्नी की जरूरतों और उनके वैवाहिक जीवन के दौरान उनके आचरण पर विचार करेगा, और मासिक ₹X का भुगतान करने का आदेश दे सकता है। यदि पति के पास अचल संपत्ति है, तो न्यायालय उस संपत्ति पर इस भुगतान का प्रभार भी लगा सकता है।

महत्वपूर्ण केस लॉ:

1. कल्याण डे चौधरी बनाम रीटा डे चौधरी (कल्याण डे चौधरी v. Rita Dey Chowdhury Nee Mitra), 2017:

o सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि भरण-पोषण की राशि तय करने के लिए कोई सीधा सूत्र (Straight Jacket Formula) नहीं है। न्यायालय को पति-पत्नी के सामाजिक स्तर (Social Status), जीवनशैली (Lifestyle), वित्तीय संसाधनों (Financial Resources), शैक्षणिक योग्यता (Educational Qualification) और आय अर्जित करने की क्षमता (Earning Capacity) सहित सभी कारकों पर विचार करना चाहिए।

2. डॉ. सूरजमणि स्टेला कुजूर बनाम दुर्गा चरण हंसदा (Dr. Surajamani Stella Kujur v. Durga Charan Hansdah), 2001:

o इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 25 के तहत भरण-पोषण तय करते समय पक्षों का आचरण (Conduct) एक महत्वपूर्ण विचारणीय कारक है।

(2) यदि न्यायालय संतुष्ट है कि उप-धारा (1) के तहत आदेश देने के बाद किसी भी समय किसी भी पक्ष की परिस्थितियों में बदलाव (Change in the Circumstances) आया है, तो वह किसी भी पक्ष के अनुरोध पर, ऐसे किसी भी आदेश को ऐसे तरीके से बदल सकता है, संशोधित कर सकता है या रद्द कर सकता है (Vary, Modify or Rescind) जैसा न्यायालय उचित समझे। (If the court is satisfied that there is a change in the circumstances of either party at any time after it has made an order under sub-section (1), it may, at the instance of either party, vary, modify or rescind any such order in such manner as the court may deem just.)

स्पष्टीकरण: यह उप-धारा स्थायी भरण-पोषण के आदेशों को लचीला (Flexible) बनाती है। वित्तीय परिस्थितियाँ समय के साथ बदल सकती हैं। यदि आदेश देने के बाद पति या पत्नी में से किसी की आय या संपत्ति में महत्वपूर्ण बदलाव आता है (उदाहरण के लिए, भुगतान करने वाले पक्ष की नौकरी चली जाती है, या प्राप्त करने वाले पक्ष को एक बड़ी विरासत मिलती है), तो कोई भी पक्ष न्यायालय से आदेश को संशोधित (Modify) करने, बदलने (Vary) या पूरी तरह से रद्द (Rescind) करने का अनुरोध कर सकता है।

उदाहरण: यदि पत्नी को स्थायी गुजारा भत्ता मिल रहा है और बाद में वह एक उच्च वेतन वाली नौकरी प्राप्त कर लेती है, तो पति गुजारा भत्ता की राशि को कम करने या रद्द करने के लिए आवेदन कर सकता है।

(3) यदि न्यायालय संतुष्ट है कि जिस पक्ष के पक्ष में इस धारा के तहत आदेश दिया गया है उसने पुनर्विवाह कर लिया है (Re-married) या, यदि ऐसा पक्ष पत्नी है, कि वह पवित्र नहीं रही है (Has not remained chaste), या, यदि ऐसा पक्ष पति है, कि उसने विवाह के बाहर किसी महिला के साथ यौन संबंध (Sexual intercourse with any woman outside wedlock) बनाए हैं, तो वह दूसरे पक्ष के अनुरोध पर ऐसे किसी भी आदेश को ऐसे तरीके से बदल सकता है, संशोधित कर सकता है या रद्द कर सकता है जैसा न्यायालय उचित समझे। (If the court is satisfied that the party in whose favour an order has been made under this section has re-married or, if such party is the wife, that she has not remained chaste, or, if such party is the husband, that he has had sexual intercourse with any woman outside wedlock, it may at the instance of the other party vary, modify or rescind any such order in such manner as the court may deem just.)

स्पष्टीकरण: यह उप-धारा उन विशिष्ट परिस्थितियों को सूचीबद्ध करती है जिनके तहत स्थायी गुजारा भत्ता के आदेश को बदला, संशोधित या रद्द किया जा सकता है। ये मुख्य रूप से गुजारा भत्ता प्राप्त करने वाले पक्ष के आचरण से संबंधित हैं:

• पुनर्विवाह (Remarriage): यदि गुजारा भत्ता प्राप्त करने वाला पक्ष फिर से शादी कर लेता है, तो आमतौर पर यह मान लिया जाता है कि उसे अब पूर्व पति या पत्नी से समर्थन की आवश्यकता नहीं है।

• पत्नी के लिए अपवित्रता (Unchastity for Wife): यदि पत्नी को गुजारा भत्ता मिल रहा है और वह पवित्र नहीं रहती है (जिसका अर्थ है विवाह के बाहर यौन संबंध), तो गुजारा भत्ता रद्द किया जा सकता है।

• पति के लिए विवाह के बाहर यौन संबंध (Sexual Intercourse Outside Wedlock for Husband): यह प्रावधान पत्नी पर लागू "अपवित्रता" के समान ही है, जो पति को मिलने वाले गुजारा भत्ता पर लागू होता है।

उदाहरण: यदि पत्नी को अपने पूर्व पति से स्थायी गुजारा भत्ता मिल रहा है और वह बाद में किसी अन्य व्यक्ति से शादी कर लेती है, तो पूर्व पति गुजारा भत्ता को रद्द करने के लिए न्यायालय में आवेदन कर सकता है।

महत्वपूर्ण केस लॉ:

1. सरदारी लाल बनाम श्रीमती बिमला देवी (Sardari Lal v. Smt. Bimla Devi), 1974 (दिल्ली हाईकोर्ट):

o इस मामले में न्यायालय ने धारा 25(3) के तहत "अपवित्रता" (Unchastity) के दायरे पर चर्चा की। न्यायालय ने कहा कि इसका अर्थ वैवाहिक संबंधों के बाहर यौन संबंध स्थापित करना है। अपवित्रता का आरोप लगाने वाले पक्ष को इसका प्रमाण (Proof) प्रस्तुत करना होगा।

2. वेंकटेश्वरलू बनाम एस. नागामणि (Venkateswarlu v. S. Nagamani), 2007 (आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट):

o इस मामले में न्यायालय ने दोहराया कि पुनर्विवाह धारा 25(3) के तहत गुजारा भत्ता के आदेश को रद्द करने का एक वैध और निर्णायक आधार है।

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24 और 25 वैवाहिक विवादों के वित्तीय निहितार्थों (Financial Implications) को संबोधित करने वाले महत्वपूर्ण कानूनी उपकरण (Legal Tools) हैं। धारा 24 यह सुनिश्चित करती है कि कोई भी पक्ष वित्तीय बाधाओं (Financial Constraints) के कारण न्याय से वंचित न हो, कार्यवाही के दौरान तत्काल सहायता प्रदान करके।

वहीं, धारा 25 वैवाहिक बंधन के टूटने के बाद स्थायी वित्तीय सुरक्षा प्रदान करके व्यक्तियों के भविष्य को सुरक्षित करती है, साथ ही यह सुनिश्चित करती है कि यह सहायता उचित हो और परिस्थितियों में बदलाव के साथ समायोजित (Adjust) हो सके। ये प्रावधान व्यक्तियों की वित्तीय कमजोरियों (Financial Vulnerabilities) को पहचानते हैं और एक न्यायसंगत और मानवीय दृष्टिकोण (Just and Humane Approach) के साथ उनका समाधान करते हैं।

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