प्रेस को प्रतिष्ठित व्यक्ति के खिलाफ मानहानिकारक सामग्री प्रकाशित करने से बचना चाहिए: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट

Update: 2024-01-09 07:03 GMT

जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने किसी व्यक्ति के खिलाफ स्पष्ट रूप से अपमानजनक सामग्री प्रकाशित करने से प्रेस को सावधान करते हुए कहा कि प्रेस द्वारा प्रकाशित सामग्री को विधिवत सत्यापित किया जाना चाहिए और यह मानने के लिए पर्याप्त कारण होना चाहिए कि यह सच है और जनता की भलाई के लिए है।

जस्टिस विनोद चटर्जी कौल ने प्रतिष्ठित व्यक्ति के खिलाफ अपमानजनक सामग्री प्रकाशित करने के लिए बचाव के रूप में "सच्चाई" को खारिज कर दी, जहां कोई सार्वजनिक हित शामिल नहीं है।

उन्होंने टिप्पणी की,

“प्रेस को सार्वजनिक हित के संरक्षक के रूप में सार्वजनिक निकायों में भ्रष्टाचार और अनियमितताओं के मामलों को उजागर करने का अधिकार है, लेकिन ऐसी रिपोर्टिंग अकाट्य साक्ष्य पर आधारित होनी चाहिए। साथ ही, संबंधित स्रोतों से उचित जांच और सत्यापन के बाद प्रकाशित की जानी चाहिए। इसमें संस्करण भी शामिल होना चाहिए, जिस व्यक्ति या प्राधिकारी पर टिप्पणी की जा रही है।”

जस्टिस कौल ने याचिका पर सुनवाई करते हुए ये टिप्पणियां कीं, जिसके संदर्भ में याचिकाकर्ता अखबार के मालिक ने शिकायत और उससे उत्पन्न कार्यवाही रद्द करने की मांग की।

शिकायतकर्ता रिटायर्ड आईजीपी ने ट्रायल कोर्ट के समक्ष शिकायत दर्ज की, जिसमें आरोप लगाया गया कि याचिकाकर्ता जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण रूप से अपने समाचार पत्र में शिकायतकर्ता के खिलाफ झूठी, निंदनीय और अपमानजनक खबरें चला रहा है। परिणामस्वरूप, उनकी बदनामी हुई। इसके अलावा, उनके समाचार पत्र में प्रकाशित समाचारों के कारण समाज को बड़े पैमाने पर क्षति हुई। शिकायत पर संज्ञान लेते हुए ट्रायल कोर्ट ने याचिकाकर्ता के खिलाफ प्रोसीजर जारी किया।

शिकायत पर हमला करते हुए याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि ट्रायल कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 499, 500, 501, 502 के तहत अपराध स्थापित करने के लिए पर्याप्त सामग्री के बिना मामले का गलती से संज्ञान लिया। याचिकाकर्ता ने आगे कहा कि प्रकाशित समाचार जम्मू-कश्मीर सूचना का अधिकार अधिनियम के माध्यम से प्राप्त जानकारी से प्राप्त किए गए। इसलिए उन्होंने इसे सच माना और इसे अच्छे विश्वास के साथ प्रकाशित किया।

अदालत ने याचिकाकर्ता द्वारा शिकायतकर्ता/प्रतिवादी के खिलाफ अपने समाचार पत्र में प्रकाशित समाचार लेखों की जांच की।

जांच के बाद पीठ ने टिप्पणी की,

"लेखों को जब समग्रता में पढ़ा जाएगा तो यह संकेत मिलेगा कि इसका उद्देश्य स्पष्ट रूप से शिकायतकर्ता को "भ्रष्ट व्यक्ति" कहकर बदनाम करना है, जिसने अपने पद का दुरुपयोग किया और वह बेईमान व्यक्ति है।"

सुर्खियों की प्रकृति पर विचार करते हुए अदालत ने कहा कि उन्होंने स्पष्ट रूप से प्रदर्शित किया कि याचिकाकर्ता का इरादा प्रतिवादी को बदनाम करना था।

जस्टिस कौल ने कहा,

“याचिकाकर्ता द्वारा एकत्र की गई सामग्री को पूरी तरह से प्राप्त जानकारी के साथ प्रकाशित नहीं किया गया, बल्कि याचिकाकर्ता की अपनी व्याख्या और राय को भी मिश्रित किया गया और उसे अखबार में प्रकाशित किया गया। निष्कर्षतः इसे संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत संरक्षित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रूप में संरक्षित नहीं किया जा सकता।”

इन टिप्पणियों के आलोक में पीठ ने सीआरपीसी की धारा 482 के तहत अपनी अंतर्निहित शक्तियों को लागू करना विवेकपूर्ण नहीं पाया। इसलिए याचिका खारिज कर दी।

केस टाइटल: प्रीतम चंद उर्फ ​​प्रीतम सिंह बनाम डॉ. कमल सैनी।

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