S.482 CrPC | न्यायालयों का कर्तव्य है कि वे आपराधिक मामलों में दुर्भावनापूर्ण इरादे की जांच करने के लिए समग्र परिस्थितियों की जांच करें: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट

Update: 2025-03-29 10:41 GMT
S.482 CrPC | न्यायालयों का कर्तव्य है कि वे आपराधिक मामलों में दुर्भावनापूर्ण इरादे की जांच करने के लिए समग्र परिस्थितियों की जांच करें: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट

जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने माना कि दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 482 के तहत अपनी अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग करते हुए न्यायालय का कर्तव्य है कि वह FIR या शिकायत में केवल आरोपों से परे जाकर यह निर्धारित करने के लिए उपस्थित परिस्थितियों का आकलन करे कि क्या आपराधिक कार्यवाही दुर्भावनापूर्ण तरीके से शुरू की गई है।

जस्टिस संजय धर ने इस बात पर जोर दिया कि यदि ऐसा प्रतीत होता है कि आपराधिक कानून का इस्तेमाल व्यक्तिगत प्रतिशोध के लिए हथियार के रूप में किया जा रहा है तो न्यायालय को न्यायिक प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए।

FIR और आपराधिक कार्यवाही रद्द की और यह माना कि यह मामला एक सिविल विवाद में याचिकाकर्ताओं को परेशान करने के लिए कानूनी प्रक्रिया का स्पष्ट दुरुपयोग था।

जस्टिस धर ने इस बात पर जोर दिया कि हाईकोर्ट का कर्तव्य है कि वह FIR के दावों से परे उपस्थित और समग्र परिस्थितियों पर गौर करे ताकि यह आकलन किया जा सके कि क्या आपराधिक कार्यवाही दुर्भावनापूर्ण तरीके से शुरू की गई थी।

यह फैसला जम्मू के डोमना पुलिस स्टेशन में रणबीर दंड संहिता (आरपीसी) की धारा 425, 436-ए, 506 और 120-बी के तहत दर्ज FIR को चुनौती देने वाली याचिका के जवाब में आया है। याचिकाकर्ताओं सुरेश परिहार और अन्य ने FIR रद्द करने की मांग करते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया, उनका दावा था कि शिकायत दीवानी विवाद को निपटाने के लिए आपराधिक कानून का दुरुपयोग है।

यह मामला प्रतिवादी नंबर 2 कुलवंत मन्हास की शिकायत से उत्पन्न हुआ, जिन्होंने आरोप लगाया कि याचिकाकर्ताओं, उनके पड़ोसियों ने उनके परिसर में उगने वाले पौधों और पेड़ों पर रसायन छिड़का, जिससे वे सूख गए। उन्होंने आगे आरोप लगाया कि अदालत में पहले से लंबित एक शिकायत के बावजूद, याचिकाकर्ताओं ने एक बार फिर उनकी जमीन पर अतिक्रमण किया और इस कृत्य को दोहराया। इन आरोपों के आधार पर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, जम्मू ने पुलिस को CrPC की धारा 156 (3) के तहत FIR दर्ज करने का निर्देश दिया।

जस्टिस धर ने मामले के तथ्यों की जांच की और पाया कि आरोप मुख्य रूप से संपत्ति विवाद और पक्षों के बीच लंबे समय से चली आ रही दुश्मनी पर आधारित थे।

अदालत ने दर्ज किया,

“इन सभी तथ्यों को संदर्भ में देखने पर कि याचिकाकर्ताओं और शिकायतकर्ता पक्ष के बीच एक सिविल प्रकृति का विवाद चल रहा है, जिसने याचिकाकर्ताओं के खिलाफ लगातार आपराधिक शिकायतें दर्ज करके उनके खिलाफ इसी तरह के आरोप लगाए हैं, यह दर्शाता है कि यह प्रतिवादी नंबर 2-शिकायतकर्ता द्वारा याचिकाकर्ताओं पर प्रतिशोध लेने और उन्हें अपनी शर्तों पर सिविल विवाद को निपटाने के लिए मजबूर करने का एक क्लासिक मामला है।”

अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि निजी शिकायतों को निपटाने के लिए आपराधिक कानून का दुरुपयोग नहीं होने दिया जा सकता। हरियाणा राज्य बनाम भजन लाल (1992) और इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन बनाम एनईपीसी इंडिया लिमिटेड (2006) में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर भरोसा करते हुए कोर्ट ने दोहराया कि दुर्भावनापूर्ण अभियोजन को रोकने के लिए CrPC की धारा 482 के तहत निहित अधिकार क्षेत्र का प्रयोग किया जाना चाहिए।

कोर्ट ने कहा,

"हाईकोर्ट CrPC की धारा 482 के तहत अपनी अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग करते हुए FIR या शिकायत में किए गए कथनों के अलावा उपस्थित और समग्र परिस्थितियों को देखने का कर्तव्य रखता है ताकि यह आकलन किया जा सके कि आपराधिक कार्यवाही दुर्भावनापूर्ण तरीके से शुरू की गई या नहीं।"

मेडिकल केमिकल्स फार्मा पी. लिमिटेड बनाम बायोलॉजिकल ई. लिमिटेड और अन्य, 2000(3) एससीसी 269 का हवाला देते हुए न्यायालय ने कहा कि निराश वादियों को कानूनी प्रक्रिया के माध्यम से अपनी प्रतिशोधात्मक भावना को व्यक्त करने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए। इस तरह की जांच को जारी रखने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, क्योंकि यह न्याय की अवधारणा के विपरीत है, जो सर्वोपरि है।

जस्टिस धर ने इस बात पर जोर दिया कि FIR में केवल आरोपों को तब सच नहीं माना जा सकता जब आसपास की परिस्थितियां संकेत देती हैं कि शिकायत व्यक्तिगत दुश्मनी से प्रेरित हो सकती है। न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्ताओं के खिलाफ आरोपों में आपराधिक मुकदमा चलाने को उचित ठहराने के लिए ठोस सबूतों का अभाव था।

उन्होंने  पाया कि शिकायतकर्ता ने विवाद को आपराधिक अपराध के रूप में पेश किया, जबकि इसकी वास्तविक प्रकृति दीवानी थी। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि ऐसे मामलों को आपराधिक मुकदमेबाजी के बजाय उचित दीवानी मंचों पर सुलझाया जाना चाहिए।

इन टिप्पणियों के आलोक में हाईकोर्ट ने FIR रद्द की और कहा कि इसे जारी रखना न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा।

केस टाइटल: सुरेश परिहार बनाम जम्मू-कश्मीर राज्य

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