NI Act की धारा 138 के तहत चेक अनादर का संज्ञान केवल लिखित शिकायत पर ही लिया जा सकता है: झारखंड हाईकोर्ट ने दोहराया

Update: 2024-11-21 04:36 GMT

चेक बाउंसिंग मामले की सुनवाई करते हुए झारखंड हाईकोर्ट ने फिर से पुष्टि की कि परक्राम्य लिखत अधिनियम (NI Act) की धारा 142 के तहत अपराधों का संज्ञान लेने के लिए पुलिस को रिपोर्ट करने की आवश्यकता नहीं होती है और न ही अदालत को शिकायत की जांच करने के लिए पुलिस को निर्देश देने का अधिकार है।

अदालत ने आगे स्पष्ट किया कि NI Act की धारा 142(1)(ए) के तहत चेक अनादर के लिए धारा 138 के तहत दंडनीय अपराध का संज्ञान केवल लिखित शिकायत पर ही लिया जा सकता है।

जस्टिस अनिल कुमार चौधरी ने अपने आदेश में कहा,

"बार में किए गए प्रतिद्वंद्वी प्रस्तुतियों को सुनने और रिकॉर्ड में उपलब्ध सामग्रियों को ध्यान से देखने के बाद यहां यह उल्लेख करना उचित है कि कानून अच्छी तरह से स्थापित है कि NI Act की धारा 142 के तहत अपराध का संज्ञान केवल लिखित शिकायत पर ही लिया जा सकता है। अधिनियम पुलिस को रिपोर्ट करने की बात नहीं करता और न ही संज्ञान लेने वाली अदालत को पुलिस को शिकायत की जांच करने का निर्देश देने का अधिकार देता है। NI Act की धारा 142 (1) (ए) स्पष्ट रूप से अनिवार्य करती है कि धारा 138 के तहत दंडनीय अपराध का संज्ञान केवल लिखित शिकायत पर ही लिया जा सकता है।

इस प्रकार अदालत ने कहा कि धारा 142 NI Act के तहत दंडनीय अपराध के संबंध में याचिकाकर्ता के खिलाफ FIR जारी रखना कानून में टिकने योग्य नहीं है। याचिकाकर्ता के खिलाफ आरोप यह था कि उसने शिकायतकर्ता को 10,82,500 रुपये का चेक जारी किया और याचिकाकर्ता के खाते में पर्याप्त धनराशि न होने के कारण चेक बाउंस हो गया।

याचिकाकर्ता ने शिकायतकर्ता के नोटिस का जवाब देते हुए कहा कि चेक पेश करने से पहले शिकायतकर्ता को याचिकाकर्ता की मंजूरी लेनी चाहिए थी। इसके बाद शिकायतकर्ता ने शिकायत दर्ज की और दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के तहत पुलिस को रेफर करने की मांग की, जिसे न्यायिक मजिस्ट्रेट ने मंजूर कर लिया।

इस निर्णय से व्यथित होकर याचिकाकर्ता ने CrPC की धारा 482 के तहत याचिका दायर कर उनके खिलाफ आईपीसी की धारा 467, 468, 120बी और NI Act की धारा 138 के तहत दर्ज FIR रद्द करने की मांग की। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि NI Act की धारा 138 के तहत अपराध के लिए FIR दर्ज करना घोर अवैधता है। इसके अतिरिक्त, याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि उनके खिलाफ जालसाजी का कोई आरोप नहीं है।

इस प्रकार आईपीसी की धारा 467 या 468 के तहत कोई अपराध स्थापित नहीं किया जा सकता है। राज्य और शिकायतकर्ता ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता के खिलाफ जालसाजी करने का कोई आरोप नहीं है, लेकिन प्रस्तुत किया कि चूंकि याचिकाकर्ता ने एनआई अधिनियम की धारा 138 के तहत दंडनीय अपराध किया है, इसलिए FIR रद्द नहीं किया जाना चाहिए।

न्यायालय ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 467, 468 और 120बी के तहत अपराध स्थापित करने के लिए झूठे दस्तावेज बनाना "अनिवार्य शर्त" (आवश्यक तत्व) है। न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्ता के खिलाफ किसी भी झूठे दस्तावेज के निर्माण या जालसाजी के संबंध में कोई आरोप नहीं थे।

न्यायालय ने कहा,

"ऐसी परिस्थितियों में यह न्यायालय इस विचार पर है कि भले ही FIR में याचिकाकर्ता के खिलाफ लगाए गए सभी आरोप पूरी तरह से सत्य माने जाएं, फिर भी याचिकाकर्ता के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 467, 468/120बी के तहत दंडनीय अपराध नहीं बनता।"

यह पाते हुए कि अपराध नहीं बनते हैं, न्यायालय ने FIR रद्द किया और याचिका स्वीकार की।

केस टाइटल: प्रशांत कुमार सिंह बनाम झारखंड राज्य

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