Right To Be Forgotten | हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने POCSO मामले में आरोपी को बरी करने का फैसला बरकरार रखा, डिजिटल रिकॉर्ड से पक्षकारों के नाम हटाने का निर्देश दिया

Update: 2024-07-17 10:04 GMT

POCSO Act के तहत बलात्कार के आरोपी को बरी करने का फैसला बरकरार रखते हुए और बरी होने के बाद भूल जाने के अधिकार (Right To Be Forgotten) पर जोर देते हुए हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने हाल ही में अपनी रजिस्ट्री को अपने डिजिटल रिकॉर्ड से आरोपी और पीड़िता दोनों के नाम छिपाने का निर्देश दिया।

जस्टिस तरलोक सिंह चौहान और जस्टिस सुशील कुकरेजा की खंडपीठ ने इस बात पर जोर दिया कि निजता का अधिकार, जिसमें भूल जाने का अधिकार और अकेले रहने का अधिकार शामिल है, व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक अंतर्निहित पहलू है।

यह फैसला राज्य सरकार की उस याचिका के जवाब में आया, जिसमें आरोपी-अपीलकर्ता को बरी करने वाले ट्रायल कोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील करने की अनुमति मांगी गई थी।

न्यायालय ने कहा कि इस मामले में कथित अपराध के समय पीड़िता की उम्र 17 वर्ष से अधिक है। बाद में उसने आरोपी से शादी कर ली, बेटी को जन्म दिया और अपने पति (आरोपी) के साथ रहने लगी।

इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी कहा कि अभियोजन पक्ष अभियुक्त के विरुद्ध अपना मामला उचित संदेह से परे साबित नहीं कर सका।

न्यायालय ने टिप्पणी की,

“एस.एम. (पीड़िता) अभियोजन पक्ष के मामले का समर्थन करने के लिए सबसे अच्छी गवाह हो सकती है। लेकिन, दुर्भाग्य से इस मामले में अभियोजन पक्ष द्वारा उससे कभी पूछताछ नहीं की गई। इसके लिए कोई कारण नहीं था। जाहिर है, ऐसी परिस्थितियों में इस न्यायालय के पास अभियोजन पक्ष के विरुद्ध प्रतिकूल निष्कर्ष निकालने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।”

न्यायालय ने यह भी कहा कि चूंकि अभियोक्ता ने अभियोजन पक्ष के मामले का समर्थन नहीं किया और स्वीकार किया कि उसने प्रतिवादी से विवाह किया है और इस विवाह से उसकी तीन साल की एक बेटी है, इसलिए राज्य के लिए वर्तमान अपील दायर करने का कोई कारण नहीं था।

न्यायालय ने कहा,

“यह न्यायालय जमीनी हकीकत से आंखें मूंदकर अपीलकर्ता और अभियोक्ता के खुशहाल पारिवारिक जीवन को बाधित नहीं कर सकता।”

इस पृष्ठभूमि में न्यायालय ने बरी किए जाने के फैसले के खिलाफ अपील करने की अनुमति मांगने वाली राज्य की अर्जी खारिज की।

हालांकि, मामले को समाप्त करने से पहले न्यायालय ने अभियुक्त के भूल जाने के अधिकार पर जोर देते हुए कहा कि एक बार जब कोई व्यक्ति कानूनी प्रक्रियाओं के माध्यम से बरी हो जाता है तो उसे जीवन भर आरोपी होने के कलंक का बोझ नहीं उठाना चाहिए।

न्यायालय ने कहा,

“एक बार जब कोई अभियुक्त कानूनी प्रक्रिया द्वारा दोषमुक्त हो जाता है तो प्रतिवादी को जीवन भर आरोपी होने की तलवार नहीं ढोते हुए देखा जा सकता है। गुमनामी का अधिकार; भूल जाने का अधिकार लोकतांत्रिक देशों द्वारा विकसित सिद्धांत हैं, जो सूचना निजता के अधिकार के पहलुओं में से एक हैं। फ्रांस और इटली जैसे देशों में 19वीं शताब्दी में ही ये अधिकार विकसित हो गए थे।”

न्यायालय ने आगे कहा,

“इस बात पर कोई विवाद नहीं हो सकता कि निजता का अधिकार जिसके भूल जाने का अधिकार और अकेले रहने का अधिकार अंतर्निहित पहलू हैं। एक बार ऐसा हो जाने पर जाहिर है, अभियोक्ता और अपीलकर्ता के नाम को छिपाया/मिटाया जाना चाहिए, जिससे वे किसी भी सर्च इंजन में दिखाई न दें, कम से कम इससे न केवल प्रतिवादी और अभियोक्ता को बल्कि उनकी छोटी बेटी को उनके दैनिक जीवन, कैरियर की संभावनाओं आदि में अपूरणीय कठिनाई, पूर्वाग्रह आदि का सामना करना पड़ सकता है।"

तदनुसार, न्यायालय ने अपीलकर्ता और अभियोक्ता के नामों को स्पेशल जज, बिलासपुर के डेटाबेस से हटाने का निर्देश दिया।

न्यायालय ने रजिस्ट्रार जनरल को तत्काल अपील से संबंधित डिजिटल रिकॉर्ड में अपीलकर्ता का नाम छिपाने का भी निर्देश दिया।

केस टाइटल- हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम XYZ

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