अपराधों की जांच में एक सामान्य सवाल यह उठता है: क्या अदालत आरोपी को Voice Sample देने के लिए मजबूर कर सकती है? यह मुद्दा हाल ही में कर्नाटक हाईकोर्ट (Karnataka High Court) और भारत के सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court of India) सहित अन्य अदालतों द्वारा संबोधित किया गया है। मूल प्रश्न यह है कि व्यक्तिगत अधिकारों, संवैधानिक सुरक्षा (constitutional protections) और प्रभावी आपराधिक जांच (criminal investigation) की आवश्यकता के बीच कैसे संतुलन स्थापित किया जाए।
इस संदर्भ में, धारा 223 (Section 223) और इससे संबंधित आपराधिक प्रक्रिया कानून (criminal procedure laws) एक विस्तृत ढांचा प्रदान करते हैं, जिसे अदालतों को पालन करना होता है। इस लेख में, हम देखेंगे कि अदालतों ने इन प्रावधानों की व्याख्या कैसे की है, कौन-कौन से कानूनी दिशानिर्देश (legal guidelines) हैं, और किन मौलिक अधिकारों (fundamental rights) पर असर पड़ता है।
धारा 223 (Section 223) का विवरण
धारा 223 (Section 223) Bharatiya Nagarika Suraksha Sanhita (BNSS), 2023, एक ऐसा प्रावधान है जो तब लागू होता है जब एक निजी शिकायत (private complaint) मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत की जाती है। यह प्रावधान भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code - Cr.P.C.) की धारा 200 के समान है। इसका मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि आरोपी को सुनवाई का एक निष्पक्ष अवसर (fair opportunity) दिया जाए और शिकायतकर्ता (complainant) तथा गवाहों (witnesses) द्वारा उचित रूप से शिकायत को प्रमाणित किया जाए, ताकि आगे की कार्रवाई शुरू हो सके।
इस प्रावधान का मुख्य बिंदु यह है कि जब कोई शिकायत मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत की जाती है, तो अदालत सबसे पहले शिकायतकर्ता और उपस्थित गवाहों की शपथ के तहत जाँच (examination under oath) करती है। यह एक आवश्यक सुरक्षा उपाय है ताकि अदालत आधारहीन या अनुचित शिकायतों (frivolous complaints) पर कार्रवाई न करे। जाँच को लिखित रूप में लिया जाता है और शिकायतकर्ता व गवाहों द्वारा हस्ताक्षरित (signed) किया जाता है। इसके बाद ही अदालत शिकायत पर आगे बढ़ सकती है।
धारा 223 का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि कोई भी अपराध का संज्ञान (cognizance of offence) आरोपी को सुने बिना नहीं लिया जा सकता। यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि आरोपी को उचित अवसर (opportunity) मिले, जिससे वह अपने पक्ष को प्रस्तुत कर सके, इससे पहले कि अदालत कोई कानूनी कार्रवाई करे।
मजिस्ट्रेट की नोटिस जारी करने की भूमिका (Role of the मजिस्ट्रेट in Issuing Notices)
हाल के एक निर्णय में, कर्नाटक हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि मजिस्ट्रेट को आरोपी को नोटिस तुरंत जारी नहीं करना चाहिए। इसके बजाय, यह तभी जारी किया जाना चाहिए जब शिकायतकर्ता और गवाहों की शपथ के तहत जाँच (examination under oath) हो चुकी हो। ऐसा इसलिए है ताकि अदालत के पास शिकायत से संबंधित सभी आवश्यक तथ्य (relevant facts) हों, इससे पहले कि वह तय करे कि शिकायत के आधार पर आगे की कानूनी कार्रवाई की जानी चाहिए या नहीं। नोटिस में सभी आवश्यक दस्तावेज़ शामिल होने चाहिए, जैसे कि शिकायत और शपथ पत्र (sworn statements), ताकि आरोपी उचित रूप से जवाब दे सके।
यह व्याख्या पहले से स्थापित न्यायिक निर्णयों (judicial precedents) के साथ संगत (aligns) है, जो प्रक्रिया की निष्पक्षता (procedural fairness) पर जोर देती है। जैसे कि State of Bombay v. Kathi Kalu Oghad के मामले में, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने यह सिद्धांत स्थापित किया कि निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार (right to a fair trial), जिसमें उचित समय पर आरोपी को सुने जाने का अधिकार शामिल है, आपराधिक न्याय प्रणाली (criminal justice system) का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
Judicial Interpretation और Voice Sample पर बहस
धारा 223 (Section 223) के तहत कर्नाटक हाईकोर्ट का निर्णय एक और महत्वपूर्ण सवाल उठाता है: क्या अदालत आरोपी से Voice Sample देने के लिए मजबूर कर सकती है? यह सवाल सुप्रीम कोर्ट के Ritesh Sinha v. State of Uttar Pradesh मामले में गहराई से विचार किया गया था। इस मामले में अदालत ने जांच की कि क्या आरोपी से Voice Sample लेने के लिए मजबूर करना उनके संवैधानिक अधिकारों (constitutional rights), विशेष रूप से संविधान के अनुच्छेद 20(3) (Article 20(3)) का उल्लंघन करता है, जो आत्म-अपराधीकरण (self-incrimination) से रक्षा करता है।
Ritesh Sinha के मामले में, अदालत को राज्य के अपराधों की प्रभावी जांच (effective investigation) के अधिकार और आरोपी के मौलिक अधिकारों के बीच संतुलन बनाना था। अदालत ने यह फैसला सुनाया कि अनुच्छेद 20(3) के तहत आत्म-अपराधीकरण का अधिकार (right against self-incrimination) सिर्फ उस बयान तक सीमित है जो आरोपी को स्वयं के खिलाफ सबूत पेश करने के लिए मजबूर करता है। एक Voice Sample लेना, जैसे कि हस्तलेखन (handwriting) या उंगलियों के निशान (fingerprints), गवाही का हिस्सा नहीं है और इसे आत्म-अपराधीकरण नहीं माना जा सकता।
विधायी अंतराल और न्यायिक व्याख्या (Legislative Gaps and Judicial Interpretation)
Ritesh Sinha मामले में एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह उभरा कि दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) में आरोपी से Voice Sample लेने के लिए अदालतों को अधिकार देने का कोई स्पष्ट प्रावधान (Explicit provision) नहीं है। जबकि Cr.P.C. में 2005 के संशोधन (Amendments) में हस्तलेखन और उंगलियों के निशान के नमूने (Specimen handwriting and fingerprints) लेने का प्रावधान किया गया था (धारा 53, 53A, और 311A), Voice Sample को लेकर कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं था। अदालत को इसलिए "Ejusdem Generis" सिद्धांत का उपयोग करना पड़ा, जो कि एक विधायी अंतराल (legislative gap) को भरने में मदद करता है।
अदालत ने इस सिद्धांत का उपयोग करके कहा कि Voice Sample को उन "अन्य परीक्षणों" की श्रेणी में शामिल किया जा सकता है, जो Cr.P.C. की धारा 53 के तहत आते हैं। अदालत का मानना था कि स्पष्ट विधायी अधिकार की अनुपस्थिति के बावजूद, अदालतें यह सुनिश्चित करने के लिए न्यायिक व्याख्या (judicial interpretation) का उपयोग कर सकती हैं कि आपराधिक जांच प्रभावी हो सके।
मौलिक अधिकार और सार्वजनिक हित (Fundamental Rights and Public Interest)
Voice Sample लेने के मामले में यह सवाल भी उठता है कि क्या यह गोपनीयता के अधिकार (right to privacy) का उल्लंघन करता है। सुप्रीम कोर्ट के K.S. Puttaswamy v. Union of India मामले में गोपनीयता को मौलिक अधिकार (fundamental right) के रूप में मान्यता दी गई थी।
हालांकि, Ritesh Sinha मामले में अदालत ने स्पष्ट किया कि गोपनीयता का अधिकार पूर्ण (absolute) नहीं है और इसे सार्वजनिक हित (public interest) के सामने झुकना पड़ता है। अदालत ने कहा कि जब आपराधिक जांच में सच्चाई का पता लगाना आवश्यक हो, तो गोपनीयता के सीमित उल्लंघन (limited intrusion) की अनुमति दी जा सकती है।
यह दृष्टिकोण पिछले निर्णयों के साथ मेल खाता है, जैसे कि Gobind v. State of Madhya Pradesh और Modern Dental College v. State of Madhya Pradesh, जहां अदालत ने यह स्वीकार किया कि सार्वजनिक सुरक्षा (public safety), अपराध की रोकथाम (crime prevention), और अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों में गोपनीयता के अधिकार को सीमित किया जा सकता है।
आपराधिक प्रक्रिया में संतुलित दृष्टिकोण (A Balanced Approach to Criminal Procedure)
कर्नाटक हाईकोर्ट का धारा 223 (Section 223) की व्याख्या और सुप्रीम कोर्ट का Ritesh Sinha मामले में निर्णय यह दर्शाते हैं कि अदालतों को आरोपी के अधिकारों की रक्षा और प्रभावी जांच के बीच कैसे संतुलन बनाना चाहिए। अदालतों ने स्पष्ट रूप से यह कहा है कि कानूनी प्रक्रिया के दौरान सभी पक्षों को निष्पक्षता (fairness) और पारदर्शिता (transparency) का पालन करना चाहिए।
इन निर्णयों ने यह भी रेखांकित किया है कि विधायी अंतराल (legislative gaps) के बावजूद, अदालतें न्यायिक व्याख्या का सहारा ले सकती हैं ताकि कानून प्रभावी और आधुनिक जाँच तकनीकों के अनुकूल बना रहे। हालांकि अदालतों ने यह भी कहा है कि विधायिका (legislature) को इन अंतरालों को विधायी संशोधनों के माध्यम से संबोधित करना चाहिए।
अंततः, ये निर्णय यह स्पष्ट करते हैं कि आपराधिक न्याय प्रक्रिया (Criminal justice process) में निष्पक्षता, पारदर्शिता, और न्यायिक निरीक्षण (Judicial supervision) आवश्यक हैं। अदालतों ने आरोपी के अधिकारों और राज्य की आपराधिक जांच की आवश्यकता के बीच एक संतुलन स्थापित किया है, जो न्याय के सिद्धांतों (Principles of justice) को बनाए रखते हुए राज्य को अपराधों की जांच और अभियोजन (Prosecution) में अपनी भूमिका निभाने की अनुमति देता है।