एफआईआर (FIR) एक साधारण और आम शब्द है। आम जीवन में पुलिस और उससे जुड़े शब्द एफआईआर को काफी सुना जाता है। अपराध विधि में आम और दैनिक जीवन में सर्वाधिक चर्चाओं में रहने वाला शब्द एफआईआर ही है। इस आलेख के माध्यम से एफआईआर पर विस्तारपूर्वक चर्चा की जा रही है।
FIR शब्द दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 से निकल कर आता है, जिसका पूरा नाम फर्स्ट इनफॉर्मेशन रिपोर्ट है। हिंदी में इसे प्राथमिकी भी कहा जाता है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 के अंतर्गत इसे संज्ञेय मामलों की इत्तिला कहा गया है। दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत अपराधों को दो प्रकार में बांटा गया है, संज्ञेय और असंज्ञेय। इसके आधार पर ही संज्ञेय अपराधों की रिपोर्ट के लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 को रखा गया है।
धारा 154 के शाब्दिक अर्थों में FIR को कुछ यूं कहा गया है
'संज्ञेय अपराध के किए जाने से संबंधित प्रथम इत्तिला यदि पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को मौखिक दी गयी है तो उसके द्वारा या उसके निर्देशन में लेखबद्ध कर ली जाएगी और इत्तिला देने वाले को पढ़कर सुनाई जाएगी। प्रत्येक ऐसी इत्तिला पर चाहे वह लिखित रूप में दी गयी हो या मौखिक रूप में लेखबद्ध कर उस व्यक्ति के द्वारा हस्ताक्षर किए जाएंगे, जो उसे दे रहा है उसका सार ऐसी पुस्तक में जो उस भारसाधक अधिकारी द्वारा ऐसे रूप में रखी जाएगी जिसे राज्य सरकार इस निमित्त विहित करें, प्रविष्ट किया जाएगा।'
धारा के इन शब्दों से मालूम होता है के इन शब्दों में प्रथम इत्तिला को किस प्रकार से अभिलिखित किया जाएगा तथा उसके लिए प्रक्रिया क्या होगी, परंतु धारा इस पर विशेष चर्चा नहीं करती है के प्रथम सूचना रिपोर्ट अर्थात FIR का मूल अर्थ क्या है।
उच्च न्यायालय तथा उच्चतम न्यायालय और विधि के महान जानकारों से निकलकर कुछ विशेष बातें सामने आती है जो प्रथम सूचना रिपोर्ट से संबंधित है। इस लेख में लेखक प्रथम सूचना रिपोर्ट को अपने शब्दों में समझाने का प्रयास कर रहा है।
संज्ञेय मामलों में इत्तिला
सीआरपीसी की धारा 154 के अधीन अभिलिखित की गयी सूचना को प्रथम इत्तिला रिपोर्ट कहा जाता है जो अपराध के बारे में प्रथम इत्तिला होती है। इसलिए इसे प्रथम सूचना रिपोर्ट कहा जाता है। यह धारा किसी संज्ञेय अपराध के घटित होने की प्रथम सूचना अधिकारी को दिए जाने से संबंधित है ताकि पुलिस इसके आधार पर अन्वेषण की कार्यवाही कर सकें।
प्रथम सूचना रिपोर्ट के बारे में निम्न बातें हैं
धारा 154 के अनुसार इत्तिला उस पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को दी जाएगी जिसे मामले में अन्वेषण करने की शक्ति है। प्रथम सूचना रिपोर्ट वही पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी अभिलिखित करता है जिसे मामले में अन्वेषण करने की शक्ति हो।
प्रथम सूचना रिपोर्ट को अन्वेषण का प्रारंभिक चरण मान लिया जाए, कोई भी पुलिस अधिकारी जो किसी मामले में अन्वेषण करने की शक्ति रखता है वह अपना अन्वेषण प्रारंभ करने के पूर्व एफआईआर दर्ज करता है।
यदि इत्तिला लिखित रूप में दी गयी हो तो उसे उपयुक्त रीति से लेखबद्ध किया जाएगा तथा उस पर इत्तिला देने वाले व्यक्ति के हस्ताक्षर करा लिए जाएंगे।
जहां मौखिक इत्तिला दी गयी और लेखबद्ध की गयी हो उसे इत्तिला देने वाले को पढ़कर सुनाया जाएगा। पुलिस अधिकारी द्वारा इत्तिला का सार ऐसी पुस्तक में प्रविष्ट किया जाएगा जो उस हेतु राज्य सरकार द्वारा विहित की गई हो। इत्तिला देने वाले व्यक्ति को इत्तला की एक प्रतिलिपि मुफ्त दी जाएगी।
हरियाणा राज्य बनाम चौधरी भजनलाल एआरआई 1993 उच्चतम न्यायालय 604 के वाद में कहा गया है जब किसी व्यक्ति द्वारा पुलिस अधिकारी को कोई संज्ञेय अपराध घटित होने की प्रथम सूचना दी जाती है तो पुलिस अधिकारी को ऐसी सूचना को अभिलिखित करना ही होगा।
अरविंद कुमार बनाम बिहार राज्य के मामले में एक बहुत सारवान बात कही गयी है। इस मुकदमे में प्रथम इत्तिला रिपोर्ट के साक्ष्य के मूल्य पर प्रकाश डालते हुए अभिमत प्रकट किया गया है कि- प्रथम इत्तिला रिपोर्ट स्वयं मौलिक साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं होती है, क्योंकि प्रथम सूचना रिपोर्ट प्राप्त होने के बाद ही पुलिस को अपराध का अन्वेषण करना होता है। इसका उपयोग केवल इत्तिला करने वाले व्यक्ति के कथनों के खंडन या अनुसमर्थन हेतु किया जा सकता है।
धारा 154 के अंतर्गत प्रथम सूचना रिपोर्ट को लेकर एक महत्वपूर्ण बात कही गयी है। यदि पुलिस अधिकारी प्रथम सूचना रिपोर्ट को अभिलिखित करने से इनकार कर देता है तो दंड विधि का क्रियान्वयन ही प्रारंभ नहीं होगा इसलिए ऐसी दशा में धारा 154 में उपधारा 3 के भीतर यह व्यवस्था की गयी है।
इत्तिला देने वाला व्यक्ति इत्तिला का सार लिखित रूप में प्रत्याक्षतः अथवा डाक द्वारा संबंधित पुलिस अधीक्षक को दे सकता है या भेज सकता है। पुलिस अधीक्षक यह समाधान कर लेने के पश्चात कि वास्तव में कोई संज्ञेय अपराध घटित हुआ है स्वयं मामले का अन्वेषण करेगा या अपने किसी अधीनस्थ पुलिस अधिकारी को अन्वेषण करने हेतु निर्देशित करेगा।
बाबा जी उर्फ बृजेश कुमार मोहंती बनाम उड़ीसा राज्य के वाद में उच्च न्यायालय द्वारा यह निर्णय लिया गया है कि यदि पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी ने डॉक्टरी रिपोर्ट प्राप्त करने के बाद रिपोर्ट लिखी हो तो यह रिपोर्ट प्रथम सूचना रिपोर्ट के अधीन नहीं आएगी।
FIR से जुड़ी मुख्य बातें एवं वाद
जिंदर अली शेख बनाम पश्चिम बंगाल राज्य 2009 उच्चतम न्यायालय 761 के मुकदमे में बलात्संग की पीड़िता द्वारा पुलिस थाने में प्रथम सूचना रिपोर्ट हेतु निवेदन किए जाने पर पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी ने मामला दर्ज करने से इंकार कर दिया और पीड़िता को परामर्श दिया कि वह अभियुक्त के साथ आपसी तरीके से मामला निपटा लें।
इस पर पीड़िता ने धारा 156 (3) के अंतर्गत मजिस्ट्रेट के पास गुहार लगायी और जब मजिस्ट्रेट द्वारा निर्देश दिए जाने पर पीड़िता की एफआईआर रजिस्टर की गयी। इस कारण पीड़िता के प्रकरण में चिकित्सकीय एविडेंस जुटाने में 6 माह का विलंब हुआ। न्यायालय ने अभिकथन किया कि पुलिस लापरवाही के कारण इस प्रकरण में मूल्यवान समय नष्ट हो गए जिसके लिए दोषी पुलिस अधिकारी की जितनी निंदा की जाए वह कम है।
प्रथम सूचना रिपोर्ट में देरी होने के कारण उत्पन्न हुए वाद
उच्चतम न्यायालय ने रमेशचंद्र नंदलाल पारीक बनाम गुजरात राज्य के बाद में विनिश्चय किया है कि यदि अभियुक्त के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट के आधार पर कोई आपराधिक कार्यवाही चल रही हो तथा अपराधी द्वारा उसी प्रकार का अपराध पूर्ववर्त किया जाता है जिसकी प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखायी गयी हो तो ऐसी स्थिति में पश्चातवर्ती रिपोर्ट इस आधार पर अभिखण्डित नहीं हो जाती क्योंकि वैसा ही अपराध पूर्व में दायर किया गया है और एफआईआर दर्ज होने के कारण दोबारा रिपोर्ट नहीं लिखी जा सकती।
पंजाब राज्य बनाम गुरमीत सिंह के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिकथन किया है कि बलात्कार जैसे लैंगिक अपराध के मामले में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट फाइल करने में देरी की जाना आम बात है। यदि परिवादिनी के पास इसके लिए पर्याप्त कारण हो तो इस पर विशेष महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। इसका कारण यह है कि ऐसे मामले में पीड़ित महिला तथा उसके परिवारजन संकोच, लज्जा या परिवार के सम्मान को ध्यान में रखते हुए यह सोचने में काफी समय गवा देते है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट दायर की जाए अथवा नहीं।
पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी
FIR में पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। किसी भी कांस्टेबल से ऊपर की रैंक के अधिकारी को पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी माना गया है। हेड कांस्टेबल भी पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी नहीं होता है।
धारा 154 के अधीन संज्ञेय अपराध के संदर्भ में की जाने वाली रिपोर्ट पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी से निम्न श्रेणी के पुलिस अधिकारी द्वारा अभिलिखित नहीं की जा सकती, यदि थाने का भारसाधक अधिकारी पुलिस थाने से परे हो तो उक्त पद थाने के हेड कांस्टेबल द्वारा धारित किया जा सकता है तथा हेड कांस्टेबल द्वारा पुलिस को दी गयी इत्तिला का अभिलेखन किया जाएगा किंतु इस तरह से दी गयी इत्तिला का अभिलेखन किसी भी दशा में हेड कांस्टेबल की अनुपस्थिति में कांस्टेबल द्वारा नहीं किया जाएगा।
हेड कांस्टेबल भी उसी समय प्रथम सूचना रिपोर्ट को अभिलिखित कर सकता है जिस समय थाने में हेड कांस्टेबल से ऊंची रैंक का कोई अधिकारी उपस्थित नहीं हो। सामान्यतः सब इंस्पेक्टर द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट अभिलिखित की जाती है जिसकी वर्दी पर दो तारे लगे होते हैं
एफआईआर में सभी अभियुक्तों के नाम होना आवश्यक नहीं है
दिलीप प्रेम नारायण तिवारी बनाम महाराष्ट्र राज्य के वाद में अभिकथन किया गया है कि प्रथम इत्तिला रिपोर्ट में कुछ अभियुक्तों के नाम का उल्लेख नहीं किया जाना, विशेष महत्व नहीं रखता है। विशेषतः तब जब सूचना देने वाली महिला अपने युवा पुत्र और देवर को मृत लाशें देखकर गहरे सदमे में हो और उसे अन्य परिवारजनों के घायल होने के बारे में भी बताया गया है।
टेलीफोन के माध्यम से एफआईआर
धारा 154 में यह दर्शाया गया है कि किसी सूचना को प्रथम सूचना रिपोर्ट माने जाने के लिए आवश्यक होता है कि वह सूचना देने वाले व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित हो। इस दृष्टिकोण से टेलीफोन पर दी गयी सूचना धारा 154 की हस्ताक्षरित होने वाली शर्त पूरा नहीं करती परंतु इसे केवल एक औपचारिकता मात्र मानते हुए दूरभाष से पुलिस अधिकारी को दी गयी सूचना इत्तिला को प्रथम सूचना रिपोर्ट माना गया है।
इस संबंध में उच्चतम न्यायालय ने तपेंद्र सिंह बनाम पंजाब राज्य के बाद में विनिश्चय किया कि दूरभाष द्वारा दी गयी इत्तिला को प्रथम सूचना रिपोर्ट माना जाए अथवा नहीं यह तथ्य का प्रश्न है, परंतु इसमें किसी संज्ञेय अपराध घटित होने के निश्चित साक्ष्य नहीं मिलते हैं तो उसे प्रथम सूचना रिपोर्ट नहीं माना जाएगा। इसी प्रकार सूचना में कोई संदिग्धता हो तो उस स्थिति में भी उसे प्रथम सूचना रिपोर्ट नहीं माना जाएगा।
उच्चतम न्यायालय ने एक बहुत महत्वपूर्ण फैसले वेंकटस्वामी बनाम लोक अभियोजक आंध्र प्रदेश के वाद में अभिनिर्धारित किया है कि जहां पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को टेलीफोन पर यह सूचना दी गयी हो कि एक जीप पर बम फेंका गया है जिसके कारण 2 व्यक्ति मारे गए है अन्य कई घायल हुए है।
पुलिस अधिकारी ने रिपोर्ट दर्ज न करते हुए इसकी सूचना अपने वरिष्ठ अधिकारी को भेज दी उस अधिकारी के आने के बाद सूचना देने वाले इत्तिलाकार ने एक लिखित शिकायत दर्ज करायी। उच्चतम न्यायालय ने निश्चित किया है- यह कहना उचित नहीं होगा की उक्त लिखित शिकायत प्रथम इत्तिला रिपोर्ट नहीं थी और रिपोर्ट लिखवाने में उस पुलिस अधिकारी ने कोई अनावश्यक रुचि दर्शायी थी।
प्रथम सूचना रिपोर्ट को तत्काल मजिस्ट्रेट के पास भेजा जाना चाहिए
प्रथम सूचना रिपोर्ट तत्काल मजिस्ट्रेट के पास भेजी जाती है। धारा 157 (1) में प्रयुक्त तत्काल शब्द स्पष्टता दर्शाता है कि पुलिस द्वारा मामला दर्ज कर प्रथम इत्तिला रिपोर्ट संबंधित मजिस्ट्रेट को अविलंब अग्रेषित कर दी जानी चाहिए। इससे अभियोजन का प्रकरण स्वयं में संदेह का पत्र नहीं बन जाता, पुलिस द्वारा मजिस्ट्रेट को प्रथम सूचना रिपोर्ट शीघ्र से शीघ्र भेजी जानी चाहिए।
ज़ीरो एफआईआर
ज़ीरो FIR का साधारण यह अर्थ होता है कि वह किसी भी थाने पर दर्ज करायी जा सकती है, जिसका अभिलेखन किसी भी थाने के अधिकारी द्वारा किया जा सकता है। इस प्रकार की FIR को पूर्ण रूप से तो मान्यता नहीं दी गयी है परंतु बलात्कार इत्यादि के मामलों में इस प्रकार की एफआईआर को मान्यता दी गयी है तथा बलात्कार से पीड़िता किसी भी थाना क्षेत्र में जो उसके निकट है, वहां जाकर अपने साथ घटित हुई घटना की जानकारी पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को दे सकती है।
वह अधिकारी प्रारंभिक सूचना को रजिस्टर करके मामले को संबंधित थाने में अग्रेषित कर देगा, अधिकांश मामलों में एफआईआर उस ही थाना क्षेत्र द्वारा अभिलिखित की जाती है जिस थाना क्षेत्र में अपराध घटित हुआ है, इसका उपयोग अत्यंत विरलतम मामलों में ही किया जाता है।
प्रथम सूचना रिपोर्ट का साक्ष्य में महत्व
यह पूर्णतः निश्चित हो चुका है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट पूर्ण साक्ष्य नहीं होती है अर्थात इसे उन तत्वों के साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है जिसका उल्लेख प्रथम सूचना रिपोर्ट में किया गया है, यह अंतिम रूप से स्थापित हो चुका है कि जबकि FIR को साक्ष्य अधिनियम 1872 के अध्याय 2 के अंतर्गत प्रस्तुत किया गया हो, इसका उपयोग साक्ष्य अधिनियम की धारा 157 तथा धारा 155 के अधीन केवल साक्षी द्वारा किए गए कथन की पुष्टि करने एवं खंडन करने या उसे अविश्वसनीय साबित करने के लिए ही किया जा सकता है।