एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 16: एनडीपीएस एक्ट के तहत प्रतिबंधित पदार्थो का सेवन करने पर दंड का प्रावधान

Update: 2023-11-11 06:15 GMT

एनडीपीएस एक्ट (The Narcotic Drugs And Psychotropic Substances Act,1985) की धारा 27 प्रतिबंधित पदार्थो के सेवन पर दंड का प्रावधान करती है। जैसा कि पूर्व में यह स्पष्ट किया गया है कि यह अधिनियम वाणिज्यिक मात्रा से अधिक मात्रा जप्त होने पर अधिक दंड का प्रावधान करता है, किसी प्रतिबंधित पदार्थ का सेवन करने वाला इस अधिनियम की दृष्टि में एक प्रकार का पीड़ित है हालांकि उसे पीड़ित मानकर दंड से छूट नहीं दी गई है उस पर भी एक निश्चित दंड है लेकिन अवधि कम है। इस आलेख में धारा 27 पर विमर्श किया जा रहा है।

यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है

धारा 27 किसी स्वापक औषधि या मनः प्रभावी पदार्थ के उपभोग के लिए दंड - जो कोई, किसी स्वापक औषधि या मनःप्रभावी पदार्थ का उपभोग करता है, वह-

(क) जहां ऐसी स्वापक औषधि या मनःप्रभावी पदार्थ, जिसका उपभोग किया गया है, कोकेन, मार्फिन, डाइऐसीटल मार्फिन या ऐसी कोई अन्य स्वापक औषधि या ऐसा कोई मनःप्रभावी पदार्थ है, जो, केन्द्रीय सरकार द्वारा, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, इस निमित्त विनिर्दिष्ट किया जाए, वहां, कठोर कारावास से, जिसकी अवधि एक वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, जो बीस हजार रुपए तक का हो सकेगा, या दोनों से; और

(ख) जहां उपखंड (क) में विनिर्दिष्ट से भिन्न स्वापक औषधि या मनःप्रभावी पदार्थ का उपभोग किया गया है, वहां, कारावास से, जिसकी अवधि छह मास तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, जो दस हजार रुपए तक का हो सकेगा, अथवा दोनों से, दंडनीय होगा।

इस धारा में एनडीपीएस (संशोधन) अधिनियम, 2001 (क्रमांक 9 वर्ष 2001) के द्वारा संशोधन किया गया है। इस संशोधन को दिनांक 2-10-2001 से प्रभावी किया गया है।

मगन बनाम स्टेट ऑफ एम.पी., 1989 (1) म.प्र.वी. नो. 187 म.प्र के मामले में चार्जशीट के अनुसार भी प्रतिषिद्ध वस्तु का वजन होना नहीं पाया गया। यह नहीं कहा जा सकता कि अभियोजन के द्वारा प्रतिषिद्ध वस्तु का सही वजन दिया गया था। परिणामतः इन परिस्थितियों में यह सुरक्षापूर्वक अनुमान निकाला जा सकता है कि अधिनियम की धारा 27 में यथापरिभाषित अल्प मात्रा का ही मामला था।

ब्राउन सुगर केनेबिस (Cannabis) का उत्पाद नहीं

एक मामले अधिनियम की धारा 20 के तहत की गई दोषसिद्धि की विधिमान्यता पर विचार किया गया। यह अभिमत देते हुए कि ब्राउन सुगर केनेबिस (Cannabis) का उत्पाद नहीं होता है। अधिनियम की धारा 20 के तहत दोषमुक्ति की गयी। हालांकि अभियुक्त के कृत्य को धारा 27 के तहत होना पुष्ट किया गया। इस अपराध के लिए पूर्व में व्यतीत निरोध की अवधि जो कि 1 वर्ष से अधिक की थी के रूप में दंडादेश दिया जाना समुचित माना गया।

अफीम का मामला

पीपी वीरन बनाम स्टेट ऑफ केरल, 2001 क्रिलॉज 3281:2001 (3) क्राइम्स 171: एआईआर 2001 सुप्रीम कोर्ट: 2001 अफीम का मामला था। अभियुक्त के आधिपत्य से 23.5 ग्राम अफीम बरामद की गई थी। इसे निजी उपभोग के लिए होने का अभिवाक् अभियुक्त ने बरामदगी अधिकारी से कहा था। इसे साक्ष्य के रूप में उपयोगित नहीं किया जा सकता। मामले में अभियुक्त ने विचारण के दौरान ऐसी कोई प्रतिरक्षा नहीं ली थी। हालांकि न्यायहित में अभियुक्त को अधिनियम की धारा 27 के अभिवाक् को लेने के लिए अवसर उपलब्ध कराया गया।

बद्रीनारायण बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान, 2006 (2) क्राइम्स 491 राजस्थान के मामले में साक्ष्य का मूल्यांकन किया गया। प्रतिषिद्ध वस्तु अफीम के आधिपत्य में संदेह से परे अपीलांट पाया गया था। यह स्पष्ट किया गया कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के तहत की जानकारी को अधिनियम की धारा 42 (1) के तहत की गई जानकारी के रूप में नहीं समझा जाना चाहिए और परिणामतः इसकी जानकारी वरिष्ठ अधिकारी को भेजे जाने की आवश्यकता नहीं है।

यह भी स्पष्ट किया गया कि धारा 53 के तहत सशक्त अधिकारी के द्वारा गिरफ्तारी के उप अधिनियम की धारा 65 के प्रावधान आकर्षित होना नहीं माने गए दुरानन्द बनाम धीर सेक्रेट्री गोवा, एआईआर 1989 सुप्रीम कोर्ट 1966:1990 (1) म.प्र.वी.नो 86 के मामले में यदि कोई व्यक्ति एनडीपीएस की अल्प मात्रा के आधिपत्य में भी होना पाया जाता है तो यह प्रमाणित करने का भार उस पर होगा कि यह विक्रय अथवा वितरण के लिए आशयित नहीं था अपितु उसके स्वयं के उपभोग के लिए आशक्ति था। एक मामले में अभियुक्त के आधिपत्य में पाया जाने वाला पदार्थ विक्रय अथवा वितरण के लिए नहीं था, अपितु निजी उपभोग के लिए था, यह प्रमाणित करने का भार अभियुक्त पर माना गया।

गाउंटर एडविन किरचर बनाम स्टेट ऑफ गोवा, 1993 (2) म.प्र.वी. नो. 30 सुप्रीम कोर्ट के मामले में अभियुक्त विदेशी टूरिस्ट था प्रतिषिद्ध पदार्थ अभियुक्त के निजी उपभोग के लिए होना आशयित माना गया। हाईकोर्ट ने व्यक्त किया कि हम इस बात से इस बाबत सजग है कि एनडीपीएस संबंधित मामलों को कठोरता से व्यवहृत किया जाना चाहिए परंतु अधिनियम की धारा 27 के प्रावधान के विचार से यह अभिनिर्धारित किए जाने में असमर्थतता व्यक्त की गई कि अभियुक्त के आधिपत्य से बरामद अल्प मात्रा उसके निजी उपभोग के लिए आशयित नहीं थी और इसके बजाए यह विक्रय अथवा वितरण के लिए आशयित थी।

परिणामतः अभियुक्त के कृत्य मात्र अधिनियम की धारा 27 के तहत माना गया। एक मामले में अधिनियम की धारा 27 की अभिरक्षा की प्रतिरक्षा उपलब्ध होना पाई गई। अभियुक्त से जब्त अफीम की मात्रा मात्र 23.5 ग्राम थी। यह अभियुक्त के निजी उपभोग के लिए आशयित होना बताई गई थी। इस मामले में अभियुक्त के अधिवक्ता ने विचारण न्यायालय में प्रतिरक्षा नहीं ली थी। अधिनियम की धारा 27 के प्रावधान के आधार पर कम दंडादेश हासिल करने के लिए अवसर प्रदान किया गया।

राजू उर्फ सताम बनाम स्टेट ऑफ केरल, एआईआर 1999 सुप्रीम कोर्ट 2139:1999 के मामले में अभियुक्त के आधिपत्य से ब्राउन सुगर जब्त हुई थी। अधिनियम के तहत अभियुक्त का अभियोजन किया गया था। अभियुक्त ने निजी उपभोग के लिए जब्त ब्राउन सुगर होने की प्रतिरक्षा ली थी। प्रतिरक्षा को इस आधार पर अमान्य नही किया जा सकता कि अभियुक्त में अपेक्षित लक्षण दर्शित नहीं हुए थे।

गाउंटर एडविन किरचर बनाम स्टेट ऑफ गोवा, 1993 के ही मामले में कृत्य धारा 20 (ख) (ii) के बजाए अधिनियम की धारा 27 के तहत मामले में अभियुक्त ने सामान्य तौर पर इंकारी का अभिवाक् लिया था परंतु दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा परीक्षण किए जाने पर यह प्रकट हुआ था कि इस आशय का अभिवाकू था कि प्रतिषिद्ध पदार्थ अभियुक्त के निजी उपभोग के लिए आशयित था। विचारण न्यायालय के निर्णय में यह पाया गया कि अभियुक्त ने एक आवेदन इस आशय का दिया था कि उससे बरामद पीस 5 ग्राम से कम था न कि 12 ग्राम था जैसा कि बताया गया था।

इस आवेदन को अभियुक्त स्वयं के द्वारा लिखा गया था व हस्ताक्षरित किया गया था। अभियोजन स्वयं के मामले से यह दर्शित था कि अभियुक्त के पास पदार्थ पाउच के रूप में व चिलम (स्मोकिंग पाइप) व स्मोकिंग सामग्री के साथ था। अभियुक्त के द्वारा आवेदन में दर्शित विवरण से यह प्रकट होना पाया गया कि प्रतिषिद्ध पदार्थ अभियुक्त के निजी उपभोग के लिए आशयित था। परिणामतः अभियुक्त के कृत्य को अधिनियम की धारा 20 (ख) (ii) के बजाए अधिनियम की धारा 27 के तहत माना गया। इस ही मामले में अभियुक्त के आधिपत्य में 5 व 7 ग्राम के दो टुकड़े होना पाए गए थे।

इस आशय का अभियोजन का मामला था। मामले में रासायनिक परीक्षण संबंधी साक्ष्य का अवलोकन किया गया। रासायनिक परीक्षण के लिए जो टुकड़ा भेजा गया था उसका वजन 5 ग्राम से कम होना पाया गया। इस टुकड़े को रासायनिक परीक्षण में चरस होना पाया गया था। परंतु अन्य टुकड़े को रासायनिक परीक्षण के लिए भेजा ही नहीं गया। ऐसी स्थिति में रासायनिक परीक्षण के लिए न भेजे गए टुकड़े को चरस होना नहीं माना जा सकता है।

परिणामतः अभियुक्त के कृत्य को अधिनियम की धारा 20(ख) (ii) के अधीन न माना जाकर अधिनियम की धारा 27 मात्र के अधीन माना गया। एक हेरोइन जप्ती का मामला था। 500 मिलीग्राम मात्र की मात्रा दो सिगरेट में होना पाई गई थी। अभियुक्त को अधिनियम की धारा 8/21 के तहत दोषसिद्ध नहीं किया गया, अपितु यह मानते हुए कि यह अल्प मात्रा अभियुक्त के निजी उपभोग के लिए मान्य कर उसे अधिनियम की धारा 27 के तहत दोषसिद्ध किया गया।

भोलादेवी बनाम स्टेट, 1999 के मामले में दंडादेश के निलंबन की स्थिति स्पष्ट की गई। इस संबंध में अधिनियम की धारा 32क के प्रावधानों पर निर्भरता व्यक्त की गई अधिनियम की धारा 27 के सिवाय दंडादेश को निलंबित न किए जाने के बाबत अधिनियम की धारा 32क का प्रावधान है।

मगन बनाम स्टेट ऑफ एम.पी 1989 क्रिलॉज 15:1989 के मामले में यदि प्रतिषिद्ध वस्तु का वजन न दर्शाया हो और न इसका वजन किया गया हो तो यह माना जाएगा कि अल्प मात्रा में ही इसकी जब्ती हुई थी। ऐसी स्थिति में अभियुक्त को अधिनियम की धारा 27 के तहत 6 माह के सश्रम कारावास से दण्डित किया जाना समुचित माना गया। अभियुक्त के आधिपत्य से 2.800 ग्राम ब्राउन शुगर, हेरोइन प्राप्त हुई थी। इसे अल्प मात्रा की कोटि में माना गया। परिणामतः अधिनियम की धारा 8 सहपठित धारा 21 (क) के तहत 6 माह का सश्रम निरोध व 10,000 रुपए जुर्माना समुचित दंडादेश माना गया।

स्टेट ऑफ राजस्थान बनाम भंवरलाल, 2010 (13) 779: एआईआर 2000 सुप्रीम कोर्ट के मामले में 25 ग्राम से कम अफीम की जप्ती अभियुक्त से हुई थी। अभियुक्त का मामला अधिनियम की धारा 27 के प्रावधान से आच्छादित होना माना गया। अभियुक्त को पूर्व में व्यतीत निरोध की अवधि के दंडादेश के रूप में दंडादेश घटा दिया गया। इस मामले में अभियुक्त के द्वारा पूर्व में ही 2 वर्ष 7 माह का निरोध भुगता जा चुका था।

राजू बनाम स्टेट ऑफ केरल, 2000 (1) म.प्र.वी. नो. 74 सुप्रीम कोर्ट के मामले में अभियोजन के द्वारा इस बाबत कोई साक्ष्य नहीं दी गई थी कि अभियुक्त आदतन व्यक्ति था अथवा वह नियमित तौर पर ब्राउन शुगर को ले रहा था। ऐसी स्थिति में अभियुक्त की प्रतिरक्षा को इस आधार पर निरस्त करना उचित नहीं होगा कि विचारण के दौरान अभियुक्त अभिरक्षा में था और वह ब्राउनशुगर को नहीं ले सकता था। अभियुक्त को अधिनियम की धारा 27 मात्र के अधीन दोषी होना माना गया।

इस अपराध में एक वर्ष का निरोध व 50,000 रुपए की शास्ति अधिरोपित की गई। एक अन्य मामले में अभियुक्त का कृत्य निजी उपभोग के तहत प्रतिषेधित वस्तु के आधिपत्य के होने के रुप में माना गया था। 1 वर्ष का सश्रम निरोध समुचित माना गया। गाउंटर एडविन किरचर के मामले में अभियुक्त के आधिपत्य से बरामद दोनों टुकड़ों का रासायनिक परीक्षण नहीं हुआ था, अपितु मात्र एक टुकड़े का रासायनिक परीक्षण हुआ था।

परिणामतः अभियुक्त के कृत्य को अधिनियम की धारा 20 (ख) (ii) के अधीन न माना जाकर मात्र अधिनियम की धारा 27 के तहत होना माना गया था। अधिनियम की धारा 27 के अपराध में अभियुक्त पर 6 माह का सश्रम निरोध व 1,00,000 रुपए जुर्माना अधिरोपित किया गया। जुर्माना भुगतान करने में चूक किए जाने पर 6 माह का अन्यथा सश्रम निरोध भुगतने का निर्णय दिया गया।

दुरानन्द बनाम चीफ सेक्रेट्री गोवा, एआईआर 1989 सुप्रीम कोर्ट 1966-1990 के मामले में अभियुक्त के आधिपत्य से निम्न पदार्थ बरामद हुए थे-

51 ग्राम ब्राउन सुगर

45 ग्राम गाँजा

55 ग्राम अफीम

उपरोक्त स्थिति पर विचार किया गया। यह नहीं कहा जा सकता था कि अभियुक्त के आधिपत्य से ऐसी अल्प मात्रा में प्रतिषिद्ध वस्तु प्राप्त हुई थी जिसके आधार पर अभियुक्त को अधिनियम की धारा 27 (क) के तहत होना मान लिया जाए। परिणामतः अभियुक्त पर न्यूनतम दण्डादेश अधिरोपित किया गया।

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