आरोप पत्र के खिलाफ रिट पिटिशन सुनवाई योग्य नहीं, जब तक कि यह ऐसे प्राधिकरण की ओर से जारी न की गई हो, जिसे अनुशासनात्मक कार्यवाई शुरु करने का अधिकार नहीं: राजस्थान हाईकोर्ट

Update: 2024-01-02 12:25 GMT

राजस्थान हाईकोर्ट ने सार्वजनिक परिवहन के ड्राइवर द्वारा दायर रिट याचिका खारिज कर दी। उक्त याचिका में राजस्थान राज्य सड़क परिवहन निगम द्वारा उसे दी गई चार्जशीट रद्द करने की मांग की गई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि कुछ यात्रियों को बिना टिकट यात्रा करते हुए पाया गया था। रिट याचिका आम तौर पर आरोप पत्र के खिलाफ नहीं होती है, जब तक कि यह स्थापित नहीं हो जाता कि यह किसी ऐसे प्राधिकारी द्वारा जारी की गई, जो अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू करने में सक्षम नहीं है।

जस्टिस अनूप कुमार ढांड की एकल न्यायाधीश पीठ ने कहा:

“…सरकार को आचरण नियमों के उल्लंघन के लिए किसी कर्मचारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू करने से नहीं रोका गया, भले ही कथित कदाचार न्यायिक या अर्ध-न्यायिक कार्य करते समय हुआ हो। वर्तमान मामले में आरोप पत्र स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि याचिकाकर्ता ने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय लापरवाही से काम किया और अपने पद का दुरुपयोग किया, जो कदाचार या आचरण नियमों का उल्लंघन है।

याचिकाकर्ता का मामला यह है कि 22 फरवरी, 2011 को उसे आरोप पत्र का ज्ञापन दिया गया, जिसमें आरोप लगाया गया कि कुछ यात्री बिना टिकट के पाए गए।

याचिकाकर्ता की ओर से पेश वकील ने कहा कि याचिकाकर्ता का करियर खराब करने के गलत इरादे से बिना किसी निर्णायक सबूत के याचिकाकर्ता को उक्त आरोप पत्र जारी किया गया।

दूसरी ओर, प्रतिवादियों की ओर से पेश वकील ने दलील दी कि यात्रियों को बिना टिकट ले जाने के कदाचार के लिए याचिकाकर्ता को आरोप पत्र का ज्ञापन जारी किया गया, जिसमें उसके खिलाफ आरोप लगाए गए हैं। आगे यह तर्क दिया गया कि याचिकाकर्ता आरोपों के खिलाफ अपना जवाब और बचाव प्रस्तुत करने के लिए स्वतंत्र है। उसके बाद जांच अधिकारी और अनुशासनात्मक प्राधिकारी याचिकाकर्ता के बचाव को ध्यान में रखते हुए मामले को समाप्त करेंगे।

इसलिए यह प्रस्तुत किया गया कि चूंकि याचिकाकर्ता के खिलाफ लगाए गए आरोपों की सत्यता का फैसला करने के लिए अनुशासनात्मक प्राधिकरण है। इसलिए इस न्यायालय के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।

अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता अपना जवाब भरकर और अपने बचाव के समर्थन में पर्याप्त सबूत पेश करके अपना बचाव कर सकता है। अदालत आरोपों की सत्यता का फैसला करने के लिए जांच अधिकारी या अनुशासनात्मक प्राधिकारी के रूप में कार्य नहीं कर सकती।

न्यायालय ने भारत संघ एवं अन्य बनाम वी. के.के. धवन (1993) 2 एससीसी 56 और उड़ीसा राज्य बनाम संग्राम केशरी मिश्रा (2010) 13 एससीसी 311 में सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों पर भरोसा किया।

कोर्ट ने कहा,

“यह स्थापित कानून है कि आरोप पत्र में अदालत द्वारा हल्के या नियमित तरीके से हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है। दोषी कर्मचारी को प्रारंभिक चरण में आरोप-पत्र रद्द करने की मांग करने के बजाय जांच अधिकारी/अनुशासनात्मक प्राधिकारी के समक्ष अपना जवाब प्रस्तुत करना होगा और कार्यवाही के समापन की प्रतीक्षा करनी होगी।”

इस प्रकार, न्यायालय ने याचिकाकर्ता द्वारा दायर रिट याचिका खारिज कर दी। हालांकि, न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्ता जांच अधिकारी या अनुशासनात्मक प्राधिकारी के समक्ष अपने सभी उपलब्ध बचाव पेश करने के लिए स्वतंत्र होगा।

केस टाइटल: लक्ष्मण सिंह गुर्जर बनाम राजस्थान राज्य सड़क परिवहन निगम और 2 अन्य।

केस नंबर: एस.बी. सिविल रिट याचिका संख्या 6611/2011

ऑर्डर पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें




Tags:    

Similar News