किसी समय राजा ही विधि का निर्माण करता था तथा राजा ही व्यक्तियों को अभियोजित करता था। राजा ही न्यायाधीश का काम करता था। लोकतांत्रिक व्यवस्था के आने के बाद न्याय के कार्य न्यायपालिका को प्राप्त हो गए तथा राज्य ने विधि के माध्यम से न्यायपालिका को दोषियों को दंड देने हेतु सशक्त किया।
न्यायपालिका के भीतर अलग अलग दंड न्यायालय होते हैं तथा इन दंड न्यायालयों को शक्तियां दी गई हैं। यह लोगों के अपराध में विचारण कर सकते हैं तथा इन व्यक्तियों को उस विचारण के परिणामस्वरूप दंड भी दे सकते हैं।
दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 5 के अंतर्गत यह बताने का प्रयास किया गया है कि दंड देने की शक्ति किसी मजिस्ट्रेट या न्यायाधीश को प्राप्त नहीं होती है अपितु शक्तियां न्यायालय को प्राप्त होती हैं तथा न्यायालय किसी व्यक्ति का विचारण करता है और उसे दंडादेश सुनाता है।
दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अंतर्गत न्यायालयों को शक्तियां दी गई हैं एवं अध्याय 3 में इसका उल्लेख किया गया है। इस लेख के माध्यम से हम न्यायालयों की कुछ शक्तियों को समझने का प्रयास करेंगे।
कौन से न्यायालय किसी अपराध का विचारण कर सकते हैं
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 26 के अंतर्गत न्यायालय का उल्लेख किया गया है जो किसी अपराध का विचारण करते हैं तथा भारत में किसी अपराध के संबंध में विचारण करने की शक्ति इन्हें प्राप्त है। यह अधिनियम की इस धारा के माध्यम से बताने का प्रयास किया गया है।
इस धारा के अंतर्गत निम्न न्यायालयों को किसी भी अपराध में विचारण करने की शक्ति प्राप्त होंगी
उच्च न्यायालय (हाईकोर्ट)
सत्र न्यायालय (सेशन कोर्ट)
वह न्यायालय जिसका उल्लेख प्रथम अनुसूची में किया गया है
'बलात्कार के मामले में केवल स्त्री पीठासीन अधिकारी ही मामले का विचारण कर सकती है'
यदि कोई विशेष विधि है और उस विशेष विधि के अंतर्गत किसी मामले का विचारण करने के लिए किसी न्यायालय को शक्तियां दी गई है तो उस विशेष न्यायालय द्वारा मामले का विचारण कर लिया जाएगा यदि उस विशेष विधि में यह उल्लेखित नहीं किया गया है कि किस न्यायालय द्वारा मामले का विचारण किया जाएगा तो ऐसी परिस्थिति में-
उच्च न्यायालय
ऐसा न्यायालय जिसका उल्लेख प्रथम अनुसूची में किया गया है।
दंड प्रक्रिया संहिता में प्रथम अनुसूची में भारतीय दंड संहिता के अपराधों का उल्लेख है तथा इस अनुसूची में कौन से अपराध संज्ञेय हैं और कौन से अपराध असंज्ञेय हैं, अपराध जमानती होंगे या अजमानतीय होंगे तथा कौन से न्यायालय द्वारा विचारण होगा, इसका उल्लेख किया गया है।
सुधीर बनाम मध्यप्रदेश राज्य एआईआर 2001 उच्चतम न्यायालय 825 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहां एक ही घटना से संबंधित दो मामले हो जिनमें एक की सुनवाई की अधिकारिता सेशन कोर्ट को हो तथा दूसरे की मजिस्ट्रेट को तो ऐसी दशा में उन दोनों ही मामलों की सुनवाई सेशन कोर्ट द्वारा की जा सकती है तथा मजिस्ट्रेट द्वारा विचारण योग्य मामलों को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को अंतरित किया जाना आवश्यक नहीं है।
इस धारा में कहीं भी विचारण के संबंध में उच्चतम न्यायालय का नाम नहीं आता है। किसी भी विचारण को उच्च न्यायालय नहीं करता। अपराधों का विचारण दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत केवल इन्हीं न्यायालय द्वारा किया जाता है।
किशोरों के मामले को सुनने की अधिकारिता किस न्यायालय की होगी
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 27 के अंतर्गत यह उल्लेख किया गया है कि किशोरों के मामले में कौन से न्यायालयों को विचारण करने की अधिकारिता होगी।
जिस व्यक्ति को न्यायालय में हाजिर किया गया है, यदि उसकी आयु न्यायालय में हाजिर करते समय 16 वर्ष से कम है तो मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा या फिर किसी ऐसे न्यायालय द्वारा जिसे बाल अधिनियम 1960 और किशोर अपराधियों के उपचार प्रशिक्षण में पुनर्वास के लिए उपबंध करने वाली तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अधीन विशेष रूप से सशक्त किया गया हो, वह मामले की सुनवाई करेगा।
बालकों के मामले में पृथक से बाल न्यायालय होते हैं। अगर बाल न्यायालय नहीं हैं तो ऐसी परिस्थिति में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा बालकों का विचारण किया जाता है। इस धारा का उपयोग केवल तब किया जा सकता है जब न्यायालय में उपस्थित किए गए व्यक्ति की उम्र 16 वर्ष से कम होगी परंतु उनके द्वारा किया गया अपराध मृत्युदंड या आजीवन कारावास से दंडनीय नहीं होना चाहिए।
रघुवीर बनाम हरियाणा राज्य एआईआर 1981 एस सी 2037 के मामले में सत्र न्यायालय द्वारा एक बाल अभियुक्त को तीन अन्य व्यक्तियों के साथ भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के अधीन अभियोजित कर उसे उक्त अपराध के लिए सिद्धदोष किया गया। किंतु सुप्रीम कोर्ट ने संहिता की धारा 27 के अनुसरण में कथित अपराध के विचारण को रद्द करते हुए उक्त विचारण को हरियाणा बाल अधिनियम 1974 के अधीन किए जाने के निर्देश दिए।
प्रताप सिंह बनाम झारखंड राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालय निर्णय दिया कि जहां मजिस्ट्रेट को यह पता है कि अभियुक्त किशोर आयु का है अर्थात 18 साल से कम आयु का है, लड़का लड़की कुछ भी हो तो सबसे पहले अपराध की तारीख को अभियुक्त की निश्चित आयु क्या थी, इसका निर्धारण करना चाहिए। जन्म- मृत रजिस्टर में दर्ज तारीख,स्कूल रजिस्टर में लिखी तारीख विश्वसनीय आधार माना जाएगा।
अभियुक्त को स्वयं को किशोर आयु का सिद्ध करने की भार नहीं होता है। अपितु मजिस्ट्रेट ही अभिनिर्धारित करता है कि अभियुक्त किशोर आयु का है या नहीं।
उच्च न्यायालय और सत्र न्यायालय क्या दंड दे सकते हैं
यह सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है कि उच्च न्यायालय एवं सत्र न्यायालय क्या दंड दे सकेंगे और कितनी कितनी अवधि के दंड दिए जाने की शक्ति इन दोनों न्यायालयों को प्राप्त है।
इस प्रश्न का उत्तर हमें दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 28 में प्राप्त होता है, जहां यह बताया गया है कि उच्च न्यायालय एवं सत्र न्यायालय क्या दंड दे सकेंगे एवं दंड देने में इन दोनों न्यायालय को क्या शक्तियां प्राप्त है।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 28 के अंतर्गत मुख्य तीन न्यायालयों का उल्लेख किया गया है जिनके द्वारा दंड दिया जाता है।
उच्च न्यायालय
उच्च न्यायालय विधि द्वारा प्राधिकृत कोई भी दंड दे सकता है जिस दंड को भारतीय दंड विधि में भारतीय संसद द्वारा पारित अधिनियम के माध्यम से अधिनियमित किया गया है। वह दंड उच्च न्यायालय द्वारा दिया जा सकता है।ऐसा दंड किसी भी प्रकार का हो सकता है।
दंड दिए जाने के संबंध में उच्च न्यायालय भारतीय दंड व्यवस्था की सर्वाधिक शक्तिशाली संस्था है, जो किसी भी भांति का दंड दे सकती है। प्रवृत विधि में जो भी दंडो का उल्लेख किया गया है वह दंड उच्च न्यायालय द्वारा दिए जा सकेंगे।
सत्र न्यायाधीश द्वारा दिया जाने वाला दंड
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 28 के अंतर्गत सत्र न्यायालय का उल्लेख किया गया है। सत्र न्यायालय को कितने भागों में बांटा जा सकता है एवं कौन-कौन से न्यायालय सेशन न्यायालय कहलाएंगे एवं जिन के पीठासीन अधिकारी न्यायाधीश कहलाएंगे। न्यायाधीशों को दंड देने की शक्ति कहां तक होगी।
सत्र न्यायाधीश
कोई भी सत्र न्यायाधीश का न्यायालय विधि द्वारा प्राधिकृत कोई भी दंडादेश दे सकता है,परन्तु सत्र न्यायालय द्वारा दिया जाने वाला मृत्युदंड उच्च न्यायालय द्वारा पुष्ट किए जाने की आवश्यकता होगी।
किसी भी सत्र न्यायाधीश द्वारा दिया गया मृत्युदंड उच्च न्यायालय द्वारा पुष्ट किया जाता है। जब उच्च न्यायालय किसी भी सिद्धदोष को दिए मृत्युदंड को पुष्ट कर देता है तो ही वह मृत्युदंड मान्यता रखता है।
अपर सत्र न्यायाधीश
कोई भी अपर सत्र न्यायाधीश वह सभी दंड दे सकता है जो सत्र न्यायाधीश दे सकता है।
सहायक सत्र न्यायधीश
सहायक सत्र न्यायधीश मृत्यु दंड, आजीवन कारावास या 10 वर्ष से अधिक की कारावास की अवधि के सिवाय कोई भी दंडादेश दे सकता है। अर्थात सहायक सत्र न्यायाधीश मृत्युदंड आजीवन कारावास और 10 वर्ष के ऊपर का कारावास नहीं दे सकता है। उसे केवल किसी भी सिद्धदोष को 10 वर्ष तक कारावास दिए जाने की शक्ति प्राप्त है।
किसी भी मामले में न्यायाधीश कितना दंड देंगे, दंड की अवधि न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर होगी। उच्चतम न्यायालय ने मध्यप्रदेश राज्य बनाम घनश्याम सिंह के वाद में यह स्पष्ट किया है कि उस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए जिसके लिए किसी अभियुक्त को दंडित किया जाता है।
यह सर्वसाधारण नियम नहीं बनाया जा सकता कि विचारण में अत्यधिक विलंब के सभी मामलों में अभियुक्तों को न्यूनतम दंड से दंडित किया जाना उचित होगा। दूसरे शब्दों में या कहा जा सकता है कि विचारण का लंबे समय तक लंबित रहना स्वयमेव अभियुक्त को कम दंड दिए जाने का उचित कारण नहीं माना जाना चाहिए।
किसी भी न्यायालय द्वारा दंड की अवधि न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर करती है, परंतु ऐसा विवेक भी युक्तियुक्त होना चाहिए। कोई भी अपराध में दंड अपराध की गंभीरता को देख कर दिया जाना चाहिए।
कर्नाटक राज्य बनाम राजू के बाद में कुछ ऐसा ही मामला सामने आया था, जिसमें 10 वर्ष की बच्ची का बलात्कार करने वाले अभियुक्त को 7 वर्ष के कारावास से दंडित किया गया था, परंतु कर्नाटक उच्च न्यायालय की एकल पीठ में दंड को कम करके साढ़े 3 वर्ष का कर दिया था।
उच्चतम न्यायालय ने इस निर्णय की भर्त्सना की थी तथा कम से कम 10 वर्ष तक का दंड इस अपराध में दिए जाने के संदर्भ में उल्लेख किया था। हालांकि बाद में बलात्कार जैसे अपराध में भारतीय दंड संहिता में संशोधन कर दिए गए तथा बलात्कार में मृत्युदंड तक का प्रावधान रख दिया गया है।
इस कड़ी में केवल उच्च न्यायालय एवं न्यायाधीशों की दंड देने की शक्ति का उल्लेख किया गया है। अगली कड़ी में मजिस्ट्रेट द्वारा दंड दिए जाने की शक्ति का उल्लेख किया जाएगा तथा दंड न्यायालय की अन्य शक्तियों के संबंध में भी चर्चा की जाएगी।