जानिए जुवेनाइल जस्टिस एक्ट

Update: 2024-10-28 03:47 GMT

जुवेनाइल जस्टिस एक्ट (JJ Act) अवयस्क लोगों के लिए लागू होता है जिन पर किसी भी अपराध का आरोप है। ऐसे अवयस्क बाल अपचारी को वयस्क लोगों की तरह से प्रक्रिया से अभियोजन नहीं चलाया जाता है बल्कि उसके लिए जुवेनाइल जस्टिस एक्ट लागू है। इस एक्ट के हिंदी नाम किशोर न्याय बालकों की देखरेख और संरक्षण अधिनियम, 2000 है। भारतीय न्याय संहिता सात वर्ष से कम आयु के शिशु के कार्य को अपराध नहीं मानती है अर्थात कोई ऐसा बालक जिसकी आयु 7 वर्ष से कम है उसके द्वारा किया गया।

कोई भी कार्य अपराध नहीं माना जाता है लेकिन 12 वर्ष से कम आयु के शिशु के कार्य को भी अपराध नहीं मानती है यदि उसकी समझ परिपक्व नहीं है तब परंतु 12 वर्ष से ऊपर के आयु के किशोर भारत में अधिनियमित होने वाले आपराधिक कानून के दायरे में आते हैं।

इस प्रकार 12 वर्ष से ऊपर की आयु के किशोरों के संबंध में किशोर न्याय की व्यवस्था भारत की संसद द्वारा बनाई गई है। भारत की संसद ऐसे किशोरों के संबंध में भिन्न प्रकार के न्याय की व्यवस्था करती है। यदि किसी किशोर द्वारा कोई अपराध किया जाता है तब उसके संबंध में भारत की संसद द्वारा बनाया गया किशोर न्याय बालकों की देखरेख और संरक्षण अधिनियम 2000 के प्रावधान लागू होंगे।

किसी भी राष्ट्र का निर्माण और राष्ट्र का भविष्य उस राष्ट्र के बच्चों पर निर्भर होता है यदि बच्चों के भविष्य को सुरक्षित नहीं किया गया तब राष्ट्र का भविष्य भी असुरक्षित हो जाएगा समय और परिस्थितियों के अनुरूप ऐसे बच्चों की संख्या बढ़ती चली जा रही है जो बालक आयु में ही अपराध कर बैठते हैं।

कानून की भाषा में अपराध की ओर प्रवृत्त बालकों को 'विधि विरोधी किशोर' कहा गया है। भारत में ऐसे किशोरों के लिए कुछ समय पूर्व किशोर, न्याय (बालकों को देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 पारित किया गया है, जो किशोर न्याय अधिनियम, 1986 (Juvenile Justice Act, 1986) का संशोधित रूप है।

किशोर-न्याय की परिकल्पना-

उल्लेखनीय है कि विश्व की प्रायः सभी प्राचीन दण्ड-प्रणालियों में अपराधियों को दण्डित करने के मामले में वयस्क या अवयस्क, बालक, किशोर, युवा, वृद्ध पुरुष सभी को समान रूप से दण्डित किये जाए की प्रथा प्रचलित थी। अतः उस समय बाल अथवा किशोर अपराधियों को दण्डित करते समय उनके नरमी या उदारता बरतने का कोई प्रश्न ही नहीं था। परन्तु दण्ड व्यवस्था में सुधारात्मक दृष्टिकोण को अपना लिए जाने के साथ किशोर अपराधियों के प्रति उदार एवं सहानुभूतिपूर्ण रुख अपनाए जाने पर बल दिया गया क्योंकि यह धारणा बदल गई कि बालक एवं किशोर स्वभावतः चंचल, दुःसाहसी और जिज्ञासु होते हैं तथा के विभिन्न प्रलोभनों की ओर शीघ्रता से आकर्षित होते हैं। इसी कारण वे आपराधिकता की ओर सहज हो कर आकर्षित होते हैं और यदि उनकी इस प्रवृत्ति पर समय रहतें नियंत्रण न रखा गया, तो आगे चलकर उनके अपराधी बन जाने की संभावना बनी रहती है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए किशोर अपराधियों से निपटने के लिए विश्व स्तर पर प्रयास किये गये तथा इनके विचारण, देखरेख एवं संरक्षण हेतु प्रचलित सामान न्यायलयीन प्रक्रिया के स्थान पर एक विशिष्ट किशोर न्याय व्यवस्था लागू की गई है।

किशोर न्याय अधिनियम, 1986-

इसके बाद किशोर न्याय अधिनियम 1986 पारित किया गया। किशोर न्याय संबंधी उपर्युक्त न्यूनतम मानक नियमों को अपनाते हुए भारत में किशोर अपराधियों के लिए एक व्यापक कानून पारित किया जो किशोर-न्याय अधिनियम, 1986 के नाम से लागू हुआ। इस अधिनियम के लागू होते ही पूर्ववर्ती बाल अधिनियम, 1960 का निरसन हो गया।

किशोर-न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 (Juvenile Justice (Care and Protection of Children) Act, 2000)

किशोर-न्याय अधिनियम, 1986 के बाद में यह पाया गया कि इस कानून को और अधिक व्यापक और प्रभावी बनाये जाने की आवश्यकता है। इस अवधि में निरंतर बढ़ती जा रही किशोर अपराधियों की संख्या तथा उनकी समुचित देखरेख और सुरक्षा की अव्यवस्था के कारण उक्त अधिनियम के स्थान पर एक नया किशोर न्याय अधिनियम लागू करने का निर्णय लिया गया। अत: किशोर न्याय अधिनियम, 1986 को निरसित कर किशोर न्याय ( बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 लागू किया गया है। इस अधिनियम का मूल उद्देश्य किशोर अपराधियों को न्याय सुनिश्चित कराने के साथ-साथ निराश्रित बालकों एवं किशोरों की उचित देखरेख और संरक्षण की व्यवस्था करना है।

किशोर-न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 के अंतर्गत विशेष शब्दों की परिभाषाएं-

इस अधिनियम की धारा दो के अनुसार कुछ विशेष शब्दों की परिभाषाएं दी गई हैं इन शब्दों को इस अधिनियम के अंतर्गत उपयोग किया गया है। इस आलेख में इन परिभाषाओं में से कुछ विशेष शब्दों के संदर्भ में व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है-

इस अधिनियम में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो

(क) "सलाहकार बोर्ड" से केन्द्रीय अथवा राज्य सलाहकार बोर्ड अथवा किसी जिले और नगर स्तर का सलाहकार बोर्ड अभिप्रेत है, जैसी स्थिति हो, और जो धारा 62 के अधीन गठित हो।

(कक) दत्तक ग्रहण (Adoption) से वह प्रक्रिया अभिप्रेत है, जिसके द्वारा दत्तक संतान स्थायी रूप से अपने जैविक माता-पिता से पृथक् हो जाती है।

(ख) "भीख माँगना" से अभिप्रेत है-

किसी लोक स्थान में भिक्षा की याचना करना अथवा भिक्षा की याचना करते या उसको प्राप्त करने के लिए किसी प्राइवेट परिसर में प्रवेश करना, चाहे किसी भी बहाने से।

(a) भिक्षा अभिप्राप्त करने के उद्देश्य से अपना या किसी अन्य व्यक्ति का कोई व्रण, घाव, चोट या रोग अभिदर्शित करना।

(ग) "बोर्ड" से धारा 4 के अधीन गठित किशोर न्याय बोर्ड अभिप्रेत है।

(घ) “देखरेख" और "संरक्षण को आवश्यकता वाले बालक" से कोई ऐसा बालक अभिप्रेत है जिसे गृह विहीन अथवा किसी निश्चित स्थान या निवास स्थान के और जीवन निर्वाह के किसी दृश्यमान साधन के बिना पाया जाता है।

[1-क) जिसे भीख को याचना करते हुये पाया जाता है, या जो गलो-गली भटकने वाला या कामकाजी बालक है।] (i1) जो किसी व्यक्ति के साथ रहता है (जो उस बालक का संरक्षक हो अथवा नही)

(iii) जो मानसिक अथवा शारीरिक रूप से विवादित या रोगग्रस्त है या ऐसा बालक है जो बीमारियों या ऐसी बीमारियों से ग्रस्त रहता है जिनका कोई उपचार नहीं है और उसको सहारा देने वाला या उसकी देखरेख करने वाला कोई नहीं है,

(iv) उसके माता-पिता या संरक्षक हैं और ऐसे माता-पिता या संरक्षक बालक पर नियंत्रण स्थापित करने के योग्य नहीं हैं या अक्षम हैं;

(v) जिसके माता-पिता नहीं हैं और कोई भी ऐसा नहीं है जो उसकी देख-रेख करने का इच्छुक हो या उसके माता-पिता ने उसका परित्याग या अध्यर्पण कर रखा है या वे गायव हैं या बालक को छोड़कर भाग गये हैं और उसके माता पिता को युक्तियुक्त क्षति के बाद भी नहीं पाया जा सकता है;

(vi) जो कि लैंगिक दुरुपयोग अथवा अवैध कार्यों का शिकार हो रहा है अथवा इस बात की संभावना है कि उसके लिये उसका घोर दुरुपयोग होगा, उसको यातना दी जाएगी।

(ब) "संरक्षक" से किसी बालक के सम्बन्ध में उसका नैसर्गिक संरक्षक अथवा कोई अन्य व्यक्ति अभिप्रेत है जिसका कि बालक पर वास्तविक भार और नियंत्रण है और सक्षम प्राधिकारी द्वारा उसे उस समय एक संरक्षक के रूप में मान्य किया गया हो जब उस प्राधिकारी के समक्ष कोई कार्यवाही चलाई गई हो।

(ट) "किशोर" अथवा "बालक" से कोई ऐसा व्यक्ति अभिप्रेत है जिसने अठारह वर्ष की आयु पूरी न की हो।

(ठ) "विधि-विरोधी किशोर" से कोई वह किशोर अभिप्रेत है जिसके बारे में यह अभिकथित है कि उसने कोई अपराध किया है।

(ड) "स्थानीय प्राधिकारी" से ग्राम स्तर पर पंचायतें और जिला स्तर पर जिला परिषद् अभिप्रेत हैं और उसमें कोई नगरपालिका समिति अथवा निगम अथवा कैण्टोनमेन्ट (छावनो) बोर्ड या ऐसा अन्य निकाय भी सम्मिलित है जो कि स्थानीय प्राधिकारी के रूप में कार्य करने के लिए सरकार द्वारा वैधानिक रूप से हकदार बनाया गया है।

(ढ) "स्वापक औषधि" और "मनः प्रभावी पदार्थ" से वही अभिप्रेत होगा जो कि उनसे स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 में अभिप्रेत है।

(ण) "संप्रेक्षण गृह" से वह गृह अभिप्रेत है जो कि किसी राज्य सरकार द्वारा या किसी स्वैच्छिक संगठन द्वारा स्थापित किया गया है और उस सरकार द्वारा उसको विधि विवादित किशोर के लिये धारा 8 के अधीन एक संप्रेक्षण गृह के रूप में प्रमाणित किया गया है।

(त) "अपराध" से कोई ऐसा अपराध अभिप्रेत है जो कि तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन दण्डनीय बनाया गया है।

(थ) "सुरक्षा का स्थान " से ऐसा कोई स्थान या संस्थान (जो कि पुलिस हवालात या कारागार नहीं है) अभिप्रेत है जिसका प्रभावी व्यक्ति अस्थायी रूप से किशोर को लेने और उसकी देखरेख करने के लिये इच्छुक है और जो कि सक्षम प्राधिकारी की राय में किशोर के लिये सुरक्षा का स्थान हो सकता है।

किशोर अथवा बालक- इस अधिनियम के अन्तर्गत किशोर या बालक शब्द से आशय ऐसे व्यक्ति से है जिसने 18 वर्ष की आयु पूरी न की हो। यह परिभाषा 18 वर्ष की आयु से कम किशोर अवस्था के सभी व्यक्तियों के प्रति लागू होती है चाहे वह लड़का हो या लड़की।

उल्लेखनीय है कि पूर्ववर्ती किशोर न्याय अधिनियम, 1986 के अधीन 'किशोर' की परिभाषा में सोलह वर्ष से कम आयु के किशोर अथवा अठारह वर्ष से कम आयु की किशोरी को ही किशोर आयु का माना गया तथा उक्त अधिनियम के पूर्व, बाल-अधिनियम, 1960 के अधीन यह आयु किशोर एवं किशोरियों, दोनों के लिए इक्कीस वर्ष से कम आयु रखी गयी थी। परन्तु वर्तमान किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 के अनुसार 18 वर्ष से कम आयु के लड़के या लड़की को 'किशोर' अथवा 'बालक' की श्रेणी में रखा गया है।

विधि-विरोधी किशोर

इस अधिनियम की महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसके अन्तर्गत अपराध कारित करने वाले किशोर को अपराधी या अपचारी किशोर संबोधित न करते हुए विधि-विरोधी किशोर कहा गया है।

विधि-विरोधी किशोर की आयु का अभिनिर्धारण-न्यायिक दृष्टिकोण-

विधि विरोधी किशोरों के विचारण में उनके आयु के संबंध में निम्नलिखित दो बिन्दुओं पर प्रमुखता से विचार किया जाना आवश्यक होता है-

1- विधि विरोधी व्यक्ति की आयु किशोर वय की कोटि में आती है अथवा नहीं।

2- किशोर माने जाने के लिए विधि विरोधी व्यक्ति की आयु निर्धारण की तिथि उसके द्वारा कारित अपराध की तिथि हो, अथवा वह तिथि हो, जिस दिन उसे सक्षम अधिकारी के समक्ष विचारण हेतु प्रस्तुत किया गया था।

सुप्रीम कोर्ट ने देवकी नन्दन दायमा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य में विनिश्चित किया कि अभियुक्त के किशोर आयु के होने या न होने की जाँच करते समय विचारण न्यायालय स्कूल रजिस्टर में अंकित की गयी विधि-विरोधी किशोर की जन्म तारीख को साक्ष्य के रूप में ग्राह्य कर सकता है परन्तु उसे स्वीकार किया जाए अथवा नहीं, यह इसके प्रमाणक मूल्य (probative value) पर निर्भर करेगा।

जहाँ स्कूल सर्टिफिकेट में दर्शायी गयी जन्म तारीख और मेडिकल प्रमाण- पत्र में अंकित जन्म तिथि में अन्तर हो, तो स्कूल सर्टिफिकेट की तारीख को बेहतर साक्ष्य माना जायेगा क्योंकि मेडिकल प्रमाण- पत्र में दर्शाई गई जन्म तारीख अनुमान पर आधारित हो सकती है अत: सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए उत्तर प्रदेश हाई कोर्ट को मामले की पुन: सुनवाई करने के निर्देश दिये।

मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने सुनील तथा अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य के वाद में अभिनिर्धारित किया कि विधि विरोधी व्यक्ति किशोर आयु की कोटि में आता है अथवा नहीं, यह साबित करने का भार 'किशोर' पर नहीं होगा, अपितु इसका निर्धारण न्यायालय की हो स्वप्रेरणा (suo motu) से किया जाना चाहिए। इस वाद में सेशन कोर्ट ने किशोर की जमानत को अर्जी इस आधार पर नामंजूर कर दी थी कि उसकी मेडिकल रिपोर्ट से पता चलता था कि वह किशोर आयु को कोटि में नही आता है। न्यायालय ने विनिश्चित किया कि आयु सिद्ध करने का भार विधि- विरोधी किशोर पर नहीं होगा और कोर्ट को स्वयं ही स्व-प्रेरणा से इसका निर्धारण करना चाहिए।

इसी प्रकार इजाज अहमद बनाम मध्य प्रदेश राज्य के मामले में भी यह निर्णौत किया गया कि अभियुक्त किशोर आयु का है अथवा नहीं इसकी जाँच करके निर्णय करने का दायित्व न्यायालय का स्वयं का है। अत: ऐसी जाँच के अभाव में प्रकरण के ट्रायल कोर्ट को वापस लौटाने के सिवाय अन्य कोई उपाय नहीं है ताकि आयु संबंधी जाँच करके निर्णय लिया जा सके।

अजय प्रताप सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य के मामले में हाई कोर्ट ने आरोपों को इस आधार पर खारिज कर दिया कि उसकी अपराध के निर्धारण के कोई जांच नहीं की गई थी। इस मामले में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने अपने आदेश द्वारा निर्णीत किया था कि मेडिकल रिपोर्ट के अनुसार विचारण हेतु लाए गए विधि विरोधी किशोर की आयु निर्धारित अधिकतम आयु से अधिक थी, अतः उसे किशोर न्याय अधिनियम के लाभ की पात्रता नहीं थी, क्योंकि वह किशोर आयु का नहीं था।

हाईकोर्ट ने इस मामले की अपील सुनवाई करते हुए अभिनिर्धारित किया कि जहाँ विचाराधीन किशोर द्वारा किशोर आयु का होने का तर्क किया गया हो, तो कोर्ट की यह बाध्यता हो जाती है कि वह स्वयं जाच करें कि वास्तविक सही आयु क्या है। अत:कोर्ट ने प्रकरण को अतिरिक्त सेशन कोर्ट जगदलपुर को लौटते हुए जाँच करने के निर्देश दिये।

राजस्थान हाईकोर्ट ने धीरू बनाम राजस्थान राज्य के बाद में विनिश्चित किशोर-न्याय अधिनियम के प्रयोजन के लिए विधि-विरोधी किशोर की आयु का निर्धारण केवल शारीरिक गठन आदि के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए, अपितु इस हेतु स्कूल उस में अंकित जन्म तिथि के अलावा अन्य उपलब्ध प्रमाणों पर भी विचार किया जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने प्रभुनाथ प्रसाद बनाम बिहार राज्य के बाद में इस बात पर जोर दिया कि -विधि विरोधी किशोरों के विचारण में ट्रायल कोर्ट को सर्वप्रथम किशोर को आयु का निर्धारण स्वप्रेरणा कर लेना चाहिए ताकि बाद में इस संबंध में कोई भ्रान्ति या विवाद न रहे।

कुछ अनीता बनाम अटल बिहारी के बाद में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने निर्णीत किया कि जन्म और मृत्यु रजिस्टर में प्रविष्टियाँ कानूनी रूप से रखी जाती हैं। अत: इन प्रविष्टियों का प्रयोग किशोर की आयु निवारण हेतु किया जा सकेगा तथा इसे चिकित्सकीय राय की तुलना में अधिमान्यता प्राप्त होगी।

रामदेव उर्फ राजनाथ चौहान बनाम असम राज्य के वाद में सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिधारेत किया कि किसी किशोर की आयु के बारे में निर्धारण हेतु स्कूल रजिस्टर में दर्ज को गयी उसकी जन्मतिथि को विश्वसनीय माना जा सकता है, परन्तु यह केवल उसी स्थिति में ग्राह्य होगी यदि वह सक्षम अधिकारी सम्यक् रूप से संधारित को गई हो। इस वाद में स्कूल रजिस्टर में अंकित किशोर की जन्म तिथि के अनुसार वह किशोर आयु को कोटि में आना था लेकिन वह यह साबित करने में असफल रहा कि जन्म तिथि नयी उक्त प्रविष्टि किसी लोक सेवक या सक्षम प्राधिकारी द्वारा उसके कार्यकालीन कर्तव्य के अनुपालन में में गई थी। अत: कोर्ट ने उसे विश्वसनीय मानने से इन्कार कर दिया।

कृष्ण भगवान बनाय राज्य के वाद में विनिश्चित किया कि किशोर न्याय अधिनियम के प्रयोजनों के लिए 'किशोर माने जाने हेतु अभियुक्त को आयु उसके द्वारा अपराध कारित किये जाने की तारीख को विपरित अधिकतम आयु से कम होनी चाहिए। अत: यदि अभियुक्त अपराध कारित होने को तिथि को किशोर आयु का है, जो किशोर न्यायालय में विचारण के समय उसकी आयु निर्धारित आयु से अधिक भी हो, तो भी उसका मामला किशोर न्यायालय में ही निर्णीत होगा और बाद की कार्यवाही भी इसी अधिनियम के अन्तर्गत होगी उसे कारवासित नहीं किया जा सकेगा ।

भोला भगत बनाम बिहार राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिपारित किया कि अभियुक्त 'किशोर' है अथवा नहीं, इसका निर्धारण अपराध कारित होने की तारीख को उसकी वास्तविक आयु क्या है, इस आधार पर किया जायेगा और यह निर्णय न्यायालय को ही लेना होगा कि अभियुक्त को किशोर न्याय अधिनियम के हितकारी उपबंधों की पात्रता है अथवा नहीं।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने उपर्युक्त निर्णय को पलटते हुए बिहार राज्य के एक वाद में अभिनिर्धारित किया कि अभियुक्त 'किशोर' है अथवा नहीं इसकी निर्णायक तारीख यह नहीं है जिस दिन अपराध कारित हुआ था, अपितु यह तारीख है जिस दिन अभियुक्त को सक्षम अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत किया गया था।

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