NDPS ACT | मुहर कोर्ट में न दिखाने से केस रद्द नहीं होगा: हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट
हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने साफ कर दिया कि NDPS Act के तहत दर्ज मामले को सिर्फ इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता कि बरामद मादक पदार्थ को सील करने में प्रयुक्त मुहर ट्रायल कोर्ट के सामने पेश नहीं की गई।
कोर्ट ने कहा कि जब केस प्रॉपर्टी की सुरक्षित स्थिति और उसके साथ किसी तरह की छेड़छाड़ न होने के ठोस सबूत मौजूद हों तो सील का न प्रस्तुत होना अभियोजन के खिलाफ नहीं जा सकता।
यह मामला 26 सितंबर, 2018 का है, जब पुलिस रात में गश्त कर रही थी। गश्त के दौरान हिमाचल के एक गांव में पुलिस को एक बोलेरो गाड़ी सुनसान जगह पर खड़ी मिली, जिसकी आंतरिक लाइट जल रही थी।
पुलिस ने गाड़ी के ड्राइवर से दस्तावेज मांगे लेकिन वह उन्हें नहीं दिखा पाया। इसके बाद पुलिस ने डैशबोर्ड खोला तो उसमें खाकी टेप में लिपटा हुआ गोल आकार का पदार्थ मिला। खोलने पर पता चला कि वह हेरोइन थी, जिसका वजन 23 ग्राम निकला। चूंकि देर रात का समय था स्वतंत्र गवाह उपलब्ध नहीं हो सके और सरकारी गवाहों की मौजूदगी में कार्रवाई की गई। इस पर FIR दर्ज हुई और ट्रायल कोर्ट ने आरोपी पर NDPS Act की धारा 21, 25 और 29 के तहत आरोप तय किए।
हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान आरोपी की ओर से दलील दी गई कि ट्रायल कोर्ट में वह मुहर पेश ही नहीं की गई, जिससे यह साबित हो सके कि बरामदगी के समय जो सील लगाई गई, वही सील कोर्ट के सामने मौजूद है। इसे अभियोजन के मामले को संदेहास्पद बताते हुए दोषसिद्धि को चुनौती दी गई।
जस्टिस राकेश काइंथला ने इस दलील को ठुकरा दिया। उन्होंने कहा कि पुलिस ने जब्त किए गए पैकेट को सील करने के बाद उसकी छाप (Seal Impression) NCB-I फॉर्म और अलग कपड़े के टुकड़ों पर ली थी। ट्रायल कोर्ट ने इन्हीं छापों को पैकेट पर लगी सील से मिलाकर उनकी सत्यता सुनिश्चित की थी। ऐसे में मुहर का ट्रायल कोर्ट में न प्रस्तुत होना अभियोजन के मामले को कमजोर नहीं करता।
कोर्ट ने यह भी कहा कि यह बरामदगी आकस्मिक थी। इसलिए स्वतंत्र गवाह न मिल पाना अभियोजन की कमजोरी नहीं माना जा सकता।
पुलिसकर्मियों की गवाही को केवल उनके सरकारी पद के आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता। हल्की-फुल्की विसंगतियां जैसे बरामदगी का सटीक समय या रोशनी की स्थिति केस को कमजोर करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं।
हाईकोर्ट ने अंततः माना कि ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को जो चार साल की कठोर कैद की सजा सुनाई, वह न तो कठोर है और न ही अनुचित। इसलिए ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा गया।
केस टाइटल: Digvijay Singh बनाम State of H.P.