भारत का संविधान (Constitution of India) भाग 8: भारत के संविधान के अंतर्गत व्यक्ति को बंदी बनाए जाने के विरुद्ध मूल अधिकार
पिछले आलेख में भारत के संविधान से संबंधित अनुच्छेद-21 के अंतर्गत प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के मूल अधिकार के संबंध में चर्चा की गई थी, इस आलेख में भारत के संविधान के अंतर्गत अनुच्छेद-22 में प्राप्त 'बन्दीकरण के विरुद्ध अधिकार' के संबंध में चर्चा की जा रही है।
बन्दीकरण के विरुद्ध संवैधानिक संरक्षण-
भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का उल्लेख किया गया है। मेनका गांधी के प्रकरण में प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के संबंध में विस्तृत विवेचना की गई और अनुच्छेद 21 के अंतर्गत उल्लेख किए गए अधिकार को अत्यधिक महत्वपूर्ण अधिकार बनाया गया। भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा इस अनुच्छेद के संदर्भ में व्याख्या की गई की अनुच्छेद 21 स्वतंत्रता के अधिकारों का निचोड़ है। भारत के संविधान के अंतर्गत जितने अधिकार स्वतंत्रता से संबंधित हैं उन सभी का सम्रग उल्लेख अनुच्छेद 21 में भी उपलब्ध है। इसी प्रकार अनुच्छेद 21 से संबंधित अनुच्छेद 22 भी है। अनुच्छेद 22 अपने आप में पूर्ण रूप से कोई एक अनुच्छेद नहीं माना जा सकता अपितु इस अनुच्छेद का महत्व संविधान के अनुच्छेद 21 के साथ सम्मिलित है इसलिए अनुच्छेद 21 अनुच्छेद 20 को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए।
भारत के संविधान का अनुच्छेद 22 बन्दीकरण के विरुद्ध निरोध के विरुद्ध संरक्षण उपलब्ध करता है।अनुच्छेद 22 उन प्रक्रियात्मक शर्तों को विहित करता है जिसका विधान मंडल द्वारा विहित किसी प्रक्रिया में होना आवश्यक है। यदि इन प्रक्रियात्मक शर्तों का समुचित रूप से पालन नहीं किया गया है तो किसी व्यक्ति को उसके दैहिक स्वतंत्रता से वंचित करना विधि द्वारा विहित प्रक्रिया के अनुसार नहीं माना जाएगा और उसे अवैध घोषित कर दिया जाएगा। विधि और प्रक्रिया युक्तियुक्त उचित और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के अनुसार होनी चाहिए।
इस अनुच्छेद के अनुसार निवारक निरोध विधियों को अब दो शर्ते पूरी करनी होती हैं।
पहली शर्त है अनुच्छेद 22(5) का अनुपालन और खंड 2 का अनुपालन और इसके साथ अनुच्छेद 21 के अधीन प्रक्रिया का युक्तियुक्त और उचित होना चाहिए। भारत के संविधान के अनुच्छेद 22 के अनुसार गिरफ्तारीयों को दो प्रकार से उल्लेखित किया गया है।
पहला प्रकार है सामान्य दंड विधि के अधीन गिरफ्तारी।
दूसरा प्रकार है निवारक निरोध विधि के अधीन गिरफ्तारी।
अनुच्छेद 22 के खंड 1 और खंड 2 के अंतर्गत सामान्य विधि के अधीन गिरफ्तारी से संबंधित उल्लेख है और उस प्रक्रिया को विहित किया गया है जिसका पालन किसी व्यक्ति को गिरफ्तारी करते समय किया जाना चाहिए। इस अनुच्छेद के खंड 3 खंड 4 खंड 5 खंड 6 और खंड 7 निवारक निरोध विधि के अधीन गिरफ्तारी से संबंधित है और उस प्रक्रिया को विहित करते हैं जिसका पालन किया जाना आवश्यक है।
सामान्य विधि के अधीन गिरफ्तारी-
संविधान के अनुच्छेद 22 के खंड 2 और खंड 1 के अनुसार किसी अपराध के संबंध में गिरफ्तार हुए व्यक्तियों को चार प्रकार के अधिकार उपलब्ध हैं उनका उल्लेख यहां किया जा रहा है-
1)- गिरफ्तारी के कारणों को ठीक शीघ्र बताए जाने का अधिकार।
2)- अपनी पसंद के वकील से परामर्श करने और अपना बचाव करने का अधिकार।
3)- गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर किसी मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किए जाने का अधिकार।
4)- 24 घंटे से अधिक मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना निरोध से स्वतंत्रता।
यह अधिकार किसी भी आरोप में गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को भारत के संविधान के अनुच्छेद 22 के खंड 1 और खंड 2 के अधीन उपलब्ध किए गए हैं। यदि किसी व्यक्ति के संदर्भ में जिसे किसी अपराध के आरोप में गिरफ्तार किया गया है भारत के संविधान के अनुच्छेद 22 के अधीन इन अधिकारों को उस व्यक्ति को उपलब्ध नहीं किया जाता है तो ऐसी परिस्थिति में गिरफ्तारी अवैध हो जाती है तथा उस व्यक्ति का बन्दीकरण अवैध हो जाता है। इस प्रकार के अवैध बन्दीकरण के संदर्भ में उस व्यक्ति को रिट याचिका के माध्यम से न्यायालय को अवगत कराने का अधिकार उपलब्ध है जिसका उल्लेख अगले आलेखों में किया जाएगा।
अनुच्छेद 22 के खंड 1 और खंड 2 में दिए गए इन चारों अधिकार में किसी विदेशी शत्रु को और निवारक निरोध विधि के अधीन गिरफ्तारियां को प्राप्त नहीं है। अर्थात यदि कोई विदेशी शत्रु है तो इन अधिकारों को उपलब्ध नहीं किया जाएगा यदि किसी व्यक्ति को निवारक निरोध अधिनियम के अंतर्गत बंदी बनाया गया है तो भी उस व्यक्ति को इन अधिकारों को उपलब्ध नहीं कराया जाएगा। इतना ध्यान देना चाहिए कि ऊपर बताए गए अधिकार संविधान में गारंटी के रूप में दिए गए मौलिक अधिकार हैं अर्थात किसी भी स्थिति में राज्य द्वारा इन अधिकारों का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। राज्य इन अधिकारों का अतिक्रमण करता है तो जिस व्यक्ति के अधिकारों का अतिक्रमण होता है उसके पास न्यायालय में जाने का रास्ता उपलब्ध है।
हुस्नारा खातून बनाम गृह सचिव बिहार राज्य एआईआर 1980 उच्चतम न्यायालय 1377 के मामले में यह निर्धारित किया गया है कि प्रत्येक सिद्ध दोष व्यक्ति जो निर्धनता या किसी अन्य कारण से अपने बचाव के लिए किसी अधिवक्ता को नियुक्त नहीं कर सकता है उसे निशुल्क विधिक सहायता पाने का अधिकार उपलब्ध है और यह अधिकार उसका मौलिक अधिकार है तथा किसी भी स्थिति में इसका अतिक्रमण नहीं होना चाहिए। उस व्यक्ति को निशुल्क अधिवक्ता राज्य द्वारा उपलब्ध कराया जाना चाहिए यदि उक्त परिस्थितियों में निशुल्क विधिक सहायता प्रदान नहीं की जाती है तो अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होने के कारण उस व्यक्ति के संदर्भ में किया गया विचारण अवैध हो जाएगा।
मुंबई में हुए आतंकी हमले के आरोपी तथा दोषी अजमल कसाब के संबंध में जो कि एक पाकिस्तानी राष्ट्र का था उसकी गिरफ्तारी के समय एक वकील देने का प्रस्ताव किया गया था किंतु उसने इंकार कर दिया उसके बाद उसने भारतीय वकील की सेवा लेने से पूरी तरह से इनकार कर दिया और यह निवेदन किया कि उसके देश का वकील उसे दिया जाए। जब उसे विश्वास हो गया कि उसे उसके देश में इस प्रकार की कोई मदद न की जाएगी तो उसके द्वारा वकील की मांग की गई जिसे तुरंत पूरा कर दिया गया। यह नहीं कहा जा सकता कि अभियुक्त के किसी संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ था। भारत का संविधान इतना उदार और इतना विशाल है जिसके अंतर्गत एक विदेशी शत्रु देश के आतंकी हमले के दोषियों को भी निशुल्क विधिक सहायता उपलब्ध की गई।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 22 के अंतर्गत वकील द्वारा प्रतिनिधित्व किए जाने तथा आत्म अभिशंसन के विरुद्ध अधिकार यदि व्यक्ति को पढ़कर नहीं सुनाया जाते हैं तो यह अपूर्ण और अविधिमान्य मानने नहीं कहे जा सकते। अभियुक्त को आरंभ में यह दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के अधीन उसकी संस्वीकृति अभिलिखित किए जाने के पूर्व विधिक सहायता प्रदान करने में कोई विफलता विचारण को अवैधानिक नहीं करती है अपराध विधि का उद्देश्य सत्य का पता लगाना है न कि अभियुक्त को उसके गलत कार्य के लिए बचाना है। यदि यह कहा जाता है कि अनुच्छेद 22 एक गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को अपने विकल्प के वकील से परामर्श करने का तथा प्रतिरक्षित करने का अधिकार दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 304 के उपबंधों के अनुसार विचारण शुरू होने के समय ही उपलब्ध होता है तो संविधान तथा संवैधानिक प्रावधानों का गलत तथा आयुक्तियुक्त और अविधिमान्य प्रभाव होगा। उसे वकील की आवश्यकता मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रथम बार उपस्थित करने के समय होती है तो यह मजिस्ट्रेट का कर्तव्य है कि उसके समक्ष अभियुक्त को जब भी उपस्थित किया जाए तो उसे पूरी जानकारी दी जाए कि वह अपने विकल्प के वकील से परामर्श करें और प्रतिरक्षा करें। यदि उसके पास अपने विकल्प का वकील करने का कोई साधन उपलब्ध नहीं है तो उसे राज्य के खर्चे पर वकील उपलब्ध कराया जाए। इस अधिकार का अर्थ यह नहीं है कि पुलिस द्वारा पूछताछ के समय वकील उपस्थित होने की स्वीकृति या परमिशन दी जाए।
भारत के संविधान का अनुच्छेद 22 का खंड (2) 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष अभियुक्त को पेश किए जाने के संदर्भ में उल्लेख करता है। यदि किसी गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे से अधिक निरुद्ध करने की आवश्यकता है तो उसके लिए मजिस्ट्रेट का आदेश जरूरी है, दोनों में अंतर यह है कि पहले में निरूद्ध व्यक्ति पुलिस की हिरासत में रहता है और दूसरे में न्यायालय की हिरासत में रहता है। अनुच्छेद 22(1) और अनुच्छेद 22 धनात्मक विधियों के अंतर्गत गिरफ्तारी और निरोध के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है। इसका संरक्षण उन्हीं व्यक्तियों को प्राप्त है जिनके ऊपर किसी अपराध का आरोप लगाया गया है। इस प्रकार अनुच्छेद 22 (1) और 22(2) का उद्देश्य कार्यपालिका अथवा दूसरे अधिकारी के कार्य के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करना है तथा किसी अभियुक्त के संदर्भ में समस्त अधिकार किसी न्यायपालिका को उपलब्ध करने हैं।
इसका संरक्षण उन व्यक्तियों को नहीं प्राप्त है जिनको न्यायालय द्वारा जारी किए गए वारंट के अधीन गिरफ्तार किया जाता है क्योंकि वारंट के अनुसार किए गए व्यक्ति को गिरफ्तारी के पहले ही उसका गिरफ्तार होने का कारण बता दिया जाता है।
सीबीआई बनाम अनूप जैन कुलकर्णी 1992 के मामले में एक ऐतिहासिक निर्णय आया जिसमें उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 22 खंड 2 के अधीन गिरफ्तारी के मामले में विस्तृत मार्गदर्शन सिद्धांत विहित किए जिनका पालन न किए जाने पर गिरफ्तारी अवैध हो जाती है। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जब किसी व्यक्ति को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 57 के अधीन गिरफ्तार किया जाता है तो उसे 24 घंटे के अधीन नजदीक के मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा। न्यायिक मजिस्ट्रेट उसे 15 दिन तक पुलिस की न्यायिक अभिरक्षा में रखने का आदेश दे सकता है। 15 दिन की समाप्ति के पश्चात उसे केवल न्यायिक अभिरक्षा में ही रखा जा सकता है। पुलिस अभिरक्षा में 15 दिन से अधिक नहीं रखा जा सकता यदि अन्वेषण 90 दिन या 60 दिन में नहीं पूरा होता है तो अभियुक्त को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 के अधीन जमानत पर छोड़ दिया जाएगा। 90 दिन की गिनती मजिस्ट्रेट के आदेश के दिन से की जानी चाहिए। यह निर्णय अभियुक्तों को पुलिस यातना से संरक्षण प्रदान करने में सहायक होता है और पुलिस को अन्वेषण शीघ्र पूरा करना होता है, यदि पुलिस शीघ्र पूरा नहीं करती है तो अभियुक्तों को मुक्त करना होता है।
जोगिंदर कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1994 के एक मामले में उच्चतम न्यायालय ने अन्वेषण के दौरान किसी व्यक्ति की पुलिस द्वारा गिरफ्तारी के संबंध में कुछ मार्गदर्शक ने सिद्धांत विहित किए हैं जिससे निर्दोष व्यक्तियों को पुलिस द्वारा अवैध और मनमानी गिरफ्तारी से संरक्षण प्रदान किया जा सके।
न्यायालय ने कहा है कि किसी व्यक्ति को केवल किसी अपराध में सहभागी होने की शंका मात्र के आधार पर गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। जब पुलिस अधिकारी किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करता है तो उसके विचार में उसका युक्तियुक्त उचित होना चाहिए।राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में यह बताया है कि गिरफ्तारी की शक्ति पुलिस में भ्रष्टाचार का एक प्रमुख स्त्रोत है। आयोग के अनुसार 60% गिरफ्तारियां या तो अनावश्यक होती है या अवैध होती हैं। न्यायालय ने इसके लिए कुछ सिद्धांत विहित किए हैं जिनका पालन पुलिस को करना ही पड़ता है अन्यथा उनकी गिरफ्तारी अवैध हो जाती है।
गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को यह हक है कि यदि वह प्रार्थना करें तो उसके एक मित्र संबंधी या अन्य व्यक्ति जिसको वह जानता है या जिसे उसके कल्याण में दिलचस्पी हो सकती है यथासंभव उसकी गिरफ्तारी के और गिरफ्तारी के स्थान के संबंध में सूचित करें।
पुलिस अधिकारी गिरफ्तार व्यक्तियों को जब उसे पुलिस स्टेशन लाया जाता है तो इस अधिकार के संबंध में उसे बताएं।
पुलिस को पुलिस डायरी में इस संबंध में प्रविष्टि करना आवश्यक होगा कि गिरफ्तारी की सूचना किस व्यक्ति को दी गई थी। उपर्युक्त सुरक्षा अनुच्छेद 21 और 22 का में अंतर्निहित है। न्यायालय ने सभी मजिस्ट्रेट को यह निर्देश दिया कि वे गिरफ्तार व्यक्ति को उनके समक्ष प्रस्तुत किए जाने पर यह सुनिश्चित करें कि उपर्युक्त अपेक्षाओं का पालन कर लिया गया है।
न्यायालय ने अपने निर्णय में स्पष्ट कहा कि इन सिद्धांतों को सामान्य विधि में शीघ्र समाविष्ट कर दिया जाना चाहिए। न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि उपर्युक्त अपेक्षाएं हैं सर्वगींण नहीं है अर्थात इनके अतिरिक्त भी हो सकती हैं यही सर्वोच्च नहीं है। जब तक इन सब को अधिनियम में समाविष्ट नहीं कर दिया जाता है सभी गिरफ्तारयों के संबंध में यह सिद्धांतों का पालन किया जाएगा उपर्युक्त अपेक्षाएं पुलिस मैनुअल में वर्णित अपेक्षाओं के अतिरिक्त होंगी। उच्चतम न्यायालय का इस मामले में प्रस्तुत निर्णय निर्दोष व्यक्तियों को पुलिस द्वारा अवैध और मनमानी तरीके से की गई गिरफ्तारी से संरक्षण प्रदान किया और मानव अधिकारों की संरक्षा की है। अनुच्छेद 22 के खंड 3 और खंड 1 में दो अपवाद हैं। उक्त खंडों के अधीन प्राप्त अधिकार शत्रु देश के व्यक्तियों, निवारक निरोध अधिनियम के अधीन गिरफ्तार व्यक्तियों को उपलब्ध नहीं है। शत्रु देश का व्यक्ति अनुच्छेद 22 के खंड 4 और 5 के अधीन संरक्षण का दावा कर सकता है यदि उसे निवारक निरोध विधि के अधीन गिरफ्तार किया गया है किंतु उसके अधिकार संसद द्वारा पारित विधि के अधीन होंगे उसे मूल अधिकार के रूप में यह अधिकार नहीं मिलेंगे।
निवारक निरोध विधि के अधीन गिरफ्तारी-
इस आलेख में ऊपर जो उल्लेख किया गया है उसका संबंध सामान्य विधि से है अर्थात जैसे कि किसी व्यक्ति को भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत वर्णित किए गए किसी अपराध से संबंधित गिरफ्तार किया गया है तो उस व्यक्ति पर ऊपर बतलाए गए अधिकारों के संबंध में सभी नियमों का पालन किया जाएगा और यह अधिकार उस व्यक्ति के मौलिक अधिकार हैं जो भारत के संविधान द्वारा गारंटी के रूप में व्यक्तियों को उपलब्ध किए गए हैं जिनमें नागरिकों तथा व्यक्तियों के बीच में कोई असमानता नहीं है, सभी व्यक्तियों को यह अधिकार समान रूप से उपलब्ध है। अब प्रश्न आता है कि निवारक निरोध विधियां क्या है और निवारक निरोध विधियों के अधीन गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों को यह अधिकार उपलब्ध नहीं है।
अनुच्छेद 22 के खंड 4 से 7 तक किसी व्यक्ति को निवारक निरोध के अंतर्गत की गई गिरफ्तारी से संरक्षण दिया गया है। ऊपर बतलाया गया संरक्षण केवल सामान्य विधि के अंतर्गत गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों को है परंतु खंड 4 और खंड 7 तक उल्लेखित संरक्षण का उल्लेख किया गया है वह निवारक निरोध अधिनियम के अंतर्गत निवारक निरोध विधि के अंतर्गत गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों को भी उपलब्ध है। निवारक निरोध शब्द संविधान में कोई परिभाषा में उपलब्ध नहीं होता है, निवारक शब्द दंडात्मक शब्द का विलोम है। निवारक गिरफ्तारी दंडात्मक गिरफ्तारी से भिन्न है। दंडात्मक गिरफ्तारी निरुद्ध व्यक्ति को दंड देने के उद्देश्य से की जाती है किंतु निवारक बन्दीकरण का उद्देश्य दंड देना नहीं अपितु अपराध करने से रोकना। निरुद्ध व्यक्ति को किसी निश्चित उद्देश्य के पूरा होने से रोकना है। इसमें निरुद्ध किए गए व्यक्ति के ऊपर कोई अपराध का आरोप नहीं लगाया जाता है। यह एक एहतियाती कार्यवाही है जो किसी व्यक्ति को अपराध करने से रोकने के लिए अपनाई जाती है इसमें व्यक्तियों को केवल संदेह के आधार पर ही गिरफ्तार कर लिया जाता है। निवारक निरोध कानून प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली के प्रतिकूल माना जाता है विश्व के किसी भी प्रजातांत्रिक देश में ऐसे कानून संविधान के आवश्यक अंग के रूप में स्वीकार नहीं किए गए हैं। इंग्लैंड और अमेरिका में कोई ऐसा कानून नहीं है जो शांति काल में निवारक निरोध को उपलब्ध करता हो। अमेरिका में आपातकाल में फेडरल सिक्योरिटी एक्ट 1950 के अधीन निवारक निरोध का उपबंध किया गया है। इंग्लैंड में प्रथम महायुद्ध के दौरान डिफेंस ऑफ रियल आर्म्स एक्ट 1934 और दूसरे विश्व युद्ध के समय इमरजेंसी पावर डिफेंस एक्ट 1930 अधिनियम पारित किया गया था जो निवारक निरोध का उपबंध करता था, बाद के मामलों में वहां पर भी इन अधिनियम को वैध घोषित करते हुए हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स ने कहा है कि-
'प्रजा की स्वतंत्रता कितनी ही मूल्यवान क्यों न हो लेकिन कुछ चीजें ऐसी हैं जिनके लिए कुछ सीमा तक कानून बनाकर उनका बलिदान किया जा सकता है जैसे देश की रक्षा यह राष्ट्र की सुरक्षा'
भारत के संविधान की यह विशेषता है कि वह विधियों के विरुद्ध युद्ध अथवा शांति दोनों समय में उपयोग करने का उपबंध करता है। निवारक निरोध विधियों को इस तरह संवैधानिक स्तर प्रदान करने का उद्देश समाज विरोधी और देश को खतरा पहुंचाने वाले तत्व को दबाना है। ए के गोपालन बनाम मद्रास राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने निवारक निरोध विधि के बारे में यह कहा था कि यह विधि बुरी दिखलाई देने वाली है। इस लोकतांत्रिक संविधान में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को मूल अधिकारों की अतिलंघन प्रदान करती है। यह बेमेल होते हुए भी और संविधान के प्रस्तावना में निहित प्रतिज्ञा के प्रतिकूल होते हुए भी निसंदेह रूप से उन समाज विरोधी तथा विनाशकारी तत्वों द्वारा जो नवजात गणतंत्र के हित को खतरे में डाल सकते हैं किए जाने वाले स्वतंत्रता के दुरुपयोग को रोकने के उद्देश्य से रखा गया है।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 22 के अधीन प्राप्त अपनी शक्ति के प्रयोग में सर्वप्रथम संसद ने 1950 में प्रथम निवारक निरोध अधिनियम पारित किया। इस अधिनियम का उद्देश्य भारत की सुरक्षा सार्वजनिक व्यवस्था और समुदाय के लिए आवश्यक प्रदाय और सेवाएं बनाए रखने के विरुद्ध प्रतिकूल कार्य करने वाले व्यक्तियों को निरुद्ध करने के लिए उपबंध था। धारा 14 केंद्र सरकार और राज्य सरकारों तथा कतिपय अधिकारियों को किसी व्यक्ति को निरुद्ध करने के लिए अधिकृत करती थी यदि उन्हें समाधान हो जाए कि किसी व्यक्ति को उपर्युक्त बातों के प्रतिकूल कार्य करने से रोकने के लिए निरोध करना आवश्यक था। इस प्रकार निरोध का आदेश कार्यपालिका अधिकारियों के व्यक्तिगत समाधान कर दिया जाता था यदि विरोध का आदेश किसी अधीनस्थ अधिकारी द्वारा दिया जाता है तो उसे इस तथ्य की राज्य सरकार को रिपोर्ट करना होती थी और साथ साथ में उन आधारों जिन पर निरोध का आदेश आधारित है। ऐसी बातें जो उनके विचार में निरोध के आदेश के लिए आवश्यक थी सरकार को प्रेषित करना होता था। धारा 7 विरोध आदेश जारी करने वाले अधिकारियों को आदेश देती थी कि वह निरुद्ध व्यक्ति को निरोध आधार यथाशीघ्र सूचित करें। धारा 8 सलाहकार बोर्ड के गठन का उपबंध करती थी, धारा 9 समुचित सरकार को 7 सप्ताह के भीतर निरुद्ध व्यक्ति के मामले को सलाहकार बोर्ड के समक्ष रखने का आदेश देती थी।
राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम-
24 सितंबर 1983 को सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा अध्यादेश के नाम से एक और निवारक निरोध अध्यादेश जारी किया जिसका उद्देश्य सांप्रदायिक और जातिगत बलवा और देश की सुरक्षा के लिए खतरनाक और अन्य गतिविधियों के लिए उत्तरदाई व्यक्तियों को निरुद्ध करना था। बाद में वह संसद द्वारा अनुमोदित होने पर अधिनियम बन गया और उसके अधीन निरोध की तिथि से 10 दिनों के भीतर निरोध के आधार बताए जाने का उपबंध है। निरुद्ध व्यक्ति निरोध की विधिमान्यता को न्यायालय में चुनौती दे सकता है। ध्यान देने की बात है कि पहले की निवारक निरोध विधियों को वर्तमान निवारक निरोध विधियों में एक महत्वपूर्ण अंतर है, वर्तमान विधियों के अधीन निरुद्ध व्यक्ति को न्यायालय में अपने निरोध की विधिमान्यता को चुनौती देने का अधिकार दिया गया है जबकि पहले की विधियों के अधीन यह अधिकार नहीं प्रदान किए गए थे। राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम जिसे रासुका कहा जाता है, भारत राज्य में प्रचलित कानून है।
निवारक निरोध विधियों के संबंध में एके राय बनाम भारत संघ एआई लआर 1982 उच्चतम न्यायालय 710 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने पांच न्यायाधीशों की पीठ ने बहुमत से राष्ट्र सुरक्षा अधिनियम अध्यादेश को विधिमान्य घोषित कर दिया और निर्णय दिया के संबंध में न तो कोई भी उपबंध अस्पष्ट है और न ही मनमाने। इस अधिनियम की विधिमान्यता को प्रत्यर्थी ने इस आधार पर चुनौती दी थी कि यदि अनुच्छेद 22 का अतिक्रमण करता है और सरकार को मनमानी शक्ति प्रदान करता है। न्यायालय ने कहा कि अनुदेश 21 में प्रयुक्त शब्दावली के अंतर्गत विधि अथवा उसके द्वारा अनुच्छेद 21 द्वारा प्रतिभूत अधिकार को लिया जा सकता है। एक न्यायाधीश इस बात से सहमत नहीं है, उनका विचार है कि अध्यादेश विधि नहीं है वह अवैध है। बहुमत का मत सही है क्योंकि अध्यादेश जारी करने की शक्ति विधि के अधीन है और अब वह विधि शब्द में सम्मिलित है।
न्यायालय ने अधिनियम की संवैधानिकता को वैध माना किंतु राष्ट्र सुरक्षा अधिनियम के अधीन निरुद्ध व्यक्तियों की रक्षा के लिए अनेक महत्वपूर्ण सिद्धांत विहित किए गए। न्यायालय ने कहा कि निरुद्ध व्यक्तियों को सामान्यता उसी स्थान निरुद्ध किया जाएगा जहां का वह रहने वाला है, उसके परिवार वालों को शीघ्र सूचित किया जाएगा, उसके निरुद्ध किए जाने और उसके निरुद्ध स्थान के बारे में तुरंत सूचना दी जाएगी। निरोध की अवधि में उसे पुस्तकें पढ़ने लिखने की चीजें कलम कागज आदि और अपनी रुचि के भोजन और मित्रों और संबंधियों से मुलाकात करने का अधिकार होगा। निवारक निरोध विधियों के विरुद्ध व्यक्ति को अन्य अपराधियों से अलग रखा जाएगा। संक्षेप में उसके साथ मानव गरिमा और प्रतिष्ठा के अनुसार जेल में व्यवहार किया जाएगा जो एक सभ्य समाज में किसी व्यक्ति को प्राप्त होता है।
सलाहकार बोर्ड के विषय में न्यायालय ने खेद प्रकट करते हुए कहा कि राष्ट्रपति द्वारा अनुमति प्राप्त हो जाने के बावजूद सरकार द्वारा 44 वें संशोधन को लागू न करना कोई अच्छी बात नहीं है किंतु बहुमत से निर्णय दिया गया इसमें कुछ नहीं कर सकता क्योंकि संशोधन के लागू करने की शक्ति संसद ने सरकार को दी है। न्यायाधीश गुप्त और तुलजापुरकर स्पष्ट बहुमत से सहमत नहीं है उनका निर्णय है कि संशोधन अधिनियम को राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित कर दिए जाने के पश्चात सरकार को इस बात की छूट नहीं दी जानी चाहिए कि जब चाहे तब संशोधन को लागू करें। यदि सरकार को इस मामले में विवेक शक्ति होगी तो वह संसद द्वारा पारित संसाधनों को पर्याप्त को विफल कर सकती है। यह न्यायालय सरकार को संशोधन अधिनियम लागू करने के लिए आदेश जारी कर सकता है।
निवारक निरोध विधियों से संवैधानिक संरक्षण-
संविधान में निर्णायक निवारक निरोध विधियों की आवश्यकता को स्वीकार कर लिया गया इसके साथ ही इस की कठोरता को कम करने के लिए कुछ संवैधानिक संरक्षण भी प्रदान किए गए हैं और विधान मंडल द्वारा इसके अनावश्यक दुरुपयोग को रोकने के लिए उसकी विधिमान्य बनाने की शक्ति पर प्रतिबंध भी लगाया गया। अनुच्छेद 22 खंड 4 से लेकर खंड 7 तक निवारक निरोध कानून के अंतर्गत निरुद्ध किए गए व्यक्ति को कुछ संरक्षण प्राप्त है।
सलाहकार बोर्ड द्वारा पुनर्विलोकन।
गिरफ्तारी के कारण जानने और अभ्यावेदन प्रस्तुत करने का अधिकार।
सलाहकार बोर्ड की प्रक्रिया।
नंदलाल बनाम पंजाब राज्य 1981 के एक मामले में महत्वपूर्ण प्रश्न था किसका सलाहकार बोर्ड के समक्ष कार्यवाहियों के विरुद्ध व्यक्ति को विधिक सहायता का अधिकार प्राप्त है। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि निवारक निरोध अधिनियम के अधीन निरुद्ध व्यक्ति को बोर्ड के समक्ष विधिक सहायता का कोई अधिकार नहीं है किंतु यदि बोर्ड चाहे तो इसके अनुमति दे सकता है। यदि बोर्ड सरकार को ऐसी सहायता की अनुमति देता है तो उसे निरुद्ध व्यक्ति को भी ऐसी अनुमति देना पड़ेगा अन्यथा प्रक्रिया आयुक्तयुक्त हो जाएगी और अनुच्छेद 21, 14 का अतिक्रमण करने के कारण अवैध हो जाएगी। प्रस्तुत मामले में बोर्ड ने सरकार को विधिक सहायता की अनुमति दे दी। पिटीशनर की लिखित प्रार्थना के बावजूद इंकार कर दिया था क्योंकि बोर्ड के विचार से वह ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं था। निर्णय लिया गया कि यदि बोर्ड ने अपने विवेकाधिकार का प्रयोग एक पक्ष में किया तो दूसरे के पक्ष में करने के लिए वह बाध्य है। अनुच्छेद 22 (4) के अधीन समुचित सरकार द्वारा सलाहकार बोर्ड की रिपोर्ट पर कार्यवाही करना एक अति आवश्यक शर्त है क्योंकि उसी पर निरुद्ध व्यक्ति के निरोध को रद्द किया जाना निर्भर करता है।इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सलाहकार बोर्ड की रिपोर्ट प्राप्त करने के पश्चात शीघ्र से शीघ्र कार्यवाही की जानी चाहिए। किसी भी दशा में ऐसी कार्यवाही निरोध के दिन से 2 महीने के भीतर की जानी चाहिए अर्थात सलाहकार बोर्ड की राय की पुष्टि समुचित सरकार द्वारा 2 महीने के भीतर ही हो जानी चाहिए।सलाहकार बोर्ड की रिपोर्ट के बिना 3 महीने के निरोध की अवधि को नष्ट किया जा सकता है और न ही अवधि को बढ़ाया जा सकता है। निरोध की तारीख के 2 महीने के भीतर सरकार अपनी शक्ति का प्रयोग नहीं करती है तो 2 महीने के बीतने पर निरोध अवैध हो जाएगा।
इब्राहिम अहमद बनाम गुजरात राज्य के मामले में निरुद्ध की प्रतिलिपि को निरुद्ध व्यक्ति को देने से इसलिए विलंब हो गया था क्योंकि उर्दू भाषा निरुद्ध व्यक्ति की भाषा में उन्हें अनुवाद करने के लिए पर्याप्त अनुवादक उपलब्ध नहीं थे। निर्णय लिया गया कि विलय को देने में विलंब के लिए कोई आपराधिक परस्थिति नहीं थी इसलिए अवैध है।
शिब्बन लाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में पिटीशनर को निवारक निरोध अधिनियम के अंतर्गत गिरफ्तार करते समय दो कारण बताए गए थे किंतु बाद में एक कारण रद्द कर दिया गया। सरकार की ओर से तर्क था कि यदि दूसरा कारण गिरफ्तारी के लिए पर्याप्त है। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि निरोध संवैधानिक था प्रारंभ में जितने आधार दिए जाएं उन्हें अंत तक कायम रखना आवश्यक है। उसमें किया गया कोई परिवर्तन निरोध को अवैध बनाने के लिए पर्याप्त होगा।
राम बहादुर बनाम स्टेट ऑफ़ बिहार के मामले में न्यायालय ने यह भी निर्धारित किया कि जहां निरोध का आदेश अलग अलग और सभी आधारों पर आधारित है यदि उनमें से कोई भी आधार स्पष्ट है तो निरोध का पूरा आदेश अवैध हो जाएगा। इसी प्रकार यदि स्पष्ट निश्चित आधारों में कोई अस्पष्ट आधार शामिल किए जाते हैं तो वह निरोध को अवैध बना देंगे कोई आधार स्पष्ट है या नहीं यह प्रत्येक मामले के तथ्यों परस्थितियों के ऊपर निर्भर करेगा।