पुलिस चालान पेश करने में देरी करे तब अभियुक्त को मिल सकती है डिफॉल्ट जमानत
किसी गैर जमानती अपराध में पुलिस किसी आरोपी को गिरफ्तार कर सकती है। ऐसे गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। प्रस्तुत किए गए व्यक्ति के पास जमानत का अधिकार होता है। यदि अदालत इस बात पर प्रथम दृष्टया सहमत होती है कि आरोपी जमानत पर छोड़ा जा सकता है तो अभियुक्त को नियमित जमानत दे दी जाती है। जमानत भी अलग अलग तरह की होती हैं। नियमित जमानत,अंतरिम जमानत की तरह डिफॉल्ट जमानत भी है।
भारत के कानून में डिफॉल्ट जमानत के प्रावधान क्रिमिनल प्रोसीज़र कोड, 1973 की धारा 167(2) में मिलतें हैं। किसी समय आरोपियों को गिरफ्तार करने के बाद लंबे समय तक चालान प्रस्तुत नहीं किया जाता था जिससे अभियुक्त के नैसर्गिक न्याय के अधिकारों का उल्लंघन होता था। इस समस्या से निटपने के लिए सीआरपीसी में यह प्रावधान किए गए हैं। पुलिस को अपना अंतिम प्रतिवेदन प्रस्तुत करने के लिए एक समय अवधि निर्धारित कर दी गई है और साथ ही रिमांड दिए जाने की समय अवधि भी इस ही धारा में प्रस्तुत की गई है। मजिस्ट्रेट 15 दिन की अवधि तक के लिए ही पुलिस को अभियुक्त का रिमांड दे सकता है।
इस धारा के प्रावधान यह स्पष्ट करते हैं कि अगर किसी अपराध में दस वर्ष से कम अवधि के कारावास से दंडित करने के प्रावधान हैं तब पुलिस को चालान साठ दिनों की अवधि के भीतर प्रस्तुत करना होगा। जिस दिन व्यक्ति को गिरफ्तार कर अदालत के समक्ष पेश किया गया है उस दिन से साठ दिनों के भीतर किसी भी सूरत में पुलिस द्वारा अपना चालान प्रस्तुत किया जाएगा।
अगर किसी अपराध में दस वर्ष से ऊपर की सज़ा से दंडित किए जाने के प्रावधान हैं तब पुलिस नब्बे दिनों की अवधि में चालान पेश करेगी। यदि इस अवधि से ऊपर समय बीत जाता है तब मजिस्ट्रेट अभियुक्त को डिफॉल्ट जमानत दे देंगे।
ऐसी डिफॉल्ट जमानत अभियुक्त का अधिकार है क्योंकि कानून पुलिस से शीघ्र काम करने की मांग करता है जिससे अभियुक्त के प्रकरण को आगे बढ़ाया जा सके।
मनोज बनाम मध्य प्रदेश राज्य एआईआर 1999 सुप्रीम कोर्ट 1403 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि धारा 167 (1) के अधीन औपचारिक रूप से गिरफ्तार अभियुक्त यदि धारा 167 (2) तथा धारा 57 की अपेक्षा के अनुसार मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया जाता है, तो ऐसी गिरफ्तारी 24 घंटे पश्चात् व्यर्थ हो जाती है। धारा 167 (2) के परन्तुक का लाभ स्वापक औषधि और मनःप्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985' (Narcotic Drugs and Psychotropic Substances Act, 1985) के अधीन किसी अपराध के अपराधी को उपलब्ध होगा।
जहाँ संविधि द्वारा नियत समयावधि से अधिक विलंब हो तथा यह विलंब अभियुक्त की उपस्थिति से संबंधित हो, तो उस दशा में मजिस्ट्रेट को रिमांड का आदेश अभियांत्रिकी रूप में पारित नहीं करना चाहिए भारतीय सुरक्षा नियमावली के नियम 129 के अन्तर्गत लिये गये निरोध की दशा में भी इस धारा के उपबंध यथावत पूरी तरह से लागू होंगे।
रामचन्द्र साहू बनाम उड़ीसा राज्य 1989 के मामले में विनिश्चित किया गया कि मात्र इस आधार पर कि अभियुक्त को उपखण्ड न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रेषित करते समय धारा 161 के अधीन उसके अभिलिखित कथन नहीं भेजे गए थे, विश्वसनीय और सच्चे साक्षी का अविश्वास नहीं किया जा सकता है। ज्ञातव्य है कि धारा 167 के उपबंध धारा 41 तथा धारा 151 के अधीन की गयी गिरफ्तारी की दशा में भी लागू होंगे।
ऐसी डिफॉल्ट जमानत नियमित जमानत की तरह ही होती है। अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने रितु छाबड़िया के मामले में स्पष्ट किया है कि अधूरी चार्जशीट प्रस्तुत करने के मामले अभियुक्त डिफॉल्ट जमानत मांग सकता है और उसे जमानत दी जा सकती है, कैसा भी अपराध हो पुलिस को निर्धारित समय अवधि के भीतर ही चार्जशीट दाखिल करनी होगी। हालांकि अभी सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तुत एक याचिका के आलोक में रितु छाबड़िया वाले मामले में दिए गए फैसले को मिसाल बनाने पर स्टे किया है।
डिफॉल्ट जमानत का ऐतिहासिक महत्व है क्योंकि कभी अभियुक्त को चालान नहीं आने के कारण ही जमानत नहीं मिल पाती थी। यह किसी भी अभियुक्त के साथ उसके नैसर्गिक अधिकारों का अतिक्रमण है।
167 (2) के अनुसार ऐसा मजिस्ट्रेट अभियुक्त को पुलिस को अभिरक्षा में रखने के लिए उतनी अवधि के लिए समय-समय पर प्राधिकृत कर सकता है जो कुल मिलाकर पन्द्रह दिन से अधिक न होगी। जब गिरफ्तार अभियुक्त मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाए तो मजिस्ट्रेट या तो अभियुक्त को जमानत पर छोड़ देगा या उसे पुलिस अभिरक्षा में रखे जाने हेतु आदेशित करेगा। 15 दिन की प्रथम अवधि के दौरान अभिरक्षा की प्रकृति को न्यायिक अभिरक्षा से पुलिस अभिरक्षा में बदला जा सकता है।
पन्द्रह दिन की अवधि के पश्चात् अभियुक को केवल न्यायिक अभिरक्षा में या अन्य किसी अभिरक्षा में जैसा कि मजिस्ट्रेट आदेश दे, रखा जा सकता है, किन्तु उसे पुलिस अभिरक्षा में नहीं रखा जा सकता है यदि कोई मजिस्ट्रेट जिसे अभियुक्त का विचारण करने को अधिकारिता नहीं है और उसका विचार है कि अभियुक्त को अभी निरुद्ध रखा जाना आवश्यक है, तो वह उसे सक्षम अधिकारिता रखने वाले मजिस्ट्रेट के पास भेजे जाने का निर्देश देगा।
लेकिन ऐसा कोई भी मजिस्ट्रेट अभियुक्त को पंद्रह दिन से अधिक निरोध में रखने के लिए तभी प्राधिकृत करेगा जब उसे इस बात का समाधान हो जाए कि इसके लिए पर्याप्त आधार है। लेकिन इस तरह के अभिरक्षा की अवधि-
(i) नब्बे दिन से अधिक नहीं हो सकती है, यदि अपराध जिसका अन्वेषण किया जाता है मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास या दस वर्ष से अधिक अवधि तक के कारावास से दण्डनीय न हो।
(ii) साठ दिन से अधिक नहीं हो सकती है, यदि अपराध जिसका अन्वेषण किया जाता है कोई अन्य अपराध है। उक्त अवधि की समाप्ति के पश्चात् यदि अभियुक्त जमानत देने के लिए तैयार है या जमानत दे सकता है, तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जाएगा। लेकिन जमानत न दिए जाने की दशा में उसका अभिरक्षा में निरोध बना रहेगा। उस दशा में अभियुक्त प्रत्येक स्थिति में जमानत का हकदार होगा। लेकिन 60 दिन तथा 90 दिन की अवधि के पश्चात् निरोध अप्राधिकृत होगा। इस तरह से जारी की गयी जमानत को धारा 437 (5) के अधीन रद्द किया जा सकता है।
धारा 167 (2) के सन्दर्भ में बशीर तथा अन्य बनाम हरियाणा राज्य एआईआर 1978 सुप्रीम कोर्ट 55 का वाद महत्वपूर्ण है। इस वाद में अपीलार्थीगण बशीर, कुंदन तथा सादिक आदि को आठ अन्य व्यक्तियों के साथ मिलकर सगरू नामक व्यक्ति की हत्या तथा तीन अन्य को गंभीर और साधारण चोटें पहुंचाने के आरोप में बन्दी बनाया गया था तथा इन पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 (सहपठित धारा 149), धारा 347 (सहपठित धारा 149) और धारा 143 (सहपठित धारा 147) के अपराध आरोपित थे।
इस घटना की प्रथम सूचना रिपोर्ट दिनांक 2 दिसम्बर, 1975 को लिखाई गई थी और उसी दिन सभी अभियुक्तगणों को बन्दी बना लिया गया था। सत्र न्यायालय द्वारा अपीलार्थियों के अतिरिक्त अन्य आठों अभियुक्तों की जमानत स्वीकार करते हुए दिनांक 15 दिसम्बर, 1975 को इन तीन अपीलार्थियों का प्रतिभूति आवेदन पत्र अस्वीकार कर दिया गया क्योंकि अभियोजन पक्ष के अनुसार इन्हीं तीनों ने मृतक सगरू को चोटें पहुँचाई थीं।
हाई कोर्ट के द्वारा भी तीनों अपीलार्थियों के प्रतिभूति आवेदन पत्र आदेश दिनांक 5 फरवरी, 1976 द्वारा अस्वीकार किए गए थे। लेकिन जब अपीलार्थीगण को बन्दी बनाए जाने से 60 दिनों की अवधि के भीतर जैसा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के परन्तुक (ii) में प्रावधान था, इनके विरुद्ध पुलिस द्वारा चालान कोर्ट में प्रस्तुत नहीं किया गया, तो कोर्ट द्वारा इन्हें जमानत पर छोड़ दिया गया। इसके पश्चात् पुलिस द्वारा अपीलार्थियों तथा अन्य आठ अभियुक्तों के विरुद्ध न्यायालय में चालान पेश कर दिया गया। दण्डाधिकारी द्वारा उक्त प्रकरण सेशन कोर्ट को विचारण हेतु सुपुर्द कर दिया गया।
सेशन कोर्ट में मामला सुपुर्द कर दिए जाने पर प्रकरण के अभियोगी द्वारा इन तीनों अपीलार्थियों को जमानत निरस्त कर दिये जाने के लिए इस आधार पर आवेदन पत्र दिया गया कि पूर्व में इन तीनों ही अपीलार्थियों द्वारा प्रस्तुत जमानत आवेदन को गुण-दोषों पर विचार कर लेने के पश्चात् सेशन कोर्ट एवं हाई कोर्ट द्वारा अस्वीकार किया गया था। अतः मामला सेशन कोर्ट के सुपुर्द हो जाने पर इनकी जमानत को निरस्त कर दिया जाना चाहिए।
अपने इस प्रार्थना पत्र की पुष्टि में उसकी ओर से पंजाब हाई कोर्ट द्वारा अजायब सिंह बनाम पंजाब राज्य का पूर्व निर्णय प्रस्तुत किया गया जिसमें विनिश्चित किया गया था कि जब अभियुक्तगण के विरुद्ध धारा 173 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत न्यायालय में चालान प्रस्तुत नहीं किया जाता, तो न्यायालय के पास ऐसे अभियुक्त को जमानत पर छोड़ने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह जाता, भले ही आरोपित अपराधों का स्वरूप कितना भी जघन्य (heinous) क्यों न हो, लेकिन चालान प्रस्तुत कर दिया जाने पर न्यायालय को यह विवेकाधिकार प्राप्त है कि वह स्वीकृत प्रतिभूति को निरस्त कर सके। उक्त पूर्व दृष्टान्त को मानते हुए सेशन कोर्ट द्वारा अपीलार्थियों की जमानत को रद्द कर दिया गया।
अपीलार्थियों द्वारा प्रतिभूति रद्द किये जाने के इस आदेश के विरुद्ध पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट में अपील प्रस्तुत की गई जिसमें हाई कोर्ट ने अपीलार्थी के इन तर्कों को मान्य नहीं किया कि जब अपोतार्थियों को धारा 167 (2) दण्ड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों के अन्तर्गत जमानत पर छोड़ दिया गया हो, तो ऐसे आदेश को उस समय तक निरस्त नहीं किया जा सकता कि जब तक कि उनके विरुद्ध प्रतिभूति की शर्तों के दुरुपयोग अथवा दुराचरण का आक्षेप न हो।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के प्रावधानों के अन्तर्गत जमानत लिए जाने का ऐसा आदेश अध्याय 33 के अन्तर्गत दिया गया आदेश माना जाने का प्रावधान यह स्पष्ट दर्शाता है कि प्रतिभूति के ऐसे आदेश को धारा 437 (5) में वर्णित उपबंधों के अनुसार ही निरसित किया जा सकता है जिसके लिए पर्याप्त आधार आवश्यक होंगे। हाई कोर्ट द्वारा अपीलार्थियों को अपील अस्वीकार कर दी गई।
हाई कोर्ट द्वारा दिये गये उक्त निर्णय के विरुद्ध अपीलार्थियों ने विशेष अनुमति प्राप्त करके यह अपील इन्हीं आधारों पर सुप्रीम कोर्ट में दायर की सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में अभिनिर्धारित किया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के उपबंधों के अन्तर्गत जमानत पर छोड़े जाने के पश्चात् प्रकरण का चालान पेश कर दिये जाने मात्र से ऐसो स्वीकृत जमानत को निरस्त नहीं किया जा सकता है तथा ऐसी जमानत को आवश्यकतानुसार सीआरपीसी की धारा 437 (5) के अन्तर्गत ही निरस्त किया जा सकेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी विनिश्चित किया कि सीआरपीसी की धारा 437 (1) अथवा (2) के अन्तर्गत स्वीकृत जमानत को आवश्यकतानुसार निरस्त कर दिये जाने की शक्ति कोर्ट को धारा 437 (5) के अन्तर्गत प्राप्त है और यह ही प्रावधान धारा 167 (2) के अन्तर्गत ली गई जमानत के प्रति भी लागू होंगे।
धारा 167 (2 क) के उपबंधों के अधीन जमानत पर छोड़ गया व्यक्ति इस संहिता के अध्याय 33 के उपबंधों के अधीन जमानत पर छोड़ा गया माना जाएगा
हालांकि साठ और नब्बे दिनों की अवधि एक उच्चतम अवधि है, ऐसा आवश्यक नहीं है कि कोई भी चालान साठ या नब्बे दिनों के होने पर ही प्रस्तुत किया जाएगा। कानून तो पुलिस से यह आशा करता है कि वह शीघ्र से शीघ्र चालान पेश करे जिससे कोई भी अभियुक्त यदि अनावश्यक जेल में निरूद्ध है तो उसे जमानत दी जा सके।
किसी भी चालान से अदालत प्रथम दृष्टया यह मानती है कि वास्तव में अभियुक्त पर किसी अपराध का आरोप है, तब वह किसी आरोपी के जेल में रहने वाले प्रश्न पर आश्वस्त हो जाती है। लेकिन यदि किसी आरोपी के ख़िलाफ़ पुलिस के पास कोई मटेरियल ही नहीं है तब ऐसे अभियुक्त को जेल में रखा जाना अन्याय ही होगा।