भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 483: हाईकोर्ट या सत्र न्यायालय की जमानत पर रिहा करने की शक्ति

Update: 2025-05-29 12:23 GMT

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita, 2023) की धारा 483 हाईकोर्ट (High Court) और सत्र न्यायालय (Court of Session) को यह अधिकार प्रदान करती है कि वे अभियुक्तों को जमानत पर रिहा करने, मजिस्ट्रेट द्वारा लगाई गई जमानत की शर्तों को संशोधित करने या किसी अभियुक्त को पुनः हिरासत में लेने का निर्देश दे सकते हैं।

यह धारा विशेष रूप से गंभीर अपराधों और विशेष न्यायालयों में विचारणीय मामलों में न्यायालयों को अधिक विवेकपूर्ण भूमिका निभाने का अधिकार देती है।

धारा 483(1): हाईकोर्ट या सत्र न्यायालय द्वारा अभियुक्त को जमानत पर रिहा करने की शक्ति

इस उपधारा के अंतर्गत हाईकोर्ट या सत्र न्यायालय यह निर्देश दे सकते हैं कि किसी अपराध का अभियुक्त, जो हिरासत में है, उसे जमानत पर रिहा कर दिया जाए। यदि अभियुक्त ने ऐसा अपराध किया है जो धारा 480(3) के अंतर्गत आता है, अर्थात कोई गंभीर गैर-जमानती अपराध है, तो न्यायालय उसके ऊपर आवश्यक शर्तें लगा सकता है।

धारा 480(3) के अनुसार, गंभीर गैर-जमानती अपराधों में जमानत देते समय यह सुनिश्चित करना होता है कि अभियुक्त न्यायालय की प्रक्रिया में उपस्थित हो, गवाहों या सबूतों को प्रभावित न करे, और देश से बाहर न जाए। अतः, धारा 483(1)(a) में यह स्पष्ट किया गया है कि सत्र या हाईकोर्ट जमानत देते समय इन सभी शर्तों को लागू कर सकते हैं।

धारा 483(1)(b): मजिस्ट्रेट द्वारा लगाई गई शर्तों को हटाने या संशोधित करने की शक्ति

इस खंड के अंतर्गत हाईकोर्ट या सत्र न्यायालय यह अधिकार रखते हैं कि यदि किसी मजिस्ट्रेट द्वारा किसी व्यक्ति को जमानत दी गई है और उस पर कुछ शर्तें लगाई गई हैं, तो उन शर्तों को समाप्त या संशोधित किया जा सकता है। इसका उद्देश्य यह है कि उच्चतर न्यायालयों को यह अधिकार मिले कि वे निचली अदालतों द्वारा लगाए गए निर्णयों की न्यायिक समीक्षा कर सकें, विशेष रूप से जब वे अत्यधिक कठोर या अनुचित हों।

उदाहरण के लिए, यदि किसी अभियुक्त को मजिस्ट्रेट ने जमानत देते समय यह शर्त लगाई कि वह हर दिन पुलिस थाने में हाजिरी देगा, और अभियुक्त को यह अनुपयुक्त प्रतीत होता है, तो वह सत्र न्यायालय में जाकर उस शर्त को हटवाने या हल्का करवाने का अनुरोध कर सकता है।

प्रथम प्रावधान: विशेष मामलों में लोक अभियोजक को सूचना देना अनिवार्य

धारा 483 में पहला प्रावधान यह कहता है कि यदि अभियुक्त ऐसा अपराध करने का आरोपी है जो सत्र न्यायालय में विचारणीय है या जिसके लिए आजीवन कारावास का प्रावधान है, तो न्यायालय को अभियोजन पक्ष (Public Prosecutor) को उस जमानत आवेदन की सूचना देनी होगी।

यह सूचना केवल तभी नहीं दी जाएगी जब न्यायालय लिखित रूप में यह कारण दर्ज करे कि सूचना देना व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है। इस प्रावधान का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अभियोजन पक्ष को भी यह अवसर मिले कि वह जमानत के विरोध में तर्क प्रस्तुत कर सके।

इससे पहले की संहिता यानी दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 439 में भी ऐसा ही प्रावधान था, लेकिन अब इसे और अधिक स्पष्टता के साथ शामिल किया गया है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि गंभीर अपराधों में बिना अभियोजन पक्ष की सुनी गई बात के जमानत नहीं दी जाए।

द्वितीय प्रावधान: धारा 65 और 70(2) के मामलों में विशेष सूचना प्रावधान

दूसरे प्रावधान के अनुसार, यदि अभियुक्त भारतीय न्याय संहिता, 2023 (Bharatiya Nyaya Sanhita, 2023) की धारा 65 (बलात्कार) या धारा 70(2) (गैंग रेप) के अंतर्गत आरोपी है, तो ऐसे मामलों में लोक अभियोजक को जमानत आवेदन की सूचना पंद्रह दिनों के भीतर देना अनिवार्य है।

यह एक समयबद्ध दायित्व है ताकि अभियोजन पक्ष तैयार होकर उपस्थित हो सके और ऐसे संवेदनशील मामलों में न्यायालय जमानत पर निर्णय लेने से पहले सभी पक्षों की बात सुन सके। यह प्रावधान यौन अपराधों की गंभीरता और पीड़ित के अधिकारों की सुरक्षा की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।

धारा 483(2): पीड़ित या उसके प्रतिनिधि की उपस्थिति आवश्यक

इस उपधारा में यह स्पष्ट किया गया है कि यदि जमानत का आवेदन धारा 65 (बलात्कार) या धारा 70(2) (गैंग रेप) के मामलों से संबंधित है, तो सूचना देने के साथ-साथ यह भी अनिवार्य है कि पीड़ित (सूचना देने वाला/सूचक) या उसके द्वारा अधिकृत कोई व्यक्ति जमानत की सुनवाई के समय न्यायालय में उपस्थित हो।

इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि पीड़ित पक्ष की भी आवाज़ न्यायालय में सुनी जाए और अभियुक्त को जमानत देने से पहले पीड़ित पक्ष की भावनाओं, चिंताओं और स्थिति को ध्यान में रखा जाए।

उदाहरण के लिए, यदि सीमा बलात्कार की पीड़िता है और आरोपी सत्र न्यायालय में जमानत के लिए आवेदन करता है, तो यह सुनिश्चित किया जाएगा कि सीमा या उसका अधिकृत प्रतिनिधि न्यायालय में उपस्थित हो और अपनी बात रख सके।

धारा 483(3): जमानत रद्द कर पुनः हिरासत में लेने का आदेश

यह उपधारा हाईकोर्ट या सत्र न्यायालय को यह शक्ति देती है कि वे ऐसे किसी भी अभियुक्त को, जिसे इस अध्याय के अंतर्गत जमानत दी गई है, फिर से गिरफ्तार करने और हिरासत में भेजने का निर्देश दे सकते हैं। यह तब किया जा सकता है जब अभियुक्त जमानत की शर्तों का उल्लंघन करता है या यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि अब अभियुक्त को हिरासत में लिया जाना आवश्यक है।

इस प्रावधान का महत्व इसलिए है क्योंकि यह जमानत का दुरुपयोग रोकने के लिए न्यायालय को प्रभावी उपाय प्रदान करता है। यदि कोई अभियुक्त जमानत पर रहते हुए गवाहों को धमकाता है या जांच में बाधा डालता है, तो न्यायालय उसे फिर से हिरासत में भेज सकता है।

प्रासंगिक संदर्भ और पूर्व धाराएं

धारा 480 और धारा 481 से धारा 483 का गहरा संबंध है। धारा 480 गैर-जमानती अपराधों में जमानत से संबंधित है, जिसमें यह बताया गया है कि किन परिस्थितियों में मजिस्ट्रेट जमानत दे सकता है। धारा 481 कहती है कि जब किसी अभियुक्त को जमानत दी जाती है, तो उसे यह बंधन देना होता है कि वह यदि उच्चतर न्यायालय में कोई अपील या याचिका चले तो वह वहाँ उपस्थित होगा।

धारा 482 अग्रिम जमानत से संबंधित है, और धारा 483 में इसका विस्तार देखा जा सकता है, क्योंकि इसमें विशेष रूप से सत्र न्यायालय और हाईकोर्ट की भूमिका को और स्पष्ट किया गया है। यह न्यायालयों को यह अधिकार देता है कि वे जमानत की प्रक्रिया में सक्रिय हस्तक्षेप कर सकें, शर्तें निर्धारित कर सकें, या आवश्यकतानुसार निर्णयों में संशोधन कर सकें।

न्यायिक दृष्टिकोण और महत्वपूर्ण निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने कई बार यह दोहराया है कि गंभीर अपराधों के मामलों में जमानत एक सामान्य अधिकार नहीं है, बल्कि एक न्यायिक विवेक का मामला है।

प्रसिद्ध निर्णय - *Kalyan Chandra Sarkar बनाम राज्य पश्चिम बंगाल (2004):** इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहा कि जमानत देते समय अदालत को अपराध की प्रकृति, साक्ष्यों की गंभीरता, आरोपी की सामाजिक स्थिति, पीड़ित की स्थिति, और न्याय में बाधा पहुँचाने की संभावना जैसे कारकों पर विचार करना चाहिए।

निर्णय - State of Rajasthan बनाम Balchand alias Baliya (1977): इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि "जमानत नियम है, जेल अपवाद", लेकिन यह नियम तभी लागू होगा जब अपराध सामान्य प्रकृति का हो। गंभीर अपराधों में यह कथन उतना सटीक नहीं रहता।

धारा 483 भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 के अंतर्गत हाईकोर्ट और सत्र न्यायालय को जमानत से संबंधित व्यापक और विशेष अधिकार प्रदान करती है। यह प्रावधान विशेष रूप से गंभीर अपराधों, बलात्कार जैसे संवेदनशील मामलों, और सत्र न्यायालय में विचारणीय अपराधों में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

इस धारा के माध्यम से न्यायालयों को यह शक्ति दी गई है कि वे अभियुक्त को जमानत पर रिहा कर सकते हैं, आवश्यक शर्तें लगा सकते हैं, मजिस्ट्रेट द्वारा दी गई शर्तों में बदलाव कर सकते हैं, और यदि आवश्यक हो तो अभियुक्त को पुनः हिरासत में भी ले सकते हैं। साथ ही, इस धारा में यह सुनिश्चित किया गया है कि गंभीर यौन अपराधों में अभियोजन पक्ष और पीड़ित को सुनवाई का पूर्ण अवसर मिले।

इस प्रकार, धारा 483 न केवल अभियुक्त के अधिकारों की रक्षा करती है, बल्कि पीड़ितों और न्याय प्रक्रिया की निष्पक्षता को भी सुनिश्चित करती है। यह न्यायिक विवेक, संतुलन और संवेदनशीलता का एक बेहतरीन उदाहरण है, जो हमारे आपराधिक न्याय प्रणाली की जड़ों को मजबूत करता है।

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