एनडीपीएस एक्ट (The Narcotic Drugs And Psychotropic Substances Act,1985) की धारा 8 सरकार द्वारा घोषित किसी भी नशीले पदार्थ के संबंध में सभी गतिविधियों को प्रतिबंधित करती है। इस धारा के तहत घोषित किए गए अपराध साबित होने पर आरोपियों को दंडित किया जाता है।
अनेक मौके ऐसे होते हैं जहां अभियोजन अपराध साबित नहीं कर पाता है। इस आलेख के अंतर्गत ऐसे ही मामलों पर विश्लेषण प्रस्तुत किया जा रहा है।
अपराध अप्रमाणित
स्वापक औषधि और मनःप्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 के अंतर्गत अभियुक्त से जप्त प्रतिषिद्ध वस्तु को रासायनिक परीक्षण के लिए भेजा जाना अप्रमाणित रहा था। अभियुक्त दोषमुक्त किया गया (अम्बाराम बनाम स्टेट ऑफ एम.पी., 2007 (1) के मामले में अभियोजन का कर्तव्य माना गया कि जप्त पदार्थ को बिना विलंब के रासायनिक परीक्षण के लिए भेजे ताकि इसके बिगाड़े जाने की संभावना दूर की जा सके।
वर्तमान मामले में अभियोजन ने जप्त सामग्री का रसायनिक परीक्षण नहीं कराया था। ऐसी स्थिति में मात्र आबकारी विभाग के उप निरीक्षक की साक्ष्य जबकि उसके पास ऐसा कोई प्रमाण पत्र नहीं था कि वह ऐसे मामलों में विशेषज्ञता रखता है, अभियुक्त दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता है।
15 अप्रैल 1996 से 15 मई 1996 के मध्य जब्त गांजा कहां रखा गया था यह स्पष्ट नहीं किया गया। इस विलंब व कमी को दृष्टिगत रखते हुए अभियुक्त को इसका लाभ पाने की पात्रता मानी गई। इस संबंध में उच्चतम न्यायालय के न्याय दृष्टांत् बलसाला बनाम स्टेट ऑफ केरल, एआईआर 1994 सुप्रीम कोर्ट 117 पर निर्भरता व्यक्त की गई। इस संदर्भित मामले में विलंब को स्पष्ट करने में विफलता थी। मामले में 3 माह का विलंब था। वर्तमान मामले में 1 माह का अस्पष्टीकृत विलंब था। अभियुक्त को दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता। इस आशय का अभिमत दिया गया।
किशन बनाम स्टेट ऑफ एमपी, 1999 (2) मप्र लॉ ज 406 म.प्र.) के मामले में अधिनियम की धारा 50 के आदेशात्मक प्रावधानों का पालन होना नहीं पाया गया। साक्षीगण की साक्ष्य विश्वसनीय होना नहीं मानी गई। मुख्य परीक्षण में वस्तु होटल से जब्त होना बताया गया था परंतु प्रतिपरीक्षण में इसे पड़े हुए लोहे के बक्से से जब्त होना बताया गया था।
(2001 क्रि. लॉ ज 1370 राजस्थान) के मामले में अधिनियम की धारा 57 के प्रावधान का अपालन होना पाया गया एक्साइज सब-इंस्पेक्टर ने प्रतिपरीक्षण में यह मंजूर किया था कि उसने उसके वरिष्ठ अधिकारियों को जप्ती व गिरफ्तारी के संबंध में सूचित नहीं किया था सब इंस्पेक्टर का यह कहना था कि वह यह समझता था कि ऐसी जानकारी भेजना आवश्यक नहीं था। उपरोक स्थिति में अधिनियम की धारा 57 के प्रावधान का अपालन होना माना गया।
अधिनियम की धारा 57 यह अपेक्षा करती है कि जब कोई व्यक्ति अधिनियम के अंतर्गत कोई गिरफ्तारी अथवा जप्ती करता है तो वह 48 घंटे के भीतर वरिष्ठ अधिकारी को गिरफ्तारी अथवा जप्ती के ब्यौरों की पूर्ण रिपोर्ट देगा। यदि इस प्रावधान का अपालन किया जाता है तो मामले के अन्वेषण में गंभीर दुर्बलता होना मानी जाएगी। अपराध अप्रमाणित माना गया।
जप्त गांजा का न तो वजन नहीं लिया गया न कोई वजन पंचनामा तैयार नहीं किया गया। वजन के अभाव में यह ज्ञात करना संभव नहीं माना गया कि अभियुक्त अल्प मात्रा के आधिपत्य में अथवा अन्य मात्रा के आधिपत्य में था गाँजे का वजन मात्र अनुमान से लिखा गया था। अभियुक्त दोषमुक्त कर दिया गया। यह मामला हल्कू बनाम स्टेट ऑफ एम.पी., 2009 क्रि. लॉ रि. 241 म.प्र. का है।
सनत कुमार बनाम स्टेट ऑफ एमपी, 2005 क्रि. लॉ ज. 2272 मप्र के मामले में विचारण न्यायालय ने अभियुक्त को अधिनियम की धारा 8/22 के तहत दोषसिद्ध किया था। इस संबंध में इस पर 10 वर्ष का सश्रम निरोध व 1,00,000 रुपए जुर्माना अधिरोपित किया गया था। अपीलांट अभियुक्त ने दोषसिद्धि को इस आधार पर चुनौती दी थी कि अधिनियम की धारा 42, 60, 62 एवं 67 के आदेशात्मक प्रावधानों का पालन नहीं किया गया था। उच्च न्यायालय ने व्यक्त किया कि इस संबंध में अभियुक्त के अधिवक्ता द्वारा लगाया गया आरोप उचित होना पाया जाता है।
स्टेशन हाउस ऑफीसर अभियोजन साक्षी 1 ने यह बताया था कि उसने अभियुक्त को राजपत्रित अधिकारी अथवा मजिस्ट्रेट के समक्ष तलाशी करने के उसके अधिकार बाबत अवगत करा दिया था। एसडीओपी अभियोजन साक्षी 6 ने यह नहीं बताया था कि उसने अभियुक्त को मजिस्ट्रेट अथवा राजपत्रित अधिकारी द्वारा तलाशी करवाने के अभियुक्त के अधिकार को अभियुक्त को बता दिया था एसडीओपी अभियोजन साक्षी 6 ने यह बताया था कि उससे यह कहा गया था कि वह एक राजपत्रित अधिकारी है और वह तलाशी या तो स्टेशन हाउस अफसर को दे सकता है अथवा राजपत्रित अधिकारी को दे सकता है।
उपरोक्त कथित खंडन के आधार पर यह स्पष्ट था कि अभियोजन युक्तियुक्त संदेह से परे यह प्रमाणित करने में विफल रहा था कि अभियुक्त को राजपत्रित अधिकारी अथवा नजदीकी मजिस्ट्रेट के द्वारा तलाशी करवाए जाने के अधिकार बाबत अवगत कराया गया था। स्टेशन हाउस ऑफीसर अभियोजन साक्षी 1 ने बताया था कि उसने रोजनामचा में गोपनीय सूचना अभिलिखित की थी व गोपनीय सूचना को आरक्षक के माध्यम से एसडीओपी आगर को भेजा गया था। इसके उपरांत एसडीओपी आगर पुलिस स्टेशन पर आ गया था।
मामले में अभियोजन ने उस आरक्षक का परीक्षण नहीं कराया था जिसने कि पुलिस स्टेशन से एस की ओ पी - आगर के लिए गोपनीय सूचना प्राप्त की थी। एस.डी.ओ. पी. ने भी यह नहीं बताया था कि उसने आरक्षक के माध्यम से सूचना प्राप्त हुई थी। इसके विपरीत उसने बताया था कि स्टेशन हाउस ऑफीसर के द्वारा उसे टेलीफोन पर अवगत कराया गया था कि अभियुक्त के बाबत गोपनीय सूचना प्राप्त हुई थी। इस प्रकार यह प्रमाणित होना नहीं माना गया कि स्टेशन हाउस ऑफीसर अ.सा. 1 ने आरक्षक के माध्यम से वरिष्ठ प्राधिकारियों को सूचित किया था।
इस प्रकार अधिनियम की धारा 42 का पालन भी संदेहास्पद माना गया। यह भी स्पष्ट किया गया कि अभियोजन ने यह दर्शित करने के लिए कोई साक्षी अथवा दस्तावेजी साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की थी कि अभियुक्त की गिरफ्तारी के उपरांत उसके आधिपत्य से स्मैक की बरामदगी के संबंध में अधिनियम की धारा 57 में यथाप्रावधानित अनुसार सूचना को वरिष्ठ प्राधिकारियों को भेजी गई थी। स्टेशन हाउस ऑफीसर अ.सा. 1 ने अधिनियम की धारा 57 के पालन के संबंध में एक शब्द भी नहीं बताया था। इस प्रकार अधिनियम की धारा 57 के प्रावधानों का भी अपालन होना पाया गया।
स्टेशन हाउस ऑफीसर असा 1 ने बताया था कि जप्त प्रतिषिद्ध वस्तु को नमूनों के साथ पुलिस स्टेशन के मालखाना में रखा गया था। अभियोजन ने मालखाना के मुख्य आरक्षक को यह प्रमाणित करने के लिए परीक्षित नहीं कराया था कि इसे सुरक्षित अभिरक्षा में रखा गया था। मालखाना रजिस्टर की प्रतिलिपि भी प्रस्तुत नहीं की गई थी। अभियोजन ने उस आरक्षक का परीक्षण भी नहीं कराया था जिसने कि पुलिस स्टेशन से फोरेंसिक साइंस लेबोटरी इंदौर के लिए नमूना प्राप्त किया था।
यह दर्शित करने की कोई साक्ष्य नहीं थी कि फोरेंसिक साइंस लेबोटरी को नमूना भेजने के पूर्व इसे पुलिस स्टेशन में सुरक्षित अभिरक्षा में रखा गया था एवं नमूना अविकल व सीलयुक्त बना रहा था। मध्यप्रदेश हाई कोर्ट ने स्वापक औषधि अधिनियम के तहत होने वाले गंभीर दंडादेश को दृष्टिगत रखते हुए यह व्यक्त किया कि अधिनियम की धारा 42, 50, 52, 55 एवं 57 के प्रावधान का उल्लंघन जप्ती की सत्यता एवं उचितता पर संदेह उत्पन्न करता है। अधिनियम की धारा 42,50,52, 55 एवं 57 के प्रावधान के अपालन के आधार पर तलाशी व जप्ती दूषित होना मानी गई। अभियुक्त की दोषसिद्धि स्थिर रखने योग्य नहीं मानी गई।
विष्णु बनाम स्टेट ऑफ एम.पी., 1998 (1) जे.एल.जे. 70:1998 (1) म.प्र. लॉ ज. 325 म.प्र) के मामले में साक्ष्य का मूल्यांकन किया गया। अन्वेषण अधिकारी ने टिन सील किए जाने के संबंध में अथवा सील की नामशैली ( nomenclature) के संबंध में कुछ भी नहीं बताया था। अन्वेषण अधिकारी ने इस जानकारी के प्राप्त होने के उपरांत कि अभियुक्त चरस का विक्रय कर रहा था उसके वरिष्ठ अधिकारी को कोई रिपोर्ट नहीं दी थी।
इस मामले में अन्वेषण अधिकारी ने कोई लिखित रिपोर्ट के पूर्व ही छापे को डाला था। अन्वेषण अधिकारी ने जानकारी, छापा एवं बरामदगी के संबंध में मात्र एक ही रिपोर्ट की थी जो कि बाद में प्रथम सूचना रिपोर्ट का आधार हुई थी। इस प्रक्रियात्मक दुर्बलता को गंभीर स्वरूप का माना गया। अभियुक्त को संदेह का लाभ देकर दोषमुक्त कर दिया गया।
हरिगोपाल मोरी बनाम स्टेट ऑफ एमपी, आईएलआर 2011 के मामले में अभियुक्त को उस दशा में ही सिद्ध किया जा सकेगा जबकि युक्तियुक्त संदेह से परे यह प्रमाणित किया गया हो कि विश्लेतित किया नमूना एक प्रतिनिधिक नमूना था। मामले में ऐसा होना नहीं पाया गया। अपराध अप्रमाणित होना माना गया।
अभियुक्त के विरुद्ध लांछन यह था कि उसके द्वारा माल के लोडर को डुप्लीकेट टेग उपलब्ध कराने में सहायता पहुंचायी थी। मामले मे माल का लोडर फरार होना पाया गया। इन गों में मेड्रेक्स गोलियाँ होना पायी गयी थी किसी भी यात्री ने इन बैगों पर आधिपत्य होने का दावा नहीं किया था।
अभियुक्त का कस्टम अधिनियम, 1962 की धारा 108 का कथन इस आशय का था कि हालांकि उसे बैग की अन्तर्वस्तु के बाबत संदेह था परन्तु फिर भी उसने टेग उपलब्ध कराए थे। इस कथन का निर्वाचन इस रूप में नहीं किया जा सकता है कि अभियुक्त को इन बैगों की अन्तर्वस्तु के बाबत भानपूर्वक जानकारी थी। अभियुक्त के विरुद्ध अपराध अप्रमाणित माना गया।
स्टेट बनाम घनश्याम, 2008 (3) क्राइम्स 152 म.प्र. के मामले में अभियुक्त के आधिपत्य से भारी मात्रा में अफीम की बरामदगी बाबत प्रमाण था। पुलिस पार्टी के साथ जाने वाले दो स्वतंत्र साक्षीगण पक्षद्रोही हो गए थे। हालांकि पंचनामा पर उन्होंने उनके हस्ताक्षर होना मंजूर किया था। पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट फोरेंसिक साइंस लेबोट्री से समर्थित होना पायी गयी। इसके अलावा तलाशी व जप्ती संबंधी कागजातों से समर्थित होना पायी गयी जो कि बिना विलंब के थे। अपराध प्रमाणित माना गया।
एक अन्य मामले में प्रतिषिद्ध वस्तु ले जाने वाले वाहन के स्वामी को अभियुक्त के रूप में न जोड़ना अभियोजन की गंभीर लचरता मानी गयी। इस लचरता को दृष्टिगत रखते हुए अभियोजन इस स्टोरी पर विश्वास करने से अनिच्छा व्यक्त की गयी कि यह अपीलाट अभियुक्त ही था जो कि प्रतिषिद्ध वस्तुं ले जाने वाले वाहन को चला रहा था। अभियुक्त दोषमुक्त किया गया।
मधुनाथ बनाम स्टेट ऑफ एमपी, 1990 (2) म.प्र.वी. नो. 110 म.प्र के मामले में अभियुक्त का अधिनियम की धारा 8/18 के तहत अभियोजन किया गया था। मामले में अन्य कमी के अलावा अधिनियम की धारा 57 के पालन के बाबत कोई साक्ष्य नहीं थी। इस बाबत साक्ष्य अभाव था कि असा 3 ने अधिनियम की धारा 57 के आदेशात्मक अपेक्षा के अनुसार उसके वरिष्ठ अधिकारी को गिरफ्तारी अथवा जब्ती के संबंध में तत्काल पूर्ण रिपोर्ट दी थी। अभियुक्त को दोषी माने जाने से अनिच्छा व्यक्त की गई।
मुनीर बनाम स्टेट ऑफ यू.पी., 2010 के मामले में प्रतिषिद्ध वस्तु को पॉलिथिन में 4 पुड़ियों में रखा जाना बताया गया था। अभियोजन ने कहीं भी यह नहीं दर्शाया था कि फोरेंसिक रिपोर्ट के लिए नमूना भेजे जाने के पूर्व संपूर्ण सामग्री को मिलाया गया था और इसमें शेष नमूना भेजा गया था। दोषमुक्ति का मामला माना गया।
स्टेट ऑफ राजस्थान बनाम गुरमेल सिंह, 2005 क्रि. लॉज 1746 सुप्रीम कोर्ट के मामले में अभियुक्त को अधिनियम की धारा 15 के तहत दोषी होना माना गया था। इस संबंध में 10 वर्ष के सश्रम निरोध व 1,00,000 रुपए जुर्माने से दंडित किया गया था। उच्च न्यायालय में अभियुक्त ने अपील प्रस्तुत की थी जिसे मंजूर कर लिया गया था और विचारण न्यायालय के दोषसिद्धि के निर्णय व दंडादेश को अपास्त कर दिया गया था। शासन के द्वारा इसके विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की गई। उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय का परिशीलन किया गया।
उब न्यायालय के द्वारा अभिलिखित कारणों के द्वारा उचतम न्यायालय ने पाया कि अभियोजन के द्वारा प्रस्तुत लिंक साक्ष्य संतोषप्रद नहीं थी जप्त वस्तुएँ यद्यपि 20 मई, 1995 को मालखाना में रखी गई थीं यह प्रमाणित करने के लिए मालखाना रजिस्टर को प्रस्तुत नहीं किया गया था।
अन्यथा यह पाया गया कि एक्साइज लेबोटरी जोधपुर को नमूने के साथ सील का नमूना नहीं भेजा गया था। संतोषप्रद तौर पर यह प्रमाणित करने के लिए कोई साक्ष्य नहीं थी कि पाई जाने वाली सीलें वस्तुतः वही समान सीलें थीं जो कि प्रतिषिद्ध वस्तु की जप्ती के तत्काल उपरांत नमूने की बोतलों पर लगाई गई थीं। दोषमुक्ति किया जाना उचित माना गया।
स्टेट ऑफ राजस्थान बनाम गुरमेल सिंह, 2005 क्रि. लॉज. 1746 सुप्रीम कोर्ट के मामले में अभियुक्त के विरुद्ध अधिनियम की धारा 8/18 के तहत मामला था। साक्ष्य का मूल्यांकन किया गया। विचारण न्यायालय ने इस मामले में अभियुक्त को अधिनियम की धारा 8/18 के तहत दोषसिद्ध किया गया था। उसके आधिपत्य से 7.200 किलोग्राम अफीम का आधिपत्य होना पाया गया था। अपील प्रस्तुत किए जाने पर यह तर्क दिया गया कि अधिनियम की धारा 42 व 50 के आदेशात्मक प्रावधानों का पालन नहीं किया गया था।
पंचनामा में यथावर्णित अनुसार तलाशी होना प्रमाणित नहीं हुआ था। तलाशी धारा 50 में वर्णित अधिकारियों की उपस्थिति में नहीं हुई थी। अभियुक्त को इस बाबत् अवसर नहीं दिया गया था कि क्या वह तलाशी देना चाहता है। इन परिस्थितियों में अभियुक्त के विरुद्ध अपराध अप्रमाणित माना गया।