राजस्थान सियासी संकट: जानिए कब यह माना जाता है कि सदन सदस्य ने अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ दी है?
राजस्थान विधानसभा स्पीकर ने 14 जुलाई को कथित बागी विधायकों (सचिन पायलट एवं 18 अन्य विधायक) को अयोग्य ठहराए जाने के नोटिस जारी किए, जिसमें यह कहा गया कि उन्होंने 13 जुलाई और 14 जुलाई को विधायक दल की बैठक में भाग लेने के पार्टी के मुख्य व्हिप डॉक्टर महेश जोशी द्वारा जारी किए गए निर्देश का उल्लंघन किया है।
यह नोटिस, संविधान की दसवीं अनुसूची के पैराग्राफ 2 (1) (ए) के तहत जारी किए गए हैं, जो प्रावधान "स्वेच्छा से एक राजनीतिक पार्टी की सदस्यता छोड़ने वाले व्यक्ति" (voluntarily giving up membership of a political party) को अयोग्य/निरर्हित (Disqualified) ठहराए जाने से सम्बंधित है।
इसके पश्च्यात, पायलट खेमे ने विधायकों ने राजस्थान हाईकोर्ट में याचिका दायर की जिसमें इन विधायकों को अयोग्य ठहराने की कार्यवाही शुरू करने के लिए विधानसभा अध्यक्ष द्वारा जारी नोटिस को चुनौती दी गयी है।
याचिका में कहा गया है कि विधायकों के खिलाफ आरोप इतने निराधार हैं कि विवेकपूर्ण दिमाग का कोई भी सदस्य इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकता कि याचिकाकर्ताओं ने स्वेच्छा से भारतीय कांग्रेस पार्टी की सदस्यता छोड़ दी है।
मौजूदा लेख में हम राजस्थान के सियासी संकट को समझने के साथ-साथ यह भी समझने का प्रयास करेंगे कि कब यह माना जाता है कि सदन सदस्य ने अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ दी है?
संविधान की 10वीं अनुसूची क्या कहती है?
राजस्थान के सियासी संकट को समझने के लिए हमे संविधान की 10वीं अनुसूची के पैराग्राफ 2 को समझना है। गौरतलब है कि कथित रूप से बागी 19 कांग्रेस विधायकों को पैराग्राफ 2 के खंड (1) (ए) के तहत नोटिस जारी की गयी है। तो जानते हैं यह पैराग्राफ क्या कहता है:-
पैराग्राफ 2 - दल परिवर्तन के आधार पर निरर्हता (Disqualification on ground of defection) - सदन का कोई सदस्य, जो किसी राजनीतिक दल का सदस्य है, सदन का सदस्य होने के लिए उस दशा में निरर्हित (Disqualified) होगा जिसमें:-
(क) उसने ऐसे राजनीतिक दल की अपनी सदस्यता स्वेच्छा से छोड़ दी है (If he has voluntarily given up his membership of such political party); या
(ख) वह ऐसे राजनीतिक दल द्वारा जिसका वह सदस्य है अथवा उसके द्वारा इस निमित्त प्राधिकृत किसी व्यक्ति या प्राधिकारी द्वारा दिए गए किसी निदेश के विरुद्ध, ऐसे राजनीतिक दल, व्यक्ति या प्राधिकारी की पूर्व अनुज्ञा के बिना, ऐसे सदन में मतदान करता है या मतदान करने से विरत रहता है और ऐसे मतदान या मतदान करने से विरत रहने को ऐसे राजनीतिक दल, व्यक्ति या प्राधिकारी ने ऐसे मतदान या मतदान करने से विरत रहने की तारीख से पंद्रह दिन के भीतर माफ नहीं किया है।
जैसा कि हमने 10वीं अनुसूची को देखा, तो हम यह जान सकते हैं कि ऐसे 2 ग्राउंड हैं जिसके आधार पर किसी व्यक्ति को सदन की सदस्यता से डिसक्वालिफाई किया जा सकता है। वे 2 ग्राउंड हैं:-
(a) यदि सदस्य, स्वेच्छा से पार्टी की सदस्यता छोड़ देते हैं, तो उन्हें अयोग्य (Disqualified) घोषित कर दिया जाएगा। यहाँ इस बात को ध्यान में रखा जाना है कि स्वेच्छा से सदस्यता छोड़ना, किसी पार्टी से इस्तीफा देने जैसा नहीं है (अर्थात दोनों एक ही चीज़ नहीं हैं)। इस्तीफा दिए बिना भी, एक विधायक को अयोग्य ठहराया जा सकता है, यदि उसके आचरण से, सदन के अध्यक्ष एक उचित निष्कर्ष निकालते हैं कि सदस्य ने स्वेच्छा से अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ दी है (अर्थात उसके आचरण से उसकी पार्टी छोड़ने की मंशा का पता लगाया जा सकता है)। [राजस्थान के स्पीकर ने कथित बागी विधायकों को इसी प्रावधान के तहत नोटिस दिया है]
(b) यदि कोई विधायक अपनी पार्टी के व्हिप के खिलाफ सदन में मतदान करता है और उसकी कार्रवाई उसकी पार्टी द्वारा माफ़ नहीं की जाती है, तो उसे अयोग्य ठहराया जा सकता है।
गौरतलब है कि ये वे दो आधार हैं जिन पर एक विधायक को सदन का सदस्य बनने से अयोग्य ठहराया जा सकता है। हालांकि, एक अपवाद है जो विधायकों को अयोग्यता से बचाने के लिए कानून में प्रदान किया गया था। 10वीं अनुसूची कहती है कि यदि दो राजनीतिक दलों के बीच विलय होता है और दो-तिहाई विधायक दल के सदस्य विलय के लिए सहमत होते हैं, तो वे अयोग्य नहीं होंगे।
अयोग्यता पर स्पीकर का फैसला अंतिम, परन्तु हैं कुछ सीमायें
यदि हम इसी अनुसूची के पैराग्राफ 6 (1) पर नजर डालें तो हम यह पाएंगे कि यदि यह प्रश्न उठता है कि सदन का कोई सदस्य इस अनुसूची के अधीन निरर्हता से ग्रस्त हो गया है या नहीं, तो वह प्रश्न, ऐसे सदन के, यथास्थिति, सभापति (Chairman) या अध्यक्ष (Speaker) के विनिश्चय के लिए निर्देशित किया जाएगा और उसका विनिश्चय अंतिम होगा।
इसी अनुसूची के पैराग्राफ 6 (2) को पढने पर यह साफ़ हो जाता है कि इस अनुसूची के अधीन सदन के किसी सदस्य की निरर्हता के बारे में किसी प्रश्न के संबंध में इस पैरा के उपपैरा (1) के अधीन सभी कार्यवाहियों के बारे में यह समझा जाएगा कि वे, यथास्थिति, अनुच्छेद 122 के अर्थ में संसद की कार्यवाहियां हैं या संविधान के अनुच्छेद 212 के अर्थ में राज्य के विधान-मंडल की कार्यवाहियाँ हैं।
गौरतलब है कि संविधान के अनुच्छेद 212 (चूँकि राजस्थान एक राज्य है इसलिए हम इस पर ही ध्यान केन्द्रित करेंगे) के अनुसार, न्यायालयों के ऊपर सदन के भीतर कार्यवाही में दखल देने पर प्रतिबंध है।
इस अनुच्छेद में कहा गया है कि सदन की कार्यवाही की वैधता पर अदालत में सवाल नहीं उठाया जा सकता है, हालाँकि यह अदालत पर लगाया गया पूर्ण प्रतिबन्ध नहीं है।
यहाँ इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि वर्ष 1992 के पूर्व कानून के अनुसार (जब 10वीं अनुसूची में 7th पैराग्राफ हुआ करता था), अध्यक्ष या पीठासीन अधिकारी का निर्णय न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) के अधीन नहीं हुआ करता था।
हालाँकि, वर्ष 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने किहोतो होलोहोन बनाम ज़चिल्हू (1992) 1 SCC 309 के मामले में यह तय कर दिया है कि पीठासीन अधिकारी द्वारा अयोग्यता से सम्बंधित फैसले के खिलाफ अदालत में अपील की जा सकती है। कोर्ट ने कहा कि इस तरह के फैसलों की समीक्षा हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों कर सकते हैं।
पैराग्राफ 2 के खंड (1) (ए): कैसे सदस्य के आचरण से पता लगाया जाए कि उसने पार्टी की सदस्यता छोड़ दी है?
जैसा कि हमने पहले ही लेख में जाना है कि स्वेच्छा से पार्टी सदस्यता छोड़ना, किसी पार्टी से इस्तीफा देने के समान नहीं है। फिर वास्तव में इसका क्या मतलब है? कोई यह कैसे तय कर सकता है कि एक विधायिका के सदस्य ने स्वेच्छा से अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ दी है?
सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए कई मामलों में इस बात को स्पष्ट किया है कि पीठासीन अधिकारी, जो एक न्यायाधिकरण (Tribunal) के रूप में कार्य करता है, वह विधायक के आचरण से एक उचित निष्कर्ष निकाल सकता है कि क्या उसने वाकई में पार्टी की सदस्यता छोड़ दी है अथवा नहीं।
उच्चतम न्यायालय ने रवि एस नाइक बनाम भारत संघ' 1994 SCR (1) 754 के मामले में "उसने ऐसे राजनीतिक दल की अपनी सदस्यता स्वेच्छा से छोड़ दी है " [10वीं अनुसूची पैराग्राफ 2 (a)] शब्दों की व्याख्या की और यह देखा गया कि 'त्यागपत्र' और 'स्वेच्छा से सदस्यता छोड़ देना' समान नहीं है (जैसा कि हमने पहले समझा)।
अदालत ने इस मामले में कहा कि
"कोई व्यक्ति स्वेच्छा से किसी राजनीतिक पार्टी की सदस्यता छोड़ सकता है, भले ही उसने उस पार्टी की सदस्यता से अपना इस्तीफा न दिया हो। यहां तक कि सदस्यता से एक औपचारिक इस्तीफे की अनुपस्थिति में भी एक सदस्य के आचरण से एक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उसने स्वेच्छा से उस राजनीतिक पार्टी की अपनी सदस्यता छोड़ दी है जिसमें वह शामिल है।"
इसी प्रकार, राजेंद्र सिंह राणा बनाम स्वामी प्रसाद मौर्य [(2007) 4 SCC 270] और डॉ. महाचंद्र प्रसाद सिंह बनाम अध्यक्ष, बिहार विधान सभा (2004) 8 SCC में सर्वोच्च न्यायालय ने फिरसे इस बात को माना कि यह व्यक्त करने के लिए कि व्यक्ति ने पार्टी की सदस्यता छोड़ दी है, कि हमेशा यह आवश्यक नहीं होता है कि एक औपचारिक इस्तीफा दिया जाए बल्कि उस व्यक्ति के आचरण से भी इस बात का आकलन लगाया जा सकता है।
इसी आधार पर स्पीकर की ओर से राजस्थान उच्च न्यायालय में यह दलील दी गयी कि पार्टी की बैठक में गैर-उपस्थिति को भी पार्टी की सदस्यता छोड़ देने के रूप में माना जा सकता है।
इसके लिए स्पीकर की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता, डॉ. अभिषेक मनु सिंघवी ने हाईकोर्ट में कर्नाटक के विधायकों को अयोग्य ठहराए जाने के मामले (2019) का उल्लेख किया.
दरअसल इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने अध्यक्ष (Speaker) के फैसले को बरकरार रखा था, जिसमें विधायकों को इस तथ्य के आधार पर अयोग्य ठहराया गया था कि उन्होंने पार्टी के निर्देशों का उल्लंघन करते हुए पार्टी की बैठकों में भाग लेने से इनकार कर दिया था।
वहीँ, याचिकाकर्ताओं (पायलट खेमे के विधायक) ने अदालत में तर्क दिया कि पार्टी की बैठकों में भाग लेने में विफलता को दोष के रूप में नहीं माना जा सकता है, और यह कि पार्टी व्हिप के दिशा निर्देश सदन के बाहर की बैठकों के लिए लागू नहीं होते हैं।
राजस्थान का मामला: आचरण के आधार पर स्पीकर की नोटिस से जुड़ा है विवाद
राजस्थान के मामले में, इस आधार पर राजस्थान विधान सभा के स्पीकर ने उनके आचरण से यह निष्कर्ष निकला कि उन्होंने पार्टी की सदस्यता छोड़ दी है कि वे पार्टी मीटिंग्स में शामिल नहीं हो रहे थे।
इस निष्कर्ष पर आने के लिए उन्होंने 13 जुलाई और 14 जुलाई को विधायक दल की बैठक में भाग लेने के पार्टी के मुख्य व्हिप डॉक्टर महेश जोशी द्वारा जारी किए गए निर्देश का इन कथित बागी विधायकों द्वारा उल्लंघन को आधार बनाया।
दूसरी ओर, कथित बागी विधायकों ने राजस्थान हाईकोर्ट में रिट याचिका दायर कर यह दावा किया कि उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सदस्यता छोड़ने का कोई इरादा नहीं जताया है।
उन्होंने कहा कि यहां याचिकाकर्ताओं में से किसी ने भी व्यक्त आचरण या निहित आचरण के आधार पर, अपने निर्वाचन क्षेत्रों के सदस्यों और/या जनता को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सदस्यता को छोड़ने या स्वैच्छिक रूप से त्यागने का कोई संकेत नहीं दिया है।
याचिका में कहा गया है कि याचिकाकर्ता पार्टी के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करते रहे हैं। उनका तर्क है कि पार्टी की बैठकों में भाग लेने में विफलता संविधान की दसवीं अनुसूची के पैरा 2 (ए) या 2 (बी) के तहत अयोग्य घोषित करने का आधार नहीं है।
याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया कि व्हिप सदन के भीतर कार्यवाही के लिए ही लागू है, और इसलिए, पार्टी की बैठकों में भाग लेने के लिए पार्टी व्हिप के निर्देशों की अवहेलना करने से अयोग्य कार्यवाही को आकर्षित नहीं किया जा सकता।
'किहोतो होलोहोन' मामले का जिक्र करते हुए कथित बागी विधायकों के लिए पेश वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे ने कहा कि पार्टी का एक सदस्य सदन के बाहर पार्टी के व्हिप का उल्लंघन करने के लिए स्वतंत्र है।
उन्होंने कहा कि 'किहोतो होलोहोन' मामला यह कहीं नहीं कहता है कि सदन के बाहर व्हिप का उल्लंघन करना आपको अयोग्य ठहराने के लिए उत्तरदायी करेगा।
आगे उनका यह भी कहना है कि, पायलट और अन्य विधायकों को स्पीकर के नोटिस का जवाब देने के लिए केवल 2 दिन का समय दिया गया था, यह इस तथ्य के बावजूद है कि राजस्थान विधानसभा (अयोग्यता) नियम यह कहता है कि ऐसे मामलों में अध्यक्ष को 7 दिनों का नोटिस देना चाहिए।
इस दलील के जवाब में, राजस्थान हाईकोर्ट में स्पीकर की ओर से पेश हो रहे वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. अभिषेक मनु सिंघवी ने यह तर्क दिया है कि प्रक्रिया को विनियमित करना अध्यक्ष का कार्य है।
उन्होंने आगे यह भी कहा कि वैसे भी अब याचिकाकर्ताओं को नोटिस का जवाब देने के लिए 7 दिन का समय मिल गया है, क्योंकि उच्च न्यायालय ने पिछले शुक्रवार (17 जुलाई) को यह कहा था कि 21 जुलाई तक पायलट खेमे के विधायकों के खिलाफ कोई कार्यवाही शुरू नहीं की जानी चाहिए।
कथित बागी विधायकों के लिए पेश वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे ने कहा कि अगर इन विधायकों के खिलाफ शिकायत के आरोपों को सही भी मान लिया जाए, तब भी यह केवल आंतरिक पार्टी के असंतोष का मामला होगा। 10वीं अनुसूची के तहत कोई मामला नहीं है।
उन्होंने कहा कि,
"यह कथन कि हम मुख्यमंत्री की सरकार को नीचे गिराएंगे और अपनी स्वयं की सरकार उसी पार्टी के साथ लाएंगे, असहमति के अधिकार का हिस्सा है। इंट्रा-पार्टी असहमति, हालांकि, तब तक कायम रह सकती है, जब तक कि वह दूसरे पार्टी का समर्थन करने की हद तक न हो जाए।"
याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे और मुकुल रोहतगी ने यह भी दलील दी कि याचिकाकर्ताओं ने कांग्रेस पार्टी की सदस्यता नहीं छोड़ी है। वे पार्टी के भीतर रहकर मुख्यमंत्री के कामकाज के खिलाफ असंतोष व्यक्त कर रहे हैं।
उनकी दलील यह थी कि इंट्रा-पार्टी असहमति (असंतोष) को पार्टी की सदस्यता छोड़ने के रूप में नहीं माना जा सकता। उन्होंने कहा कि स्पीकर के पास संविधान की दसवीं अनुसूची के पैरा 2 (1) (ए) को नोटिस जारी करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है।
दूसरी ओर, अदालत में स्पीकर की तरफ से पेश अधिवक्ता डॉ. सिंघवी ने कहा कि स्पीकर की ओर से कोई फैसला लेने से पहले कोर्ट मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
वहीँ, कांग्रेस चीफ व्हिप कोई ओर से पेश, अधिवक्ता कामत ने यह प्रस्तुत किया कि याचिकाकर्ताओं की तरफ से यह माना जाना चाहिए कि उन्होंने स्वेच्छा से पार्टी को छोड़ दिया है और यह बात उनके आचरण से साबित होती है, जैसे कि सरकार के खिलाफ खुले बयान देना और पार्टी की बैठकों में भाग लेने से इनकार करना।
अंततः राजस्थान हाईकोर्ट ने मंगलवार (21 जुलाई) को सचिन पायलट की अगुवाई में कांग्रेस के बागी विधायकों द्वारा दायर याचिका पर फैसला सुरक्षित रख लिया। मुख्य न्यायाधीश इंद्रजीत महंती और न्यायमूर्ति प्रकाश गुप्ता की पीठ 24 जुलाई को फैसला सुनाएगी।