हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 19, 20 और 21: वह न्यायालय जहाँ याचिका प्रस्तुत की जाएगी

Update: 2025-07-21 05:09 GMT

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (Hindu Marriage Act, 1955) के तहत वैवाहिक विवादों (Matrimonial Disputes) का न्यायनिर्णय (Adjudication) करने के लिए, प्रक्रियात्मक पहलुओं (Procedural Aspects) को समझना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि अंतर्निहित (Substantive) कानूनों को समझना।

धारा 19 (Section 19) स्पष्ट करती है कि किस न्यायालय (Court) में याचिका दायर की जानी चाहिए, धारा 20 (Section 20) याचिका की सामग्री (Contents) और सत्यापन (Verification) के लिए दिशानिर्देश निर्धारित करती है, और धारा 21 (Section 21) अधिनियम के तहत कार्यवाही पर सिविल प्रक्रिया संहिता (Code of Civil Procedure - CPC) के सामान्य अनुप्रयोग (General Application) को स्थापित करती है। ये धाराएँ सुनिश्चित करती हैं कि वैवाहिक मामलों का निपटारा एक सुसंगठित और न्यायपूर्ण तरीके से हो।

19. वह न्यायालय जहाँ याचिका प्रस्तुत की जाएगी (Court to which petition shall be presented)

इस अधिनियम के तहत प्रत्येक याचिका जिला न्यायालय (District Court) में प्रस्तुत की जाएगी, जिसकी सामान्य मूल सिविल अधिकारिता (Ordinary Original Civil Jurisdiction) की स्थानीय सीमाओं के भीतर:—

स्पष्टीकरण: यह धारा उन विशिष्ट स्थानों को परिभाषित करती है जहाँ हिंदू विवाह अधिनियम के तहत कोई भी याचिका (जैसे तलाक, न्यायिक पृथक्करण, शून्यकरणीय विवाह आदि के लिए) दायर की जा सकती है। यह अधिकारिता (Jurisdiction) के नियम स्थापित करती है। एक याचिका इनमें से किसी भी एक स्थान पर दायर की जा सकती है:

(i) विवाह संपन्न हुआ था (The marriage was solemnized):

• स्पष्टीकरण: यह सबसे सीधा आधार है। जिस शहर या जिले में विवाह के धार्मिक या कानूनी अनुष्ठान (Religious or Legal Ceremonies) किए गए थे, उस जिले का न्यायालय याचिका स्वीकार कर सकता है।

• उदाहरण: यदि रवि और प्रिया की शादी दिल्ली में हुई थी, तो दिल्ली का जिला न्यायालय उनकी वैवाहिक याचिकाएं स्वीकार कर सकता है।

(ii) प्रतिवादी (Respondent), याचिका प्रस्तुत करने के समय, निवास करता है (Resides):

• स्पष्टीकरण: न्यायालय की अधिकारिता उस स्थान पर भी होगी जहाँ याचिका दायर करते समय दूसरा पक्ष (जिसके खिलाफ याचिका दायर की गई है) स्थायी रूप से निवास करता है।

• उदाहरण: यदि प्रिया ने रवि के खिलाफ तलाक की याचिका दायर की है और रवि इस समय मुंबई में रहता है, तो मुंबई का जिला न्यायालय याचिका स्वीकार कर सकता है।

(iii) विवाह के पक्षकार अंतिम बार एक साथ रहे थे (The parties to the marriage last resided together):

• स्पष्टीकरण: यदि पति-पत्नी अलग हो गए हैं, तो जिस स्थान पर वे आखिरी बार पति और पत्नी के रूप में एक साथ रहते थे (यानी, एक सामान्य वैवाहिक घर था), उस स्थान का जिला न्यायालय याचिका स्वीकार कर सकता है।

• उदाहरण: रवि और प्रिया ने अपनी शादी के बाद आखिरी बार बेंगलुरु में एक साथ घर साझा किया था, हालांकि वे अब अलग-अलग शहरों में रहते हैं। बेंगलुरु का जिला न्यायालय उनकी याचिकाएं स्वीकार कर सकता है।

(iiia) यदि पत्नी याचिकाकर्ता है, तो जहाँ वह याचिका प्रस्तुत करने की तारीख को निवास कर रही है (In case the wife is the petitioner, where she is residing on the date of presentation of the petition):

• स्पष्टीकरण: यह प्रावधान विशेष रूप से पत्नी के लाभ (Benefit of Wife) के लिए 1976 के संशोधन अधिनियम (Amendment Act of 1976) द्वारा जोड़ा गया था। यह पत्नी को अपने निवास स्थान से याचिका दायर करने की अनुमति देता है, जिससे उसे पति के निवास स्थान पर या विवाह स्थल पर यात्रा करने की असुविधा से बचाया जा सके। यह महिलाओं के लिए न्याय तक पहुँच (Access to Justice) को आसान बनाता है।

• उदाहरण: यदि प्रिया ने रवि के खिलाफ तलाक की याचिका दायर की है और प्रिया इस समय चेन्नई में रहती है, तो चेन्नई का जिला न्यायालय याचिका स्वीकार कर सकता है, भले ही रवि कहीं और रहता हो या शादी कहीं और हुई हो।

(iv) याचिकाकर्ता (Petitioner) याचिका प्रस्तुत करने के समय निवास कर रहा है, उस मामले में जहाँ प्रतिवादी उस समय इस अधिनियम के लागू होने वाले क्षेत्रों (Territories to which this Act extends) के बाहर निवास कर रहा है, या उन व्यक्तियों द्वारा सात साल या उससे अधिक की अवधि के लिए जीवित नहीं सुना गया है जिन्होंने स्वाभाविक रूप से उसे सुना होता यदि वह जीवित होता (Has not been heard of as being alive for a period of seven years or more by those persons who would naturally have heard of him if he were alive):

• स्पष्टीकरण: यह खंड विशेष परिस्थितियों को संबोधित करता है। यदि प्रतिवादी भारत के बाहर (जहां अधिनियम लागू नहीं होता है) रह रहा है, या यदि प्रतिवादी सात साल या उससे अधिक समय से लापता है (जिससे उसकी मृत्यु की धारणा बनती है), तो याचिकाकर्ता अपने स्वयं के निवास स्थान पर याचिका दायर कर सकता है। यह उन मामलों के लिए आवश्यक है जहाँ सामान्य अधिकारिता के आधार उपलब्ध नहीं होते हैं।

• उदाहरण: यदि रवि भारत से बाहर अमेरिका में रहता है और प्रिया तलाक के लिए याचिका दायर करना चाहती है, तो प्रिया अपने निवास स्थान (जैसे हैदराबाद) में याचिका दायर कर सकती है।

महत्वपूर्ण केस लॉ (Landmark Case Law):

1. सतीस चंद्र गुप्ता बनाम मंजू गुप्ता (Satish Chandra Gupta v. Manju Gupta), 1999 (दिल्ली हाईकोर्ट):

o इस मामले में न्यायालय ने धारा 19(iii) के तहत "अंतिम बार एक साथ रहे" (Last Resided Together) की व्याख्या की। न्यायालय ने कहा कि इसका अर्थ यह नहीं है कि पति-पत्नी को एक साथ रहने का इरादा (Intention to Reside Together) होना चाहिए, बल्कि यह केवल उनके आखिरी सामान्य निवास (Last Common Residence) को संदर्भित करता है।

2. कुलविंदर कौर बनाम कुलदीप सिंह (Kulwinder Kaur v. Kuldip Singh), 2009 (पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट):

o इस मामले में धारा 19(iiia) के लाभकारी (Beneficial) स्वभाव पर जोर दिया गया। न्यायालय ने कहा कि यह प्रावधान महिलाओं को वैवाहिक राहत पाने के लिए अपने स्वयं के निवास स्थान पर याचिका दायर करने की अनुमति देकर उनकी सुविधा के लिए बनाया गया था, जिससे उन्हें कानूनी कार्यवाही में सहायता मिल सके।

20. याचिकाओं की सामग्री और सत्यापन (Contents and verification of petitions)

(1) इस अधिनियम के तहत प्रस्तुत प्रत्येक याचिका में मामले की प्रकृति के अनुसार यथासंभव स्पष्ट रूप से उन तथ्यों का उल्लेख होगा जिन पर राहत का दावा आधारित है और, धारा 11 के तहत याचिका को छोड़कर (Except in a petition under section 11), यह भी उल्लेख होगा कि याचिकाकर्ता और विवाह के दूसरे पक्ष के बीच कोई मिलीभगत (No Collusion) नहीं है। (Every petition presented under this Act shall state as distinctly as the nature of the case permits the facts on which the claim to relief is founded and, except in a petition under section 11, shall also state that there is no collusion between the petitioner and the other party to the marriage.)

स्पष्टीकरण: यह उप-धारा याचिका में क्या शामिल होना चाहिए, इसे निर्धारित करती है:

1. तथ्यों का स्पष्ट उल्लेख (Distinct Statement of Facts): याचिकाकर्ता को उन सभी प्रासंगिक तथ्यों को स्पष्ट रूप से बताना होगा जिनके आधार पर वह अदालत से राहत (Relief) मांग रहा है (जैसे क्रूरता के विशिष्ट उदाहरण, परित्याग की अवधि आदि)।

2. कोई मिलीभगत नहीं (No Collusion): धारा 11 (शून्य विवाह) के तहत याचिका को छोड़कर, सभी वैवाहिक याचिकाओं (जैसे तलाक, न्यायिक पृथक्करण, शून्यकरणीय विवाह) में यह अनिवार्य रूप से कहा जाना चाहिए कि याचिकाकर्ता और दूसरे पक्ष के बीच कोई मिलीभगत (यानी, न्यायालय को धोखा देने के लिए कोई गुप्त समझौता) नहीं है। यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि अदालत के सामने वास्तविक विवाद (Genuine Dispute) पेश किया जाए, न कि दिखावटी (Sham) कार्यवाही। धारा 11 (शून्य विवाह) के मामलों में इसकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि ऐसे विवाह शुरू से ही शून्य होते हैं, और मिलीभगत उनकी मौलिक अमान्यता (Fundamental Invalidity) के लिए प्रासंगिक नहीं होती।

उदाहरण: यदि कोई पत्नी क्रूरता के आधार पर तलाक के लिए याचिका दायर कर रही है, तो उसे क्रूरता की प्रत्येक घटना (जैसे तारीखें, स्थान, शामिल व्यक्ति) का विस्तार से वर्णन करना होगा और अंत में यह भी उल्लेख करना होगा कि यह याचिका उसके और पति के बीच किसी मिलीभगत का परिणाम नहीं है।

(2) इस अधिनियम के तहत प्रत्येक याचिका में निहित बयानों को याचिकाकर्ता या किसी अन्य सक्षम व्यक्ति द्वारा वादपत्रों के सत्यापन के लिए कानून द्वारा आवश्यक तरीके से (In the manner required by law for the verification of plaints) सत्यापित किया जाएगा, और सुनवाई पर, इसे साक्ष्य (Evidence) के रूप में संदर्भित किया जा सकता है। (The statements contained in every petition under this Act shall be verified by the petitioner or some other competent person in the manner required by law for the verification of plaints, and may, at the hearing, be referred to as evidence.)

स्पष्टीकरण: यह उप-धारा याचिका की सत्यता (Truthfulness) और जवाबदेही (Accountability) सुनिश्चित करती है। याचिका में दिए गए सभी बयानों को याचिकाकर्ता या उसके किसी सक्षम प्रतिनिधि द्वारा सत्यापित किया जाना चाहिए, जैसे सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत वादपत्रों को सत्यापित किया जाता है (यानी, एक हलफनामे के रूप में)। यह सत्यापन याचिकाकर्ता को बयानों की सत्यता के लिए जिम्मेदार बनाता है, और अदालत सुनवाई के दौरान इन सत्यापित बयानों को सबूत के तौर पर इस्तेमाल कर सकती है।

उदाहरण: याचिकाकर्ता को याचिका के अंत में एक घोषणा पर हस्ताक्षर करना होगा कि याचिका में दिए गए तथ्य उसकी सर्वोत्तम जानकारी और विश्वास के अनुसार सत्य हैं।

21. 1908 के अधिनियम 5 का लागू होना (Application of Act 5 of 1908)

इस अधिनियम में निहित अन्य प्रावधानों और ऐसे नियमों के अधीन जिन्हें हाईकोर्ट इस संबंध में बना सकता है, इस अधिनियम के तहत सभी कार्यवाही, जहाँ तक संभव हो, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Code of Civil Procedure, 1908) द्वारा विनियमित (Regulated) होंगी।

स्पष्टीकरण: यह धारा हिंदू विवाह अधिनियम के तहत कार्यवाही के लिए सामान्य प्रक्रियात्मक कानून (General Procedural Law) को निर्दिष्ट करती है। यह बताती है कि सिविल प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) के प्रावधान (जैसे समन जारी करना, दस्तावेज़ पेश करना, गवाहों की जांच करना, अंतरिम आदेश आदि) हिंदू विवाह अधिनियम के मामलों में भी लागू होंगे। हालांकि, यह महत्वपूर्ण है कि सीपीसी का अनुप्रयोग तीन शर्तों के अधीन है:

1. इस अधिनियम के अन्य प्रावधानों के अधीन (Subject to other provisions in this Act): यदि हिंदू विवाह अधिनियम में किसी विशिष्ट मामले के लिए कोई विशेष प्रक्रिया (जैसे धारा 13B के तहत छह महीने की प्रतीक्षा अवधि या धारा 14 के तहत एक वर्ष का प्रतिबंध) है, तो हिंदू विवाह अधिनियम के वे विशेष प्रावधान सीपीसी पर अग्रता (Precedence) लेंगे।

2. हाईकोर्ट द्वारा बनाए गए नियमों के अधीन (Subject to such rules as the High Court may make): उच्च न्यायालयों के पास हिंदू विवाह अधिनियम के तहत कार्यवाही के लिए अपने स्वयं के नियम (Rules) बनाने की शक्ति है। यदि ऐसे नियम बनाए जाते हैं, तो वे सीपीसी के प्रावधानों पर अग्रता लेंगे।

3. जहाँ तक संभव हो (As far as may be): इसका अर्थ है कि सीपीसी के प्रावधानों को कठोरता से नहीं बल्कि लचीलेपन (Flexibility) के साथ लागू किया जाएगा, जो वैवाहिक मामलों की प्रकृति के अनुरूप हो।

उदाहरण: एक तलाक की याचिका में, गवाहों को समन करने की प्रक्रिया सीपीसी के तहत होगी, लेकिन याचिका दायर करने के लिए एक वर्ष की प्रतीक्षा अवधि (धारा 14) या आपसी सहमति से तलाक के लिए छह महीने की प्रतीक्षा अवधि (धारा 13B) जैसे प्रावधानों को हिंदू विवाह अधिनियम के अनुसार कड़ाई से पालन किया जाएगा, न कि सीपीसी के सामान्य समय-सीमा के अनुसार।

महत्वपूर्ण केस लॉ:

1. सुरेश कुमार बनाम सुषमा रानी (Suresh Kumar v. Sushma Rani), 2002 (पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट):

o इस मामले में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 21 का अर्थ यह नहीं है कि सीपीसी का प्रत्येक और हर प्रावधान हिंदू विवाह अधिनियम के मामलों में लागू होगा। न्यायालयों को अधिनियम के उद्देश्य और वैवाहिक विवादों की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए सीपीसी के प्रावधानों को लागू करना चाहिए।

2. एस. एम. दत्तु बनाम टी. वी. रामा रेड्डी (S.M. Dattu v. T.V. Rama Reddy), 2002 (आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट):

o इस मामले में न्यायालय ने कहा कि जबकि सीपीसी के प्रावधान हिंदू विवाह अधिनियम पर लागू होते हैं, धारा 21 स्पष्ट करती है कि यह अधिनियम के अन्य प्रावधानों और हाईकोर्ट द्वारा बनाए गए नियमों के अधीन है। इसलिए, यदि अधिनियम स्वयं एक विशेष प्रक्रिया निर्धारित करता है, तो उसे प्राथमिकता दी जाएगी।

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 19, 20 और 21 मिलकर वैवाहिक मामलों के लिए एक स्पष्ट प्रक्रियात्मक ढांचा (Procedural Framework) प्रदान करती हैं। धारा 19 यह सुनिश्चित करती है कि मामले उपयुक्त अधिकारिता वाले न्यायालयों में दायर किए जाएं, विशेष रूप से महिलाओं के लिए पहुंच में सुधार करके। धारा 20 याचिकाओं की प्रामाणिकता (Authenticity) और सटीकता (Accuracy) सुनिश्चित करने के लिए नियम निर्धारित करती है, जिसमें मिलीभगत के खिलाफ सुरक्षा भी शामिल है।

अंत में, धारा 21 सीपीसी को एक डिफ़ॉल्ट मार्गदर्शक के रूप में स्थापित करती है जबकि यह सुनिश्चित करती है कि अधिनियम के विशिष्ट प्रावधानों और उच्च न्यायालयों द्वारा बनाए गए नियमों को प्राथमिकता मिले। ये प्रावधान वैवाहिक न्याय के कुशल और न्यायपूर्ण प्रशासन (Efficient and Just Administration) में महत्वपूर्ण हैं।

Tags:    

Similar News