वकीलों को यौन उत्पीड़न और महिलाओं की गरिमा को ठेस पहुंचाने के आरोप लगाने वाले मामले दर्ज न करने के लिए जागरूक किया जाना चाहिए: दिल्ली हाईकोर्ट
दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में वकीलों को जागरूक करने का आह्वान किया, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि यौन उत्पीड़न और महिलाओं की गरिमा को ठेस पहुंचाने के आरोप लगाने वाले अपराधों के लिए तुच्छ मामले दर्ज करके कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग न किया जाए।
जस्टिस सुब्रमण्यम प्रसाद ने कहा कि उन व्यक्तियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने का समय आ गया है, जो भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 354, 354ए, 354बी, 354सी और 354डी आदि के तहत केवल गुप्त उद्देश्य से तुच्छ शिकायतें दर्ज कराते हैं।
अदालत ने कहा,
"यह देखना भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि वकील ऐसे तुच्छ मामले दर्ज कराने के लिए पक्षों को सलाह दे रहे हैं और उकसा रहे हैं। समय आ गया है कि वकीलों को भी संवेदनशील बनाया जाए, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग न हो।"
जस्टिस प्रसाद ने महिलाओं की गरिमा को ठेस पहुंचाने के आरोप में मकान मालिकों और किरायेदारों द्वारा दर्ज दो क्रॉस एफआईआर खारिज करते हुए यह टिप्पणी की।
किराएदार ने आरोप लगाया कि उसके मकान मालिक ने उसका शील भंग किया है। अन्य एफआईआर में मकान मालिक ने आरोप लगाया कि किराएदार ने उसका शील भंग किया। पक्षों के बीच हुए समझौते के आधार पर मामले को रद्द करने की मांग की गई।
अदालत ने कहा,
"दुर्भाग्य से अब धारा 354, 354ए, 354बी, 354सी, 354डी आईपीसी के तहत अपराधों का आरोप लगाते हुए एफआईआर दर्ज करना चलन बन गया है, या तो किसी पक्ष को उनके खिलाफ दर्ज शिकायत वापस लेने के लिए मजबूर करने के लिए या किसी पक्ष को मजबूर करने के लिए। धारा 354, 354ए, 354बी, 354सी, 354डी आईपीसी के तहत अपराध गंभीर अपराध है।”
इसमें कहा गया कि इस तरह के आरोप उस व्यक्ति की छवि को धूमिल करने का प्रभाव डालते हैं, जिसके खिलाफ वे लगाए जाते हैं। अदालत ने कहा कि इस तरह के आरोप तुरन्त नहीं लगाए जा सकते।
अदालत ने कहा,
“यह प्रथा कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग है। यह मामला इस बात का एक उत्कृष्ट उदाहरण है कि कैसे धारा 354 और 354 ए के तहत पक्षों द्वारा एक-दूसरे के खिलाफ तुच्छ आरोप लगाए गए। मकान मालिक किरायेदार विवाद को महिलाओं की शील भंग करने का रंग दिया गया और यहां तक कि बच्चों को भी नहीं बख्शा गया। उन्हें पीड़ित के रूप में लाया गया।”
जस्टिस प्रसाद ने इस तथ्य का भी न्यायिक संज्ञान लिया कि पुलिस बल बहुत सीमित है। उसे तुच्छ मामलों की जांच में समय बिताना पड़ता है।
अदालत ने कहा,
“उन्हें अदालती कार्यवाही में शामिल होना पड़ता है, स्टेटस रिपोर्ट तैयार करनी पड़ती है। इसका नतीजा यह होता है कि गंभीर अपराधों की जांच प्रभावित होती है और घटिया जांच के कारण आरोपी बच निकलते हैं।”
दो एफआईआर रद्द करते हुए अदालत ने 15 लाख रुपये का जुर्माना लगाया। याचिकाकर्ताओं पर 10,000 रुपये का जुर्माना लगाया गया, जिसे सशस्त्र सेना युद्ध हताहत कल्याण कोष में जमा किया जाना है।
केस टाइटल- राजेश वाधवा और अन्य बनाम दिल्ली राज्य राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और अन्य तथा अन्य संबंधित मामले