घरेलू हिंसा अधिनियम (DV Act) में व्यथित महिला द्वारा मजिस्ट्रेट को आवेदन करने का तरीका

Update: 2025-10-08 14:45 GMT

धारा 12 के अधीन अनुतोष के लिए आवेदन की पोषणीयता यह सत्य है कि अधिनियम, भूतलक्षी नहीं है। तथापि याची अधिनियम के अधीन भविष्यलक्षी अनुतोष की वांछा कर रहा न कि भूतलक्षी परिणामतः यह नहीं कहा जा सकता है कि अधिनियम की धारा 12 के अधीन प्रत्यर्थी द्वारा दाखिल आवेदन पोषणीय नहीं है।

अभिव्यक्ति "जो साझी गृहस्थी में एक साथ रहते हैं या किसी समय एक साथ रह चुके हैं" प्रदर्शित करती है कि पक्षकारगण अर्थात् व्यथित व्यक्ति एवं प्रत्यर्थी के बीच विद्यमान नातेदारी, अधिनियम की धारा 12 के अधीन अनुतोष चाहने के लिए आवेदन दाखिल करने के लिए, अनिवार्य नहीं है। इस दृष्टि से तलाकशुदा महिला द्वारा आवेदन पोषणीय है।

यह स्पष्ट है कि घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के प्रावधान मुख्य रूप से, घरेलू हिंसा आदि के कारण प्रभावित महिला को अनुतोष प्रदान के लिए विनिर्मित किया गया है। प्रत्यर्थी ऐसे मामलों में अभियुक्त नहीं होता जब तक वह अधिनियम के प्रावधानों के अधीन कोर्ट द्वारा पारित आदेश का उल्लंघन कारित नहीं करता है। अधिनियम की धारा 31 के अधीन किसी आदेश के उल्लंघन के बाद ही प्रत्यर्थी को अभियुक्त की तरह व्यवहत किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में अधिनियम के अधीन प्रक्रिया अर्थ-सिविल प्रकृति की होती है एवं ऐसी प्रक्रिया में कोर्ट को आवेदन एवं लिखित कथन में संशोधन को अनुमन्य करने की शक्ति होगी।

घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण नियमावली, 2006 का प्रारूप 11 धारा 12 की उपधारा (1) के अधीन आवेदन के प्रारूप को अन्तर्विष्ट करता है। प्रारूप अपेक्षित करता है कि अनुतोषों की प्रकृति आवेदन में अन्तर्विष्ट की जाएगी। नियम 6 का उपनियम (5) प्रावधानित करता है कि धारा 12 के अधीन आवेदन एवं पारित आदेश उसी रीति में प्रवृत्त किये जाएंगे जैसे वे दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के अधीन प्रवृत्त किये जाते हैं।

धारा 12 (1) के अधीन निम्न के द्वारा मजिस्ट्रेट को आवेदन किया जा सकता है

व्यथित व्यक्ति; या

संरक्षण अधिकारी या

व्यथित व्यक्ति की ओर से किसी अन्य व्यक्ति

धारा 12 के अधीन आवेदन को विचारित करने के लिए कोई सिविल कोर्ट या परिवार कोर्ट क्षेत्राधिकार नहीं रखती है केवल मजिस्ट्रेट घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 के अधीन याचिका को विचारित करने की प्राधिकार से युक्त होता है, धारा 12 के अधीन आवेदन को विचारित करने का क्षेत्राधिकार किसी सिविल कोर्ट या परिवार कोर्ट को नहीं होता है। परिणामतः यह कोर्ट मजिस्ट्रेट के समक्ष विचाराधीन धारा 12 के अधीन याचिका को परिवार कोर्ट में अन्तरित करने का निर्देश नहीं दे सकती एवं इस प्रकार परिवार कोर्ट को धारा 12 के अधीन ऐसे आवेदन विचार करने के क्षेत्राधिकार प्रदान करने जैसा होगा अन्तरण की प्रार्थना को इस प्रकार नहीं स्वीकृत किया जा सकता।

एक मामले में कहा गया है कि अपराध कारित होना तब समझा जाता है, जब "प्रत्यर्थी" कार्यवाही में पारित किए गये आदेशों का अनुपालन करने में भंग कारित करता है और उस स्थिति में धारा 469 का प्रावधान प्रयोजनीय होता है। यह अभिनिर्धारित किया गया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 468 का प्रावधान प्रवर्तन में केवल तब आता है, जब अधिनियम की धारा 12 की कार्यवाही के अधीन पारित किए गये आदेशों का "प्रत्यर्थी" के द्वारा भंग कारित किया जाता है।

यदि कोई शिकायत किसी महिला द्वारा घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 का 43 के अधीन अपराध को परिवार की किसी सदस्य द्वारा कारित किये जाने के लिए अभिकथित की जाती है तो मामले को गम्भीरता से लेना चाहिए। पुलिस बिना समुचित सत्यापन एवं अन्वेषण के यह रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं कर सकती है कि कोई मामला नहीं बनता है। अन्वेषण एजेन्सी को न केवल परिवार के सदस्यों बल्कि पड़ोसियों, मित्रों एवं अन्य से भी जांच पड़ताल करनी चाहिए। ऐसी जांच के बाद ही अन्वेषण एजेन्सी निश्चित राय बना सकती है एवं रिपोर्ट प्रस्तुत कर सकती है परन्तु अधिनियम के प्रावधानों के अधीन "किसी अपराध का संज्ञान" लेना है या नहीं इसका विनिश्यक कोर्ट लेगी।

शब्द "शिकायत" को सीमित अर्थ दिये जाने की आवश्यकता नहीं होती है- यह सत्य है कि अधिनियम की धारा 2 (ध) के परन्तुक के अधीन शब्द "शिकायत" का प्रयोग किया गया है और अधिनियम की धारा 12 की उपधारा (1) के अधीन व्यथित व्यक्ति को "आवेदन" दाखिल करने की अनुमति दी गई है। तथापि, शब्द शिकायत को घरेलू हिंसा की शिकायत करने वाली महिला के लिए इसे सामान्य अर्थों में प्रयोग किया गया है एवं न कि किसी आपराधिक अपराध के परिवाद के अर्थों में नियम के अधीन अर्थात् घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण नियम, 2006 के अधीन पद शिकायत नियम 2 (ख) में परिभाषित है, जिसका तात्पर्य संरक्षण अधिकारों से किए गए किसी मौखिक या लिखित शिकायत से है।

इस प्रकार अधिनियम की धारा 2 के खण्ड (घ) के परन्तुक में प्रयुक्त शिकायत शब्द को सीमित अर्थ दिये जाने की आवश्यकता नहीं होतो एवं इसे परेलू हिंसा की शिकायत करने वाले व्यथित व्यक्ति द्वारा की गई किसी कार्यवाही या आवेदन के संदर्भ में समझा जाना चाहिए।

के नरसिम्हन बनाम श्रीमती रोहिनी देवानाथन, 2010 के वाद में याची के विरुद्ध केवल यह आरोप है कि प्रथम अभियुक्त अर्थात् प्रत्यर्थी के पति के कहने पर यह याची से चेन्नई में मिली एवं यहाँ उसने गाली दिया जो कि याची के अनुसार भावनात्मक दुरुपयोग था धारा 2 (च) या 2 (ध) के अनुसार जब याची एवं प्रत्यर्थी एक हो गृहस्थी में कभी नहीं रहे तो उसके विरुद्ध आरोप लगाने का प्रश्न हो नहीं उठता। इसके अलावा, याची कनाडा में रह रहा था एवं जब वह भारत आया तो चेन्नई में रुका।

इन परिस्थितियों में प्रत्यर्थी के विरुद्ध निश्चित आरोप लगाना स्वयं में घरेलू हिंसा की कोटि का नहीं होगा एवं इस बात का कोई सबूत नहीं है कि याची एवं प्रत्यर्थी किसी समय एक साथ रहे थे या एक साथ रह रहे थे। इन परिस्थितियों में, याची के विरुद्ध प्रारम्भ की गई प्रक्रिया एवं प्रतिवादी द्वारा दाखिल शिकायत भी कार्यवाही का दुरुपयोग है।

अधिनियम के अधीन कार्यवाही को उक्त अधिनियम की धारा 12 (1) के अनुसार प्रारम्भ किया जा सकता है। कार्यवाही व्यथित व्यक्ति या संरक्षण अधिकारी या व्यथित व्यक्ति की ओर से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा प्रारम्भ की जा सकती है। धारा 12 (1) के अधीन आवेदन को घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण नियम, 2006 के नियम 6 द्वारा विहित प्ररूप के अनुसार दाखिल किया जाना अपेक्षित होता है। अधिनियम की धारा 12 की उपधारा (4) के अधीन आवेदन की प्राप्ति के बाद मजिस्ट्रेट से पहली सुनवाई को तिथि नियत करना एवं उक्त अधिनियम की धारा 13 के अनुसार नोटिस जारी करना अपेक्षित होता है। अधिनियम की धारा 12 (1) के अधीन आवेदन पर अधिनियम आदेशिका या समन या वारण्ट जारी करना अनुध्यात नहीं करती।

धारा 12 का परन्तुक अधिरोपित करता है कि व्यक्ति व्यक्ति के आवेदन पर कोई आदेश पारित करने से पहले, मजिस्ट्रेट संरक्षण अधिकारी से उसे प्राप्त की गई घरेलू घटना रिपोर्ट को विचारित करेगा। परन्तुक में अनुध्यात आदेश अन्तिम आदेश से सम्बन्धित होता है जो मजिस्ट्रेट अधिनियम की धारा 18 के अधीन पारित कर सकता है। संरक्षण आदेश जो मजिस्ट्रेट अधिनियम की धारा 18 के अधीन पारित कर सकता है, वह मात्र प्रथम दृष्ट्या इस संतुष्टि पर है कि घरेलू हिंसा घटित हुई है या घटित होने की सम्भावना है।

संरक्षण अधिकारी का घरेलू घटना रिपोर्ट को विचारित करने पर जोर देना अधिनियम की धारा 12 के अधीन जांच के आरम्भ के प्रक्रम पर लागू नहीं होगा। याचीगण का तर्क कि बिना घरेलू हिंसा रिपोर्ट को विचारित किए जाँच एकदन से शुरू करना अनुचित है, भ्रामक प्रतीत होता है एवं इस प्रकार, इसे अवधार्य नहीं किया जा सकता।

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