निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 भाग 11 : अभिकरण (एजेंसी) किस प्रकार निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स लिख सकती है (धारा 27)

Update: 2021-09-14 03:30 GMT

परक्राम्य लिखत अधिनियम 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881) जो तीन प्रकार के लिखत विनिमय पत्र, वचन पत्र, और चेक का उल्लेख करता है उनमे इस अधिनियम में लिखत के पक्षकारों और उनकी सक्षमता के साथ ही एक अभिकरण द्वारा लिखत लिखे जाने संबंधी प्रावधान भी उपलब्ध है।

इस आलेख के अंतर्गत इस प्रकार से अभिकरण द्वारा जारी किए जाने वाले लिखत से संबंधित नियमों पर चर्चा की जा रही है जो कि इस अधिनियम की धारा 27 से संबंधित है।

अभिकरण द्वारा निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स-

किसी लिखत के लिखने, प्रतिग्रहीत करने या पृष्ठांकित करने के लिए विधि के अधीन अभिकरण अनुयोज्य है, परन्तु इसे अभिव्यक्तः लिखित अर्थात् पावर ऑफ अटॉर्नी से होना चाहिए यहाँ पर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या एक अवयस्क प्रधान या अभिकर्ता हो सकता है।

इस मुद्दे को विधि के सुसंगत प्रावधानों से स्पष्ट किया जाएगा। परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 27 के अनुसार-

"ऐसा हर व्यक्ति जो अपने को आबद्ध करने के लिए या आबद्ध होने के लिए इस प्रकार समर्थ है जैसा कि धारा 26 में वर्णित है, सम्यक रूप से ऐसे प्राधिकृत अभिकर्ता द्वारा अपने आपको आबद्ध कर सकेगा या आबद्ध हो सकेगा जो उसके नाम में काम कर रहा है।

कारबार संव्यवहत करने और ऋणों को प्राप्त करने और उन्मोचित करने के लिए साधारण प्राधिकार से विनिमय पत्र का ऐसा प्रतिग्रहण या पृष्ठांकन करने की शक्ति अभिकर्ता को प्राप्त नहीं होगी जिससे उसका मालिक आबद्ध हो जाए। विनिमय पत्रों के लिखने के प्राधिकार से स्वतः यह विवक्षित नहीं होता कि उसमें पृष्ठांकन करने का प्राधिकार है।

धारा 26 एवं 27 के संयुक्त अध्ययन से निम्नलिखित स्पष्ट है :-

1.कोई भी व्यक्ति जो किसी कार्य के करने का सामर्थ्य रखता है उसके लिए अभिकर्ता नियुक्ति कर सकेगा।

2. कारबार करने एवं ऋण को प्राप्त करने एवं उन्मोचन का सामान्य प्राधिकार परक्राम्य को लिखतों को लिखने, प्रतिग्रहण करने एवं पृष्ठांकित करने का अधिकार प्रदान नहीं करेगा। इसके लिए विशेष प्राधिकार होना चाहिए।

3. विनिमय पत्र लिखने के अधिकार में उसे प्रतिग्रहीत करने या पृष्ठांकन करने का अधिकार समाहित नहीं होगा। धारा 27 यह स्थापित करती है कि हर व्यक्ति जो वचन पत्र विनिमय पत्र या चेक की रचना, लिखने, प्रतिग्रहण, पृष्ठांकन परिदान या परक्रामण से अपने को बाध्य बनाने या बाध्य करने को समर्थ है, सम्यक् रूप से ऐसे प्राधिकृत अभिकर्ता द्वारा अपने को आबद्ध कर सकेगा या आवद्ध हो सकेगा एक अभिकर्ता जो परक्राम्य लिखत को अपने प्रधान के लिए हस्ताक्षर करता है।

ऐसा निम्नलिखित दो तरह में से किसी तरह से कर सकता है-

(1) अभिकर्ता प्रधान के लिए सामान्य रूप में हस्ताक्षर कर सकता है, या

(2) अभिकर्ता पैरवी करने वाले के रूप में हस्ताक्षर कर सकता है, यह उल्लेख करते हुए कि लिखत को अभिकर्ता के रूप में हस्ताक्षर करता है।

यह वाणिज्यिक विधि का सामान्य सिद्धान्त है कि व्यक्ति फर्म को प्रधान के रूप में परक्राम्य लिखत पर भारित करने के लिए लिखत में मुख्य भाग या पृष्ठ पर प्रधान के रूप में लिखा जाना चाहिए जिससे प्रधान की आबद्धता स्पष्ट दिखाई देनी चाहिए और उसे तुरन्त पहचान किया जा सके जिससे लिखत एक हाथ से दूसरे हाथ अन्तरित हो सके।

प्रधान का नाम इस प्रकार से प्रकट करना चाहिए जिससे व्याख्या से यह स्पष्ट हो सके कि उसका नाम लिखत में वास्तविक रूप में आबद्ध होने का नाम है। धारा 27 का प्रभाव है कि प्रधान केवल अपने अभिकर्ता के माध्यम से लिखत पर आबद्ध होगा जब अभिकर्ता अपने प्रधान के नाम कार्य करता है, अर्थात् जब वह अभिकर्ता के रूप में हस्ताक्षर करता है और यह कि एक अप्रकट प्रधान पर लिखत के अधीन वाद नहीं लाया जा सकता है।

यह आवश्यक है कि लिखत पर अपना हस्ताक्षर करने के समय अभिव्यक्त या विवक्षित रूप में अभिकर्ता के पास प्राधिकार अपने प्रधान की ओर से संविदा करने का होना चाहिए। अभिकर्ता का लिखत को रचित करने, लिखने, प्रतिग्रहीत करने, पृष्ठांकन करने का प्राधिकार अभिकरण के सामान्य सिद्धान्त से शासित होता है।

धारा 27 एवं 28 के सामान्य अध्ययन से यह स्पष्ट है कि एक कारोबार करने एवं ऋणों को उन्मुक्त करने का सामान्य प्राधिकार किसी अभिकर्ता को विनिमय पत्र पर हस्ताक्षर करने जिससे उसका प्रधान आबद्ध हो, प्रदान नहीं करता है। न तो एक अभिकर्ता अपने वैयक्तिक आबद्धता से बच सकता है जब तक कि वह संकेत न करे कि यह अभिकर्ता के रूप में हस्ताक्षर कर रहा है और वैयक्तिक आबद्धता उपगत करने का कोई आशय नहीं होता है।

भागीदार भागीदारों का आपसी सम्बन्ध अभिकरण के सिद्धान्त से शासित होता है। भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 18 के अनुसार फर्म के कारोबार के लिए प्रत्येक भागीदार फर्म का अभिकर्ता होता है। अर्थात् प्रत्येक भागीदार दूसरे भागीदार का प्रतिनिधित्व करता है। प्रत्येक भागीदार दूसरे के लिए फर्म के कारोबार से सम्बन्धित सभी कार्यों के लिए असीमित अभिकर्ता होता है।

वास्तविक रूप में एक भागीदार एक ही साथ प्रधान एवं अभिकर्ता दोनों होता है। एक भागीदार जब अपने कार्यों से दूसरे को बाध्य करता है तो यह अभिकर्ता होता है, परन्तु जब दूसरे भागीदारों के कार्यों से बाध्य होता है तो वह प्रधान होता है।

प्रत्येक भागीदार विधि की भावना में सामान्य एवं स्वीकार्यतः भागीदारी का अभिकर्ता होता है और प्रत्येक भागीदार कोई कार्य करता है जो फर्म के लिए आवश्यक होता है एवं ऐसे कारोबार के सामान्य अनुक्रमों में सामान्य रूप से की जाती है तो अन्य सभी भागीदारों को बाध्य बनाता है।

व्यापारिक कारोबार के सम्बन्ध में एक व्यापारिक फर्म की दशा में प्रत्येक भागीदार प्रथम दृष्टया फर्म के कारोबार के सम्बन्ध में वचन पत्र, विनिमय पत्र या चेक को रचने, लिखने, प्रतिग्रहीत करने, परिदत्त करने, पृष्ठांकन करने, परक्रामित करने का प्राधिकार रखता है।

गैर व्यापारिक कारोबार के सम्बन्ध में गैर-व्यापारिक कारोबार के सम्बन्ध में फर्म के नाम में वचन पत्र, विनिमय पत्र एवं चेक को रचने, लिखने, प्रतिग्रहीत, पृष्ठांकित, परक्रामित करने का विवक्षित प्राधिकार नहीं रखता है। यह फर्म को इन कार्यों से केवल अभिव्यक्त प्राधिकार से ही बाध्य बना सकता है।

किसी फर्म के भागीदार द्वारा एक परक्राम्य लिखत पर हस्ताक्षर से फर्म बाध्य नहीं होगी जब तक यह उसके द्वारा फर्म के नाम से हस्ताक्षर न किया जाय। अतः जहाँ वचन पत्र या विनिमय पत्र एक भागीदार द्वारा फर्म के नाम में हस्ताक्षर किया गया है, यह फर्म को बाध्य करती है और फर्म के सभी भागीदार चाहे कार्यशील, सुषुप्त या गोपनीय भागीदार हों, बाध्य होते हैं इस प्रकार एक वचन पत्र, विनिमय पत्र या चेक फर्म पर बाध्य होने के लिए इसे रचा, लिखा, परिदत्त, प्रतिग्रहीत, पृष्ठांकित या परक्रामित किया जाना चाहिए

1. फर्म के नाम में, या

2. ऐसे ढंग से किया जाना चाहिए जिससे फर्म को बाध्य करने का अभिव्यक्त अथवा विवक्षित आशय प्रकट हो, जैसे फर्म के लिए या वास्ते पदावली का प्रयोग परन्तु जहाँ भागीदार वचन पत्र या विनिमय पत्र को निष्पादित करता है एवं इसे वह फर्म के नाम से या भागीदार के रूप में या फर्म को बाध्य करने के आशय से नहीं, परन्तु स्वयं अपने नाम से करता है, यहाँ फर्म बाध्य नहीं होगी। यद्यपि कि इसे फर्म के लाभ एवं हित के लिए एवं अग्रिम फर्म के संयुक्त खाते में किया गया है। एक वचन पत्र किसी एक भागीदार द्वारा अन्तरित किया गया जो फर्म के नाम में नहीं था, परन्तु उसके व्यक्तिगत हैसियत में या केवल उसी पर बाध्यकारी होगा न कि फर्म के अन्य भागीदारी पर।

हिन्दू संयुक्त परिवार संयुक्त हिन्दू परिवार का कर्ता या प्रबन्धक परिवार के सभी संव्यवहारों में बाहरी व्यक्तियों से प्रतिनिधित्व करता है एवं परिवार की ओर से ऋण लेने का प्राधिकार रखता है एवं इस प्रयोजन के लिए यह परिवार की साख को गिरवी रखने का विवक्षित प्राधिकार रखता है।

इस प्रकार एक वचन पत्र या विनिमय पत्र किसी परिवार के कर्ता या प्रबन्धक द्वारा हस्ताक्षरित होने पर परिवार के प्रयोजन से या परिवार के कारोबार के लिए है परिवार के सभी सदस्यों पर बाध्यकारी होता है और सभी के विरुद्ध प्रवर्तनीय होगा।

इस प्रकार संयुक्त हिन्दू परिवार का प्रबन्धक का अन्य सहदायियों के बीच अभिकर्ता का सम्बन्ध नहीं होता है वह फर्म के समान अभिकर्ता नहीं होता है। अधिनियम की धारा 26 27 एवं 28 के प्रावधान संयुक्त हिन्दू परिवार की दशा में अनुयोज्य नहीं होते है धारा 27 इसे स्पष्ट करती है कि प्रत्येक व्यक्ति जो संविदा करने के लिए समर्थ होता है वह प्रधान एवं अभिकर्ता होने को समर्थ होता है।

पुनः धारा 26 धारा 27 के प्रावधानों के अधीन है। यहाँ पर पुनः यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या एक अवयस्क प्रधान या अभिकर्ता हो सकता है। इसे भारतीय संविदा अधिनियम के अभिकरण सम्बन्धी प्रावधानों से स्पष्ट किया जा सकता है।

कौन अभिकर्ता नियोजित कर सकता है-

भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 183 उपबन्धित करती है कि कोई भी व्यक्ति जो प्राप्तवय एवं स्वस्थवित हो अभिकर्ता नियोजित कर सकेगा। यह उपबन्ध यह स्पष्ट करता है कि एक अवयस्क प्रधान नहीं हो सकता है, अतः अवयस्क अभिकर्ता नियोजित नहीं कर सकेगा।

अभिकर्ता कौन हो सकेगा- भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 184 के अनुसार- "जहाँ तक मालिक और पर व्यक्तियों के बीच का सम्बन्ध है कोई भी व्यक्ति अभिकर्ता हो सकेगा, किन्तु कोई भी व्यक्ति, जो प्राप्तवय और स्वस्थचित्त न हो, अभिकर्ता ऐसे न हो सकेगा कि वह अपने प्रधान के प्रति तन्निमित्त एतस्मिन अन्तर्विष्ट उपबन्धों के अनुसार उत्तरदायी हो।

यह धारा इसे स्पष्ट करती है कि एक अवयस्क एवं विकृतचित का व्यक्ति भी अभिकर्ता हो सकेगा, परन्तु ऐसा व्यक्ति अपने कार्यों के लिए मालिक के प्रति उत्तरदायी नहीं होगा। अतः यह मालिक के ऊपर निर्भर करेगा कि वह एक अवयस्क को अभिकर्ता नियुक्त करे या नहीं। यदि वह एक अवयस्क को नियुक्त करता है वहाँ ऐसा अभिकर्ता अपने कार्यों के लिए मालिक के प्रति आबद्ध नहीं होगा।

अब एक अवयस्क के प्रति अभिकरण लिखत के सम्बन्ध में स्थिति स्पष्ट है कि एक अवयस्क मालिक नहीं हो सकेगा, परन्तु यह अभिकर्ता हो सकेगा, परन्तु ऐसा अवयस्क अभिकर्ता अभिकरण के सम्बन्ध में अपने कार्यों के प्रति कोई दायित्व उपगत नहीं करेगा, यद्यपि वह अभिकर्ता के रूप में प्रतिनिधित्व करेगा।

अभिव्यक्त अभिकरण– धारा 27 का परन्तुक इसे स्पष्ट करता है कि परक्राम्य लिखत के प्रयोजनों के लिए अभिकरण अर्थात् इसे रचने, लिखने प्रतिग्रहीत करने, पृष्ठांकित एवं परक्रामित करने का प्राधिकार अभिव्यक्त रूप में होना चाहिए। कारोबार करने एवं ऋणों को प्राप्त करने एवं उन्मुक्त करने का अभिकर्ता का सामान्य प्राधिकार विनिमय पत्र या वचन पत्र को प्रतिग्रहीत करने, लिखने या पृष्ठांकित करने को सम्मिलित नहीं करता है।

इसका अर्थ यह है कि लिखतों के सम्बन्ध में उक्त कार्यों के लिये अभिकर्ता को अभिव्यक्त प्राधिकार दिया जाना चाहिए यहाँ तक विनिमय पत्र को रचित करने का प्राधिकार उसे पृष्ठांकित करने या परिदत्त करने को सम्मिलित नहीं करेगा।

इस सम्बन्ध में प्रत्येक कार्यों अर्थात् रचित, लिखने, प्रतिग्रहीत, पृष्ठांकित करने के प्राधिकार को पृथक्तः स्पष्ट रूप से दिया जाना चाहिए। यह विवक्षित प्राधिकार नहीं होगा। अभिकरण के कारोबार करने में अभिकर्ता को अभिकरण के तथ्य को स्पष्ट करना आवश्यक होगा। एक अप्रकट मालिक लिखत के अधीन कोई दायित्व उपगत नहीं करता है।निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 भाग 11 : अभिकरण (एजेंसी) किस प्रकार निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स लिख सकती है (धारा 27)

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