क्या धारा 170 CrPC के तहत हिरासत का मतलब गिरफ्तारी है?

Update: 2024-12-12 15:20 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने सिद्धार्थ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य व अन्य (2021) मामले में एक महत्वपूर्ण सवाल पर फैसला दिया कि क्या CrPC (Criminal Procedure Code) की 170 के तहत आरोपपत्र (Chargesheet) दाखिल करने से पहले आरोपी को अनिवार्य रूप से हिरासत (Custody) में लिया जाना चाहिए।

इस निर्णय ने संविधान में निहित व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) के सिद्धांत को दोहराया और पुलिस द्वारा गिरफ्तारी के अधिकार का दुरुपयोग रोकने का प्रयास किया।

धारा 170 CrPC: एक संक्षिप्त अवलोकन (Section 170 CrPC: A Brief Overview)

CrPC की धारा 170 में कहा गया है कि अगर पुलिस अधिकारी को जांच के दौरान किसी आरोपी के खिलाफ पर्याप्त सबूत मिलते हैं, तो उसे मजिस्ट्रेट (Magistrate) के समक्ष हिरासत में पेश किया जाएगा। हालांकि, अगर अपराध जमानती (Bailable) हो, तो आरोपी अपनी उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए जमानत (Bail) दे सकता है।

इस प्रावधान की वजह से अक्सर यह गलतफहमी होती है कि आरोपपत्र दाखिल करने से पहले आरोपी को गिरफ्तार (Arrest) करना जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में स्पष्ट किया कि "Custody" का मतलब पुलिस या न्यायिक हिरासत (Judicial Custody) नहीं है, बल्कि यह केवल आरोपी को अदालत में पेश करने का संकेत देता है।

व्यक्तिगत स्वतंत्रता और न्यायिक दृष्टांत (Personal Liberty and Judicial Precedents)

सुप्रीम कोर्ट ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) के महत्व पर जोर देते हुए कहा कि गिरफ्तारी (Arrest) एक साधारण या औपचारिक प्रक्रिया नहीं होनी चाहिए। केवल इसलिए कि गिरफ्तारी कानूनी रूप से संभव है, इसका मतलब यह नहीं कि इसे हर मामले में किया जाए।

कोर्ट ने जोगिंदर कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य व अन्य (1994) के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि गिरफ्तारी की शक्ति (Power to Arrest) और गिरफ्तारी की आवश्यकता (Justification for Arrest) में अंतर होता है।

गिरफ्तारी तभी उचित है जब इसके पीछे कोई ठोस कारण हो, जैसे कि आरोपी के भागने का खतरा, सबूतों से छेड़छाड़, या गवाहों को प्रभावित करना। अनावश्यक गिरफ्तारी से व्यक्ति की प्रतिष्ठा (Reputation) और आत्मसम्मान (Self-Esteem) को नुकसान हो सकता है।

हिरासत का न्यायिक अर्थ (Judicial Interpretation of Custody)

इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न उच्च न्यायालयों के फैसलों का विश्लेषण किया। दिल्ली हाईकोर्ट ने Court on Its Own Motion बनाम Central Bureau of Investigation (2004) में स्पष्ट किया कि धारा 170 के तहत "Custody" का मतलब शारीरिक हिरासत (Physical Custody) नहीं है।

अगर आरोपी जांच में सहयोग कर रहा है और भागने या आदेशों का उल्लंघन करने की संभावना नहीं है, तो पुलिस अधिकारी को आरोपी को हिरासत में लेने की आवश्यकता नहीं है।

गुजरात हाईकोर्ट ने दीनदयाल किशनचंद बनाम गुजरात राज्य (1983) के मामले में कहा कि अदालतों द्वारा केवल इस कारण से आरोपपत्र स्वीकार न करना कि आरोपी को पेश नहीं किया गया है, कानून द्वारा उचित नहीं है। अदालतों का कर्तव्य है कि वे आरोपपत्र स्वीकार करें ताकि न्याय प्रक्रिया में देरी न हो।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी (Supreme Court's Observations)

सुप्रीम कोर्ट ने इन सिद्धांतों की पुष्टि करते हुए कहा कि जो आरोपी जांच में सहयोग कर रहा है, उसे अनावश्यक रूप से गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए। अदालत ने देखा कि निचली अदालतें अक्सर आरोपी की गिरफ्तारी को आरोपपत्र स्वीकार करने की औपचारिकता मानती हैं, जो धारा 170 के उद्देश्य के विपरीत है।

कोर्ट ने कहा कि "Custody" का अर्थ केवल आरोपी को अदालत में पेश करना है, न कि उसे शारीरिक रूप से हिरासत में लेना। यह व्याख्या आरोपी के अधिकारों और न्याय प्रणाली की आवश्यकताओं के बीच संतुलन बनाती है।

निर्णय का प्रभाव (Implications of the Judgment)

यह फैसला न्यायिक प्रणाली के लिए महत्वपूर्ण है। इसने दोहराया कि आरोपपत्र दाखिल करने के लिए गिरफ्तारी अनिवार्य नहीं है। यह व्याख्या अनावश्यक हिरासत को रोकने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) की रक्षा करने के लिए बनाई गई है।

यह निर्णय पुलिस और अदालतों के लिए एक मिसाल (Precedent) के रूप में कार्य करेगा और उन्हें याद दिलाएगा कि गिरफ्तारी केवल अंतिम उपाय (Last Resort) के रूप में की जानी चाहिए। इससे मनमानी गिरफ्तारी की घटनाओं में कमी आने और न्याय प्रक्रिया में देरी को कम करने की उम्मीद है।

सुप्रीम कोर्ट का सिद्धार्थ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य व अन्य में फैसला आपराधिक प्रक्रिया के एक महत्वपूर्ण पहलू को स्पष्ट करता है और व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) के संवैधानिक सिद्धांत को दोहराता है।

गिरफ्तार करने की शक्ति और इसे लागू करने की आवश्यकता के बीच अंतर बताकर, कोर्ट ने न्याय प्रणाली के लिए अधिक मानवीय और न्यायपूर्ण दृष्टिकोण का मार्ग प्रशस्त किया है। यह फैसला कानून प्रवर्तन और न्यायिक अधिकारियों को अपनी शक्तियों का जिम्मेदारीपूर्वक और न्यायपूर्ण तरीके से उपयोग करने की याद दिलाता है।

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