हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के सदस्य के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई प्राइवेट लॉ के दायरे में, रिट याचिका सुनवाई योग्य नहीं: हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट
हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस एम.एस. रामचंद्र राव और जस्टिस ज्योत्सना रेवाल दुआ की खंडपीठ ने कहा कि एसोसिएशन के मानदंडों/उपनियमों के अनुसार हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के सदस्य के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई निजी कानून के दायरे में है। इसलिए यह माना गया कि बार एसोसिएशन के पदाधिकारियों के खिलाफ उनकी व्यक्तिगत क्षमता में रिट याचिका सुनवाई योग्य नहीं।
संक्षिप्त तथ्य:
याचिकाकर्ता हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले वकील ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और हाईकोर्ट बार एसोसिएशन द्वारा जारी दो नोटिसों को चुनौती दी।
कार्यकारी समिति की बैठक के दौरान पारित प्रस्ताव के बाद बार एसोसिएशन द्वारा अपने सचिव के माध्यम से पहला नोटिस जारी किया गया। इस नोटिस में आरोप लगाया गया कि याचिकाकर्ता बार एसोसिएशन की गतिविधियों में अनावश्यक रूप से हस्तक्षेप कर रहा है और बार रूम में विस्तार कार्य करने के लिए एसोसिएशन द्वारा नियुक्त श्रमिकों के साथ विवाद में लगा हुआ है। याचिकाकर्ता को इन आरोपों के जवाब में अपने आचरण की व्याख्या करने की आवश्यकता है।
दूसरा नोटिस कथित तौर पर एचपी हाईकोर्ट बार एसोसिएशन की अनुशासन समिति बनाने वाले तीन सदस्यों द्वारा जारी किया गया। इस नोटिस में याचिकाकर्ता को अपने खिलाफ लगाए गए आरोपों को संबोधित करने के लिए समिति के समक्ष उपस्थित होने के लिए बाध्य किया गया। याचिकाकर्ता ने दलील दी कि ये नोटिस अन्यायपूर्ण हैं और बार एसोसिएशन के पदाधिकारियों द्वारा की गई कार्रवाई की प्रक्रियात्मक निष्पक्षता और वैधता को चुनौती देते हैं।
हाईकोर्ट की टिप्पणियां:
हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन बनाम बी.डी. कौशिक मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया। उक्त मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि संबंधित अदालतों द्वारा मान्यता प्राप्त एसोसिएशन, बेंच और बार के बीच माध्यम के रूप में कार्य करते हैं, जो सहयोग को बढ़ावा देते हैं। अदालत परिसर के भीतर सदस्यों के उचित आचरण को सुनिश्चित करते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि चैंबर और अन्य सुविधाएं ऐसे व्यक्तियों को नहीं दी जा सकतीं, क्योंकि वे अदालत के अधिकार क्षेत्र में सक्रिय व्यवसायी नहीं हैं।
हालांकि, हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन और एचपी हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के बीच महत्वपूर्ण अंतर नोट किया, अर्थात्, 1860 के सोसायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत पूर्व की रजिस्टर्ड स्थिति।
हाईकोर्ट ने सार्वजनिक कार्यों में लगी निजी संस्थाओं पर रिट क्षेत्राधिकार की प्रयोज्यता पर विचार-विमर्श किया। इसमें सेंट मैरी एजुकेशन सोसाइटी बनाम राजेंद्र प्रसाद भार्गव और अन्य में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया गया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने माना कि निजी शैक्षणिक संस्थान के खिलाफ रिट याचिका केवल तभी सुनवाई योग्य है, जब इसमें कोई सार्वजनिक कानून तत्व शामिल हो।
हाईकोर्ट ने माना कि अपंजीकृत बार एसोसिएशन द्वारा अपने सदस्यों के खिलाफ शुरू की गई अनुशासनात्मक कार्रवाइयों में सार्वजनिक कानून का तत्व शामिल नहीं है। नतीजतन, भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत क्षेत्राधिकार ऐसे मामलों पर निर्णय देने तक विस्तारित नहीं होता है, क्योंकि वे मुख्य रूप से निजी कानून के दायरे में आते हैं।
रामकृष्ण मिशन बनाम कागो कुन्या और अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी इकाई को सार्वजनिक कार्य का निर्वहन करने वाला माना जाने के लिए उसकी गतिविधियों को आम तौर पर राज्य द्वारा अपनी संप्रभु क्षमता में की जाने वाली गतिविधियों के साथ निकटता से मेल खाना चाहिए। अस्पताल के प्रबंधन में राज्य नियंत्रण की अनुपस्थिति ने न्यायालय के निर्णय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई कि यह सार्वजनिक प्राधिकरण के रूप में योग्य नहीं है।
हाईकोर्ट ने माना कि चूंकि याचिकाकर्ता और एचपी हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के बीच विवाद में कोई स्पष्ट सार्वजनिक कानून तत्व नहीं है। एसोसिएशन की अपंजीकृत स्थिति को देखते हुए इसके पदाधिकारियों के खिलाफ उनकी व्यक्तिगत क्षमता में रिट याचिका सुनवाई योग्य नहीं है।
नतीजतन, हाईकोर्ट ने रिट याचिका खारिज कर दी।
केस टाइटल: अभिमन्यु राठौड़ बनाम रजिस्ट्रार जनरल, एचपी हाईकोर्ट और अन्य