सत्य कथन को शामिल करने के लिए हलफनामे में संशोधन अस्वीकार्य: झारखंड हाईकोर्ट
झारखंड हाईकोर्ट ने दोहराया कि कमर्शियल वाद याचिका में सत्य कथन को शामिल करने के लिए हलफनामे में संशोधन कमर्शियल कोर्ट एक्ट 2015 के प्रावधानों के तहत अस्वीकार्य है।
न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि सत्य कथन को अधिनियम के नियम 15 A के तहत निर्धारित प्रारूप में दाखिल किया जाना चाहिए और वादपत्र में जुड़ें हलफनामे में बदलाव करके इसे संशोधित नहीं किया जा सकता।
जस्टिस सुभाष चंद ने मामले की अध्यक्षता करते हुए कहा,
"यह स्थापित कानून है कि वादपत्र और लिखित कथन सहित वादपत्र में संशोधन किया जा सकता है। कानून के स्थापित प्रस्तावों के मद्देनजर किसी भी कार्यवाही में आवेदन भी। यह निचली अदालत के लिए आवश्यक है कि वह वादपत्र के साथ संलग्न सामान्य हलफनामे के अतिरिक्त या उसके स्थान पर नियम-15ए अनुसूची के निर्धारित प्रारूप में सत्य कथन यानी हलफनामा दाखिल करने का अवसर प्रदान करे; लेकिन हलफनामे में इसके लिए कोई संशोधन नहीं किया जा सकता था।''
जस्टिस चंद ने कहा,
“लेकिन इस मामले में वादी की ओर से वाद में सत्य के कथन को संशोधित करने के लिए संशोधन की मांग की गई। यह स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि हलफनामा, यदि कोई हो तो दलील के दायरे में नहीं आता है। हलफनामा कमर्शियल कोर्ट एक्ट के नियम-15A के तहत निर्धारित अनुसूची के मद्देनजर ठीक से दायर नहीं किया गया, वादी के पास एकमात्र रास्ता सत्य का कथन दायर करना था, जिसका प्रारूप अधिनियम की अनुसूची में ही दिया गया है और जो हलफनामे के अलावा और कुछ नहीं है।”
यह मामला कमर्शियल मुकदमे से संबंधित है, जिसे ट्रायल कोर्ट के समक्ष दायर किया गया, जहां वादी ने कमर्शियल कोर्ट एक्ट 2015 के नियम 15a के तहत सत्य के कथन को शामिल करके वाद में संशोधन करने की मांग की। वादी ने सिविल प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) के आदेश VI नियम 17 के तहत आवेदन के माध्यम से संशोधन की मांग की थी, लेकिन प्रतिवादियों द्वारा इसका विरोध किया गया।
याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि कमर्शियल कोर्ट एक्ट के तहत सत्य का कथन शामिल करने के लिए संशोधन की अनुमति नहीं थी, क्योंकि नियम 15a के अनुसार वाणिज्यिक विवाद में प्रत्येक दलील को अधिनियम के तहत निर्धारित प्रारूप में हलफनामे द्वारा सत्यापित किया जाना चाहिए। याचिकाकर्ताओं ने आगे तर्क दिया कि वादपत्र के साथ जुड़े हलफनामा नियम 15a की वैधानिक आवश्यकताओं का अनुपालन नहीं करता है। इसलिए वादी को हलफनामे में संशोधन की मांग करने के बजाय निर्धारित प्रारूप के अनुसार सत्य का कथन दाखिल करने का अवसर दिया जाना चाहिए था।
निचली अदालत ने संशोधन आवेदन को स्वीकार कर लिया, जिसे याचिकाकर्ताओं ने हाईकोर्ट में चुनौती दी।
हाईकोर्ट ने विवादित आदेश को खारिज कर दिया, मामले को ट्रायल कोर्ट को वापस भेज दिया और निर्देश दिया कि वादी को निर्धारित प्रारूप में सत्य का कथन दाखिल करने का अवसर दिया जाए। वादपत्र में पहले से शामिल किए गए संशोधन को रद्द करने का आदेश दिया गया।
अदालत ने कहा,
"अदालत द्वारा स्वीकार किया गया संशोधन आवेदन ही विकृत निष्कर्ष पर आधारित है और इसमें हस्तक्षेप की आवश्यकता है।"
केस टाइटल: सिटी अलॉयज प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य बनाम मेसर्स हरि ओम एंड कंपनी।