जानिए मजिस्ट्रेट के समक्ष कार्यवाही कैसे प्रारंभ होती है

Update: 2020-07-19 04:30 GMT

दंड प्रणाली में पुलिस द्वारा किया जाने वाला अन्वेषण एक महत्वपूर्ण स्तर का होता है। इस स्तर पर पुलिस द्वारा किसी प्रकरण में अन्वेषण कर अपनी अंतिम रिपोर्ट मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत की जाती है। जिस समय तक पुलिस अपना अन्वेषण करती है, तब तक किसी मजिस्ट्रेट द्वारा कोई कार्यवाही प्रारंभ नहीं की जाती है।

दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 167 के अंतर्गत पुलिस को अपना इन्वेस्टिगेशन समाप्त करने के लिए एक समय सीमा दी गयी है। इस समय अवधि के भीतर पुलिस द्वारा अपना इन्वेस्टिगेशन प्रस्तुत कर दिया जाता है। जब पुलिस अपना इन्वेस्टिगेशन प्रस्तुत कर देती है तो मजिस्ट्रेट के समक्ष कार्यवाही का प्रारंभ होता है।

आरोप विरचित करने के पूर्व अभियुक्त को उन्मोचन करने के पूर्व मजिस्ट्रेट को अपनी कार्यवाही का प्रारंभ करना होता है। एक तात्विक प्रश्न है कि मजिस्ट्रेट अपने समक्ष की जाने वाली कार्यवाही को किस प्रकार प्रारंभ करता है?

भारत के दंड विधान में दंड प्रक्रिया संहिता के अध्याय 16 में इस प्रश्न का उत्तर मिलता है, जहां मजिस्ट्रेट द्वारा कार्यवाही को प्रारंभ किए जाने का जाने का उल्लेख है।

किसी भी आपराधिक प्रकरण में दो तरीके से मामले दर्ज होते हैं।

1) पुलिस द्वारा संस्थित मामले

2) दूसरा निजी परिवाद पर संस्थित मामले

मामले में दो प्रकार के होते हैं, इनमें वारंट मामला और समन मामला होता है। समन मामला वह होता है जो अधिक गंभीर प्रकृति का अपराध नहीं होता है, जो 2 वर्ष से कम के दंड का अपराध होता है। 2 वर्ष से अधिक के दंड के अपराध को वारंट मामला माना जाता है। इस समय इस लेख में मजिस्ट्रेट के समक्ष कार्यवाही का प्रारंभ किया जाना इस पर चर्चा की जा रही है।

सीआरपीसी की धारा 204

आदेशिका का जारी किया जाना

जब मजिस्ट्रेट द्वारा किसी मामले का संज्ञान कर लिया जाता है तो सबसे पहले मजिस्ट्रेट द्वारा अभियुक्त को न्यायालय में हाजिर करवाना होता है। हाजिर करवाने हेतु मजिस्ट्रेट को आदेशिका जारी करना होती है। दंड प्रक्रिया संहिता की 204 धारा आदेशिका जारी करने के संबंध में प्रावधान करती है। इस धारा का संबंध समन और वारंट जारी करने से है।

धारा 204 के प्रावधान की प्रमुख शर्तें मजिस्ट्रेट द्वारा अपराध का संज्ञान किया जाना है। जब तक मजिस्ट्रेट अपराध का संज्ञान ना कर ले, तब तक वह इस धारा के अधीन समन व गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी नहीं कर सकेगा।

बिहार राज्य बनाम सरवर हुसैन 1983 के मामले में कहा गया है कि

"यदि मजिस्ट्रेट पुलिस रिपोर्ट के आधार पर धारा 190(1) के अधीन अपराध का संज्ञान ले तो उसे इस बात की संतुष्टि कर लेनी होगी कि मामले में कार्यवाही करने के लिए उचित आधार है, किंतु पुलिस रिपोर्ट के आधार पर मामला चलाए जाने की दशा में कारणों का उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं होगी।"

यदि अभियुक्त पहले से ही अभिरक्षा में है या न्यायालय द्वारा स्वीकृत की गयी जमानत पर है, संज्ञान संबंधित आदेश उसकी उपस्थिति में पारित किया जाता है तो जांच या विचारण हेतु मामले को अन्य मजिस्ट्रेट के पास अंतरित करने के पूर्व आदेशिका जारी की जाना आवश्यक नहीं है। मजिस्ट्रेट से यह अपेक्षित नहीं है कि वह धारा 204 के अधीन आदेशिका जारी करने के लिए कारणों को अभिलिखित करे।

नैसर्गिक न्याय यह कहता है कि सुनवाई हेतु दोनों पक्षकारों को अवसर दिए जाने चाहिए। बगैर आदेशिका जारी किए किसी अपराध का विचारण किया जाना नैसर्गिक न्याय के विरुद्ध होगा।

आदेशिका रद्द भी की जा सकती है

कुछ परिस्थितियां ऐसी भी हैं जिनमें आदेशिका को रद्द किया जा सकता है। जब आदेशिका अभिखंडित किया जा सकता है जब मजिस्ट्रेट धारा 204 के अंतर्गत आदेशिका जारी करता है तब उसे खंडित किया जा सकता है और उसके खंडित किए जाने के लिए कुछ आधार दिए गए हैं जो निम्न हैंं,

1) परिवाद का विश्लेषण कर लेने के पश्चात कथन और साक्षियों के कथन से किसी अपराध के गठित होने का कोई सबूत नहीं मिलता है।

2) जहां परिवाद की गयी शिकायत बेतुकी व्यर्थ हो जिससे कोई वास्तविकता प्रतीत नहीं होती हो।

3) जहां ऐसा प्रतीत हो कि मजिस्ट्रेट ने बिना उचित विचार किए मनमाने ढंग से एक औपचारिकता निभाते हुए आदेशिका जारी की है।

4) जहां परिवाद दायर करने हेतु निर्धारित कोई पूर्व शर्त की पूर्ति नहीं कि गयी हो जैसे कुछ मामलों के अंदर परिवाद दायर करने हेतु शासकीय स्वीकृति लेना होती है।

5) जहां या प्रतीत हो कि प्रकरण आपराधिक न होकर सिविल प्रकृति का है।

अनिल सरन बनाम बिहार राज्य तथा अन्य एआरआई 1996 उच्चतम न्यायालय 204 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 204 के अधीन आदेशिका जारी किए जाने के लिए आवश्यक बात यह है कि अपराध का संज्ञान करने वाले मजिस्ट्रेट को यह देखना चाहिए परिवाद में उल्लिखित आरोपों के आधार पर प्रथमदृष्टया मामला बन रहा हो तो यहां इस चरण में इस बात पर विचार किए जाने की आवश्यकता नहीं है कि अभियुक्त दोषी है या नहीं।

मजिस्ट्रेट का अभियुक्त की व्यक्तिगत हाजिरी से अभिमुक्ति दे सकना

मजिस्ट्रेट द्वारा आदेशिका जारी करके अभियुक्तों को न्यायालय में बुलाने के पश्चात वह अभियुक्त को व्यक्तिगत हाजिरी से अभिमुक्ति दे सकता है।

इस संबंध में लेखक ने लाइव ला वेबसाइट पर एक विस्तृत आलेख लिखा है जिसमें न्यायालय द्वारा अभियुक्त को व्यक्तिगत हाजिरी से अभियुक्ति दिए जाने के संबंध में चर्चा की गयी।

यदि मजिस्ट्रेट को लगता है कि अभियुक्त को व्यक्तिगत हाजिरी से अभिमुक्ति दी जा सकती है और उसके अधिवक्ता द्वारा उसे हाजिर होने की अनुज्ञा दे सकता है। परंतु मजिस्ट्रेट को यह शक्ति विवेक अधिकार के अंतर्गत प्राप्त है। यह अभियुक्त का अधिकार नहीं है अभियुक्त अधिकार पूर्वक नहीं मांग सकता। वह मजिस्ट्रेट से निवेदन अवश्य कर सकता है। यह भी कार्यवाही प्रारंभ किए जाने के प्रथम चरणों का हिस्सा है।

छोटे अपराधों के मामले में विशेष समन

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 206 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट छोटे अपराधों के संबंध में विशेष समन किए जाने की शक्ति प्राप्त की गयी है। शक्ति प्रदान की गई है।

लेखक द्वारा समरी ट्रायल के संबंध में विस्तारपूर्वक लिखा जा चुका है।

इस धारा के उपबंधों के अनुसार छोटे अपराधों के मामले में अभियुक्त यदि चाहे तो स्वयं न्यायालय में उपस्थित हुए बिना अपने अपराध की स्वीकृति डाक द्वारा न्यायालय को भेज सकता है। धारा 206 अभियुक्तों को डाक द्वारा ही अपने अपराध का स्वीकार कर लेने का अधिकार देती है। यदि वे चाहें तो अपने अपराध को डाक द्वारा ही स्वीकार कर सकता है तथा न्यायालय में आने की आवश्यकता नहीं है इसके लिए कुछ शर्ते हैं।

छोटे अपराधों की परिभाषा धारा 206 की उपधारा (2) के अंतर्गत दी गयी है। इन अपराधों में अभियुक्त अपने वकील के माध्यम से अपराध स्वीकार करके जुर्माना इत्यादि भर सकता है।

दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत धारा 206 के समावेश का उद्देश्य छोटे अपराधों का यथासंभव शीघ्रता से निराकरण करना है। धारा 206 के अंतर्गत निम्न अपराधों को छोटे अपराध माना गया है-

1) ₹1000 तक के जुर्माने से दण्डनीय है।

2) जो मोटर यान अधिनियम के अंतर्गत नहीं आते हैं।

3) जो समरी ट्रायल प्रक्रिया द्वारा निपटाए जा सकते हैं।

धारा 206 के अंतर्गत विशेष समन के माध्यम से निपटाए जाने वाले प्रकरणों में अधिक जुर्माना नहीं किया जा सकता है यह धारा केवल छोटे अपराधों के लिए ही है।

अभियुक्त को पुलिस रिपोर्ट व अन्य दस्तावेजों की प्रतिलिपि देना-

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 207 अभियुक्त के नैसर्गिक न्याय और मानव अधिकार से संबंधित है। नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत के अनुसार किसी भी प्रकार के अपराध में अभियुक्त के विरुद्ध चलाए जा रहे हैं अभियोजन की सूचना दिए बगैर दंडित किया जाना अवैध है तथा सुनवायी का अवसर दिया जाना ही चाहिए।

जब कोई मामला पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित होने की दशा में अनिवार्य है कि अभियुक्त को उन सब कथनों जो पुलिस को दिए गए हैं या अन्य ऐसे सभी दस्तावेज जिन पर अभियोजन आधारित है प्रतिलिपियाँ निशुल्क प्रदान की जाए। मजिस्ट्रेट का यह कर्तव्य होता है कि पुलिस रिपोर्ट के आधार पर संस्थित की गयी किसी भी कार्यवाही में सभी दस्तावेजों को निशुल्क अभियुक्त को उपलब्ध कराना चाहिए जिससे अभियुक्त इन दस्तावेजों को अपनी प्रतिरक्षा में उपयोग कर सकें

धारा 207 के अंतर्गत अभियुक्त को यह अधिकार दिया गया है वह अधिकार पूर्वक मजिस्ट्रेट से ऐसे दस्तावेजों को प्राप्त कर सकता है जिनका उल्लेख इस धारा के अंतर्गत किया गया है। ये दस्तावेज निम्न हैं-

1) पुलिस रिपोर्ट

2) प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR)

3) सीआरपीसी की धारा 161 (3) के अधीन अभिलिखित साक्ष्यों के बयान ऐसे बयानों को छोड़कर जो मजिस्ट्रेट पुलिस की प्रार्थना पर 173 (6) के अधीन अभियुक्त को सूचित किया जाना उचित नहीं समझता है।

4) धारा 164 के अधीन अभिलिखित संस्वीकृति के कथन।

ऐसे कथन व अन्य दस्तावेज जिनके आधार पर अभियोजन पक्ष अभियुक्त के विरुद्ध कार्यवाही करना चाहता है, यदि ऐसा दस्तावेज भारी-भरकम है तो मजिस्ट्रेट अभियुक्त को उस की प्रतिलिपि प्रदान करने के बजाय अभियुक्त व अभियुक्त के वकील को ऐसे दस्तावेज का निरीक्षण करने की अनुमति प्रदान करेगा।

राजेंद्र सिंह बनाम पश्चिम बंगाल 2004 (4023) कोलकाता के मामले में निश्चित किया गया कि अभियुक्तों को साक्ष्यों के बयान तथा अन्य दस्तावेज निशुल्क उपलब्ध कराने का मुख्य उद्देश्य है कि वह जान सके कि जांच एवं विचारण में उसे किन मुद्दों का सामना करना पड़ेगा उनके विरुद्ध अपना बचाव कैसे करें।

इस प्रकरण में दोनों अभियुक्तों को उक्त बयान और दस्तावेजों की प्रतियां इंग्लिश या हिंदी में उपलब्ध नहीं कराए जाने के कारण उनका तर्क था कि प्रस्तुत धारा 207 के प्रावधानों का उल्लंघन हुआ था।

न्यायालय ने उनकी इस दलील को खारिज करते हुए अभिकथन किया कि दोनों अभियुक्त बंगाली भाषा से भलीभांति परिचित है तथा अधीनस्थ न्यायालय की कार्यवाही बंगाली भाषा में संचालित होती है।

Tags:    

Similar News