निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 भाग 13 : बिना प्रतिफल के परक्राम्य लिखत की रचना (धारा 43)

Update: 2021-09-17 05:04 GMT

परक्राम्य लिखत अधिनियम 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881) से संबंधित आलेखों में इससे पूर्व के आलेखों में पक्षकारों के दायित्व से संबंधित प्रावधानों पर प्रकाश डाला गया था, इस आलेख के अंतर्गत बगैर प्रतिफल के परक्राम्य लिखत की रचना से संबंधित प्रावधानों पर टीका किया जा रहा है।

एक परक्राम्य लिखत के भुगतान के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उसमे कोई प्रतिफल हो परन्तु यह आवश्यक है कि जब लिखत की रचना हो तब उसके पीछे न कोई प्रतिफल आवश्यक रूप से होना चाहिए। इस धारा से संबंधित कुछ उदाहरण भी प्रस्तुत किए जा रहे हैं।

'चूँकि किसी परक्राम्य लिखत का रचना, लिखना, प्रतिग्रहीत करना, पृष्ठांकन करना या अन्तरण करना भारतीय संविदा अधिनियम के अधीन संविदा सृजित करता है। अतः इस प्रकार सभी कार्य प्रतिफल से समर्थित होना चाहिए। प्रतिफल के अभाव में अनुबन्ध को न्यूडम पैक्टम (बिना प्रतिफल के) कहा जाएगा, में और अप्रवर्तनीय होगा। अतः प्रत्येक संविदा, अधिनियम की धारा 25 को छोड़कर इसे समर्थित करने के लिए प्रतिफल अपेक्षित करता है। वचन पत्र, विनिमय पत्र या चेक इस सामान्य नियम के अपवाद नहीं होते।

प्रतिफल की अवधारणा परन्तु परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 118 (क) भारतीय संविदा अधिनियम के प्रतिकूल प्रतिफल सम्बन्धी उपधारणा उपबन्धित करती है।

इसके अनुसार-

"यह कि हर एक परक्राम्य लिखत प्रतिफलार्थ रचित, या लिखी गई थी और यह कि हर ऐसी लिखत जब प्रतिग्रहीत, पृष्ठांकित, परक्रामित या अन्तरित हो चुकी हो तब वह प्रतिफलार्थ, प्रतिग्रहीत, पृष्ठांकित, परक्रामित या अन्तरित की गयी थी।"

इस प्रकार की प्रतिफल की उपधारणा अनन्य (absolute) नहीं है, बल्कि खण्डनीय होती है। सामान्य विधि एवं परक्राम्य लिखत अधिनियम में प्रतिफल के प्रश्न पर अन्तर देखने को मिलता है जब कोई वाद इन संविदाओं के अन्तर्गत न्यायालय में वाद लाया जाता है।

सामान्य संविदा के सम्बन्ध में कि संविदा प्रतिफल से समर्थित है, साबित करने की बाध्यता वादी पर होती है, जबकि परक्राम्य लिखत के सम्बन्ध में कि संविदा प्रतिफल से समर्थित नहीं है, को साबित करने का भार प्रतिवादी पर होता है यदि उसने यह बचाव किया है।

संदाय की आबद्धता प्रतिफल से समर्थित होना- धारा 43 का मुख्य प्रावधान दो भागों में अन्तर्विष्ट है।

इस धारा का प्रथम भाग यह कहता है कि एक परक्राम्य लिखत रचित, लिखित प्रतिग्रहीत, पृष्ठांकित या अन्तरित किया गया है:-

(i) प्रतिफल से समर्थित नहीं है अर्थात् बिना प्रतिफल के है, एवं

(ii) प्रतिफल निष्फल हो गया है। धारा का यह भाग यह अपेक्षा करता है कि लिखत के अधीन संदाय की आबद्धता प्रतिफल से समर्थित होना चाहिये। अतः परक्राम्य लिखत में उक्त सभी कार्य जो संदाय की आबद्धता से सम्बन्धित है प्रतिफल से समर्थित नहीं है या प्रतिफल निष्फल हो गया है, प्रवर्तनीय नहीं होगा।

अपवाद- सम्यक् अनुक्रम धारक बिना प्रतिफल के वाद ला सकेगा। धारा 43 का दूसरा भाग कहता है परन्तु यदि कोई पक्षकार प्रतिफल सहित या प्रतिफल रहित किसी सम्यक् अनुक्रम धारक को अन्तरित की जाती है तो ऐसा धारक एवं उससे व्युत्पन्न करने वाला हर पाश्चिक धारक ऐसे लिखत पर शोध्य रकम प्रतिफलार्थ अन्तरक से या उस लिखत के किसी भी पूर्विक पक्षकार से वसूल कर सकेगा।

इस प्रकार एक सम्यक अनुक्रम धारक और उससे व्युत्पन्न करने वाला हर पाश्चिक धारक प्रतिफलार्थ अन्तरक से या उस लिखत के किसी भी पूर्विक पक्षकार से वसूल कर सकेगा।

यदि परक्राम्य लिखत के लिए उसके रचित करने, लिखने, प्रतिग्रहीत करने, पृष्ठांकित करने या अन्तरित करने के पश्चात् निष्फल हो जाता है ऐसी निष्फलता, वही प्रभाव कारित करेगा जैसा कि मूल रूप में इसका अभाव था।

यहाँ पर यह भी उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि प्रतिफल रहित या इसको निष्फलता समीप के पूर्विकवपक्षकारों के बीच होती है और इसे सम्यक अनुक्रम धारक और अन्य पाश्चिक धारक जिसका अधिकार ऐसे धारक से व्युत्पन्न होता है, के विरुद्ध प्रयुक्त नहीं किया जा सकता है।

इस प्रकार दूरस्थ के पक्षकारों (अर्थात् पक्षकार जो प्रत्यक्ष सम्बन्ध में नहीं हैं, उदाहरण के लिये पाने वाला एवं प्रतिग्रहीता, पृष्ठांकन एवं प्रतिग्रहीता, एक पृष्ठांकिती और दूरस्थ के पृष्ठांकितों), यह प्रतिवादी के लिए दिखाना पर्याप्त नहीं होगा कि उसने लिखत के लिये प्रतिफल प्राप्त नहीं किया है, परन्तु वादी यदि इसे साबित करने में सफल हो जाता है कि उसने या कोई समीप के धारक ने लिखत के लिये प्रतिफल दिया है, यद्यपि कि प्रतिवादी ने इसे नहीं प्राप्त किया है।

प्रतिफल की निष्फलता यद्यपि कि यह पूर्ण रूप में हो प्रतिफलार्थ धारक या व्यक्ति जिसने ऐसे व्यक्ति से स्वत्व प्राप्त किया है, के विरुद्ध बचाव नहीं होगा जहाँ कोई पक्षकार जो बिना प्रतिफल के लिखत का धारक बन गया है, लिखत को किसी प्रतिफलार्थ धारक को अन्तरित करता है, ऐसा धारक एवं प्रत्येक पाश्चिक धारक जो ऐसे धारक से स्वत्व प्राप्त करता है, ऐसे लिखत पर शोध्य रकम प्रतिफलार्थ अन्तरिती से या किसी पूर्विक पक्षकार से वसूल करने का अधिकार रखेगा।

उदाहरण-

(1) अ एक लिखत का धारक है। अ इसे ब को बिना प्रतिफल के अन्तरित करता है और उसे ब को परिदत्त कर देता है। लिखत परिपक्वता पर अनादृत हो जाता है। ब लिखत पर अ के विरुद्ध वाद नहीं ला सकेगा।

(2) अ, ब का 5,000 रुपये का ऋणी है। य को संदाय हेतु स से एक विनिमय पत्र 5,000 रुपये वास्ते ब के पक्ष में पाने वाले की हैसियत से लिखने को कहता है। अ विनिमय पत्र को प्रतिग्रहीत करता है, यहाँ पर वर्तमान ऋण लिखत का प्रतिफल है। ब प्रतिफलार्थ धारक है और स पर वाद ला सकेगा यद्यपि कि स ने कोई प्रतिफल प्राप्त नहीं किया है। परन्तु स लिखत में अ पर वाद नहीं ला सकेगा, क्योंकि उनके बीच प्रतिफल विद्यमान नहीं है।

(3) अ एक लिखत का सम्यक अनुक्रम धारक है, वह इसे ब को बिना प्रतिफल के अन्तरित करता है। लिखत परिपक्वता पर अनादृत हो जाता है। ब लिखत पर अ के विरुद्ध वाद ला सकेगा क्योंकि ब एक सम्यक् अनुक्रम धारक से लिखत को प्राप्त करता है, अत: वह सम्यक अनुक्रम धारक के अधिकार को पाता है।

(4) अ. ब पर एक विनिमय पत्र लिखता है। ब ने बिना प्रतिफल के विनिमय पत्र को प्रतिग्रहीत करता है। विनिमय पत्र स को बिना प्रतिफल के अन्तरित की जाती है। स इसे द को प्रतिफलार्थ अन्तरित करता है द इसे य को अन्तरित करता है। ये किसी भी पूर्विक पक्ष पर अ. ब. स या द पर वाद ला सकेगा चाहे प्रतिफलार्थ या बिना प्रतिफलार्थ धारक हो, परन्तु अ, ब, स के बीच कोई कार्यवाही का अधिकार नहीं होगा क्योंकि इनके बीच प्रतिफल नहीं है।

(5) अ एक विनिमय पत्र का धारक है। अ इसे बिना प्रतिफल के ब को, ब बिना प्रतिफल के स को, एवं म प्रतिफल सहित इसे द को अन्तरित करता है। पुनः द इसे बिना प्रतिफल के य को अन्तरित करता है। ब विनिमय पत्र के अन्तर्गत शोध्य रकम को अ. ब. स से वसूल सकेगा उसी तरह जैसे द इसे प्राप्त करने का अधिकारी था यद्यपि कि य ने कोई प्रतिफल नहीं दिया है यद्यपि कि अ ने कुछ प्राप्त नहीं किया है। परन्तु य का द के विरुद्ध कोई अधिकार नहीं होगा।

(6) हॉलीडे बनाम एटकिन्सन के मामले में, प्रतिग्रहीता रचयिता या लेखक द्वारा पाने वाले को जीवित व्यक्तियों के बीच लिखत को दान दिया जाता है, दान पाने वाला, दान देने वाले के विरुद्ध वाद नहीं ला सकेगा। क्योंकि दान बिना प्रतिफल का होता है। परन्तु यह दान सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम के अन्तर्गत एक विधिमान्य संविदा है क्योंकि दान के लिये प्रतिफल अपेक्षित नहीं है।

(7) एक बैंक का मैनेजर बैंक से परक्राम्य प्रतिभूति चुराता है और इसे अ को गिरवी रखता है। यह उसके पश्चात् कपट से इसे अ से प्राप्त करता है और बैंक में पुनः रख देता है बैंक इस संव्यवहार से अनभिज्ञ, बैंक इन प्रतिभूतियों के लिए सम्यक अनुक्रम धारक है और इसे अ के विरुद्ध प्रतिधारित करने का अधिकार रखता है। इसे लन्दन एण्ड सेन्चुरी बैंक बनाम रोमर प्लेट बैंक में निर्धारित किया गया है।

(8) अ एक चेक ब के पक्ष में लिखता है जो इसे स को प्रतिफलार्थ पृष्ठांकित करता है। चेक का अनादर हो गया इस बल पर कि अ ने बैंक को निर्देशित किया था कि य के द्वारा प्रतिफल की आबद्धता असफल हो गया है। जेठामल बनाम हरीदास में यह धारित किया गया है कि बैंक का अन्तरण जो किया गया है इसके अन्तर्गत पक्षकारों के अधिकार धारा 43 से शासित होता है। स चेक का एक सम्यक् अनुक्रम धारक है अतः वह चेक की रकम को अ से प्राप्त कर सकता है।

(9) अ ने कोई माल ब को बेचा। ब ने माल की कीमत के लिए एक चेक अ के पक्ष में लिखा। अ ने चेक स को प्रतिफल के लिए अन्तरित कर दिया। अ ने माल का परिदान ब को नहीं किया। अ चेक के संदाय के लिए ब पर वाद नहीं ला सकता, क्योंकि यहाँ पर प्रतिफल असफल हो हो गया है, परन्तु स से रकम की वसूली कर सकेगा।

धारा 43 के दो अपवाद है-

अपवाद 1 – धारा 43 का प्रथम अपवाद सौकार्य पत्र से सम्बन्धित है। इस अपवाद की शर्तें हैं बहुत से लिखत बिना प्रतिफल के लिखे, प्रतिग्रहीत एवं पृष्ठांकित किये जाते हैं। विनिमय पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले अनेक पक्षकार अपने नाम को उधार (ऋण) देने के प्रयोजन से अपने मित्रों को अनुग्रहित करने के लिये दिया जाता है।

ऐसे लिखत को सौकार्य विनिमय पत्र या वचन पत्र कहा जाता है जिसमें प्रतिफल का अभाव होता है। कोई भी व्यक्ति जो सद्भावनापूर्वक एवं प्रतिफल सहित परिपक्वता के पश्चात् इसका धारक बन जाता है, जो रचित, लिखा या प्रतिग्रहीत किया गया है बिना प्रतिफल के जिससे किसी पक्षकार को उस पर धन लेने के लिए समर्थ बनाया जा सके, वचन पत्र या विनिमय पत्र पर किसी भी पूर्विक पक्षकार पर वाद ला सकेगा।

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