जानिए मजिस्ट्रेट द्वारा अभियुक्तों को मुकदमे में हाजिरी से कब मिल सकती है छूट
भारत की न्यायालयीन प्रक्रिया जिसमें दंड प्रणाली भी है, यह एक लंबी और विषाद प्रक्रिया है। किसी भी व्यक्ति को न्याय देने तथा अपराधी को दंडित किए जाने की इस विषाद और लंबी प्रक्रिया से गुजरना होता है। हालांकि यह प्रक्रिया न्याय के मूल लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए इतनी विषाद और लंबी रखी गयी है। यदि त्वरित न्याय पर विचार किया जाने लगे तो इस प्रकार के मामलों में न्याय के स्थान पर अभियुक्त के साथ अन्याय भी हो सकता है। दंड प्रणाली अभियुक्त तथा अभियोजन पक्ष दोनों के साथ न्याय का लक्ष्य निर्धारित करती है। भारतीय दंड प्रणाली का अर्थ बदला लेना नहीं अपितु न्याय देना है।
इस लंबी जांच और विचारण में अभियुक्त को समय-समय पर न्यायालय में उपस्थित होना होता है। न्यायालय किसी भी मुकदमे को लंबे समय तक चलाता है तथा समय-समय पर किसी एक मुकदमे में भिन्न-भिन्न कार्यवाही हुआ करती हैं। अभियुक्त को यदि वह ज़मानत पर छूटा हुआ है या फिर जेल में निरूद्ध है, दोनों ही परिस्थितियों में न्यायालय में व्यक्तिगत तौर पर हाजिरी देना होती है।
कभी किसी अभियोजन पक्ष द्वारा मामले में उचित साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर पाने के कारण अभियुक्त को दोषमुक्त कर दिया जाता है। ऐसी परिस्थिति में यदि कोई व्यक्ति दोषी नहीं है और उसे न्यायालय के चक्कर लगवाए गए तो यह उस व्यक्ति के साथ अन्याय ही होगा। इस समस्या से निपटने हेतु दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत अभियुक्त को व्यक्तिगत हाजिरी से अभिमुक्ति दिए जाने का प्रावधान किया गया है।
जब कभी किसी व्यक्ति को किसी अभियोजन में अभियुक्त बनाया जाता है तो उस व्यक्ति को अभियोजन में जांच और विचारण के प्रक्रम में व्यक्तिगत हाजिरी से अभिमुक्ति मजिस्ट्रेट द्वारा दी जा सकती है। दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत इस हेतु प्रावधान किए गए हैं जो इस लेख में वाद सहित विस्तारपूर्वक वर्णित किए जा रहे हैं।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 205
दंड प्रक्रिया संहिता की इस धारा के शब्दों के अनुसार जब कभी कोई मजिस्ट्रेट समन जारी करता है, तब यदि उसे ऐसा करने का कारण प्रतीत होता है तो वह अभियुक्त को व्यक्तिगत हाजिरी से अभिमुक्त कर सकता है और अपने प्लीडर द्वारा हाजिर होने की अनुज्ञा दे सकता है।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 205 की उपधारा (1) मजिस्ट्रेट को इस संबंध में सशक्त करती है कि वह किसी अभियुक्त को समन करने के बाद व्यक्तिगत हाजिरी से अभिमुक्ति दे सकता है।
धारा 205 की उपधारा (2) मामले की जांच या विचारण करने वाले मजिस्ट्रेट को यह शक्ति भी देती है कि वह किसी भी मामले के किसी भी प्रकरण में अभियुक्त की व्यक्तिगत हाजिरी का निर्देश दे सकता है और यदि आवश्यक हो तो उसे इस प्रकार हाजिर होने के लिए कोई उपबंधित रीति से विवश कर सकता है।
प्रथम सुनवाई के प्रक्रम में ही मजिस्ट्रेट को अभियुक्त की व्यक्तिगत हाजिरी से अभिमुक्ति देने का विवेकाधिकार प्राप्त है। फिर भी अभियुक्त निजी हाजिरी से अभिमुक्ति के लिए प्रार्थना कर सकता है। यह बात शशि सेठ बनाम राज्य 1971 के मामले में इलाहाबाद क्रिमिनल रिकॉर्ड 456 के मामले में कही गयी है।
गजेंद्र नाथ चौधरी बनाम विनोद कुमार 1987 गुवहाटी 105 के मामले में कहा गया है कि-
"' जब अभियुक्त लोक कर्तव्यों का निर्वहन करने वाला संयुक्त सचिव हो तो उस दशा में मजिस्ट्रेट उसे व्यक्तिगत हाजिरी से अभिमुक्ति प्रदान कर सकता है। यदि कोई ऐसा व्यक्ति जो लोक कर्तव्यों को निभा रहा है, अर्थात कोई सरकारी नौकर है तो उसे व्यक्तिगत उपस्थिति से अभिमुक्ति मिल सकती है। यह धारा केवल उसी दशा में लागू होती है जब व्यक्ति स्वयं अभियुक्त हो। इस धारा के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम में अभियुक्त को व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट प्रदान की जा सकती है।"
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 205, धारा 273 तथा धारा 317 के उपबंधों के अधीन यह दर्शाया गया है कि अभियुक्त की ओर से आवेदन किए जाने पर मजिस्ट्रेट के लिए आवश्यक होगा कि वह अभियुक्त को व्यक्तिगत हाजिरी से छूट प्रदान करते हुए उसे अपना पक्ष वकील द्वारा प्रस्तुत किए जाने की अनुमति दें। जब तक कि अभियुक्त की व्यक्तिगत उपस्थिति में वाद की दृष्टि से आवश्यक न हो। परंतु मजिस्ट्रेट को यह अधिकार केवल और केवल विवेकाधिकार के साथ मिला हुआ है। कोई भी अभियुक्त मजिस्ट्रेट से अधिकार पूर्वक व्यक्तिगत हाजिरी से अभिमुक्ति नहीं मांग सकता।
एसवी मजूमदार बनाम गुजरात स्टेट फर्टिलाइजर कंपनी लिमिटेड तथा अन्य के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि धारा 205 के अधीन मजिस्ट्रेट को यह अधिकार व शक्ति प्रदान की गयी है कि उचित कारणों के होने पर अभियुक्त को न्यायालय में हाजिर रहने से अभिमुक्ति कर सकता है। परंतु ऐसी छूट देते समय उसे यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि अभियुक्त गैरहाजिर का विचारण की कार्यवाही पर प्रतिकूल प्रभाव तो नहीं पड़ेगा। यदि विचारण के किसी भी चरण में मजिस्ट्रेट व न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि अभियुक्त न्यायालय में हाजिरी से छूट का अनुचित फायदा उठाते हुए विचारण को विलंबित कर रहा है तो न्यायालय उसकी हाजिरी से अभिमुक्ति की याचना को अस्वीकार कर सकता है।
देवेंद्र उपाध्याय बनाम भारत संघ एआईआर 2006 (63) पटना के मामले में याचिकाकर्ता के विरुद्ध आईपीसी की धारा 420 और घूसखोरी का आरोप था। इस आरोप के लिए उसे न्यायालय में उपस्थित होने के लिए समन जारी किए गए थे। परंतु उसने उसका अनुपालन नहीं किया और वह न्यायालय के समक्ष उपस्थित नहीं हुआ।
इसके बाद न्यायालय में उसकी उपस्थिति सुनिश्चित करने की दृष्टि से उसके विरुद्ध गैर जमानतीय वारंट निकाला गया। अभियुक्त ने न्यायालय के समक्ष एक आवेदन के माध्यम से धारा 205 के अंतर्गत अपनी हाजिरी से अभिमुक्ति मांगी परंतु न्यायालय ने उसके आवेदन को खारिज कर दिया तथा कहा कि पहले गिरफ्तारी वारंट जारी हो चुका था इसलिए धारा 205 के अंतर्गत व्यक्तिगत हाजिरी से अभिमुक्त नहीं जा सकता।
व्यक्तिगत हाजिरी से अनुमति दिए जाने के संदर्भ में न्यायालय आरोपी की स्थिति देखता है, उसका आपराधिक रिकॉर्ड देखता है तथा यह देखता है कि आरोपी जिस समय भी न्यायालय की आवश्यकता होती है न्यायालय के समक्ष हाजिर होगा तथा न्याय के लक्ष्य को बनाए रखेगा, न्याय के मूल उद्देश्य को धूमिल नहीं होने देगा। धारा 205 के अंतर्गत हाजिरी से मुक्ति मिल जाती है परंतु उस स्थिति में मिलेगी जब अभियुक्त सदाचारी हो तथा अभियुक्त शांति बनाए रखने में प्रशासन और न्यायालय का पूरा सहयोग करता हो।
आरके श्रीवास्तव बनाम बादशाह होटल्स एंड रिजॉर्ट्स के मुकदमे में गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने फैसला दिया की विचारण न्यायालय द्वारा सुनवायी के लिए तय की गयी प्रथम तारीख को ही अभियुक्त का परीक्षण किया जा सकता है, बशर्ते कि उसका प्रतिनिधित्व उसके अधिवक्ता द्वारा किया गया हो, उसके पश्चात न्यायालय अभियुक्त से यह शपथ पत्र लेकर कि उसकी अनुपस्थिति में न्यायालय द्वारा साक्ष्य लिए जाने में उसे कोई आपत्ति नहीं होगी उसे व्यक्तिगत हाजिरी से अभिमुक्ति दी जा सकती है।
जब अभियुक्त को व्यक्तिगत हाजिरी से अभिमुक्ति दी जा सकती है तो अभियुक्त के अधिवक्ता को उसका पक्ष रखने के लिए न्यायालय में उपस्थित रहने का अधिकार प्राप्त हो जाता है तथा न्यायालय में अभियुक्त का अधिवक्ता उसकी ओर से उपस्थित होता रहता है।
दंड प्रक्रिया संहिता धारा 317
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 317 के अधीन भी कुछ मामलों में अभियुक्त की अनुपस्थिति में जांच और विचारण की कार्यवाही हो जाती है। इस धारा के अनुसार जांच एवं विचारण के अनुक्रम में मजिस्ट्रेट को या न्यायालय का इस बात का समाधान हो जाए कि न्यायालय के समक्ष अभियुक्त का हाजिर होना कोई आवश्यक नहीं है तथा अभियुक्त के हाजिर नहीं होने के कारण न्याय के किसी भी उद्देश्य पर कोई भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है और अभियुक्त न्यायालय की कार्यवाही में बार-बार बाधा डालता है तो ऐसे अभियुक्त का विचारण प्रतिनिधि द्वारा किया जा सकता है।
अभियुक्तों को न्यायालय में हाजिर होने से मुक्त किया जा सकता है तथा उसकी अनुपस्थिति में जांच की कार्यवाही समाप्त की जा सकती है। न्यायालय को यह अधिकार दिया है कि किसी भी पश्चातवर्तीय अनुक्रम में उसकी व्यक्तिगत हाजिरी का निदेश दिया जा सकता है अर्थात न्यायालय किसी भी समय उसको पुनः व्यक्तिगत हाजिर होने का निदेश दे सकता है।
ललित मोहन देव बर्मन बनाम हरिदेव राम देव बर्मन के वाद में अभिमत प्रकट किया गया है कि आवश्यक नहीं है कि अभियुक्त की हाजिरी से मुक्ति के लिए लिखित आवेदन दिया जाए। मजिस्ट्रेट मौखिक आवेदन पर भी अभियुक्त को हाजिरी से मुक्ति प्रदान कर सकता है। यह धारा मजिस्ट्रेट को जांच या विचारण में किसी भी चरण में अभियुक्त को निजी हाजिरी से मुक्ति देने हेतु शक्ति प्रदान करती है।
धारा 317 के अंतर्गत अभियुक्त को व्यक्तिगत हाजिरी से अभिमुक्ति केवल एक शर्त पर दी जाती है कि उसका प्रतिनिधित्व किसी अधिवक्ता के द्वारा किया जा रहा हो। यदि अभियुक्त का प्रतिनिधित्व अधिवक्ता के द्वारा नहीं किया जा रहा है तो ऐसी किसी भी परिस्थिति में उसे धारा 317 के अंतर्गत अभिमुक्ति नहीं दी जा सकेगी क्योंकि इससे व्यवधान उत्पन्न होता है तथा अभियुक्त को सूचना दे पाना दुर्गम हो जाता है।
भास्कर इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड बनाम भिवानी डेनिम एंड अपेरल्स लिमिटेड के एक मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिकथन किया कि उचित मामलों में मजिस्ट्रेट अभियुक्तों को न्यायालय में प्रथम हाजिरी से भी अभिमुक्ति देकर अधिवक्ता द्वारा उसका प्रतिनिधित्व किए जाने की अनुज्ञा दे सकता है और न्यायालय इस प्रकार अधिवक्ता द्वारा किए गए अभिकथनों को अभियुक्त द्वारा किए गए अभिकथन मानकर उन्हें अभिलिखित कर सकता है। धारा 317 के अधीन मजिस्ट्रेट को कोई अधिकार शक्ति प्राप्त है कि वह अभियुक्तों को न्यायालय में व्यक्तिगत रूप से हाजिर रहने से छूट दे सकता है बशर्ते कि अभियुक्त की ओर से उसका अधिवक्ता प्रतिनिधित्व पैरवी कर रहा हो।
धारा 317 के अंतर्गत यह भान रहे कि मजिस्ट्रेट द्वारा अभियुक्त को अभिमुक्ति दिए जाना उसके विवेक अधिकार पर निर्भर करता है।