'क्या अब UCC लागू करने का समय नहीं आ गया?': दिल्ली हाईकोर्ट ने बाल विवाह की आपराधिकता पर इस्लामी और भारतीय कानूनों में मतभेदों की ओर इशारा किया

Update: 2025-09-26 05:08 GMT

दिल्ली हाईकोर्ट ने बाल विवाह की वैधता और आपराधिकता पर इस्लामी और भारतीय कानूनों में मतभेदों की ओर इशारा करते हुए कहा, "क्या अब समान नागरिक संहिता (UCC) की ओर बढ़ने का समय नहीं आ गया?"

जस्टिस अरुण मोंगा ने इसे "बार-बार होने वाला विवाद" बताते हुए कहा कि इस्लामी कानून के तहत यौवन प्राप्त करने वाली नाबालिग लड़की कानूनी रूप से विवाह कर सकती है। हालांकि, भारतीय आपराधिक कानून के तहत ऐसा विवाह पति को भारतीय न्याय संहिता (BNS) और POCSO Act, या दोनों के तहत अपराधी बनाता है।

अदालत ने कहा,

"इससे एक गंभीर दुविधा पैदा होती है कि क्या लंबे समय से चले आ रहे व्यक्तिगत कानूनों का पालन करने के लिए समाज को अपराधी बनाया जाना चाहिए? क्या अब समान नागरिक संहिता (UCC) की ओर बढ़ने का समय नहीं आ गया, जो एक ऐसा ढांचा सुनिश्चित करे, जहां व्यक्तिगत या प्रथागत कानून राष्ट्रीय कानून पर हावी न हों?"

अदालत ने आगे कहा कि इस विवाद के लिए "विधायी स्पष्टता" ज़रूरी है और विधानमंडल को यह तय करना होगा कि पूरे समुदायों का अपराधीकरण जारी रखा जाए या कानूनी निश्चितता के ज़रिए शांति और सद्भाव को बढ़ावा दिया जाए।

अदालत ने कहा,

"निःसंदेह, समान नागरिक संहिता के विरोधी आगाह करते हैं कि एकरूपता भारत के संविधान में प्रत्येक नागरिक को मौलिक अधिकार के रूप में दी गई धार्मिक स्वतंत्रता को कमज़ोर कर सकती है। हालांकि, ऐसी स्वतंत्रता उन प्रथाओं तक नहीं बढ़ सकती, जो व्यक्तियों को आपराधिक दायित्व के लिए उजागर करती हैं। एक व्यावहारिक मध्य मार्ग मुख्य सुरक्षा उपायों को मानकीकृत करना हो सकता है, जैसे कि बाल विवाह पर प्रतिबंध लगाना और दंडात्मक परिणाम देना, क्योंकि ये BNS और POCSO दोनों के साथ सीधे तौर पर विरोधाभासी हैं।"

अदालत ने आगे कहा,

"साथ ही कम विवादास्पद व्यक्तिगत मामलों को संबंधित समुदायों के भीतर धीरे-धीरे विकसित होने दिया जा सकता है। यह निर्णय देश के विधि निर्माताओं के विवेक पर छोड़ देना ही बेहतर है। हालांकि, स्थायी समाधान जल्द ही विधानमंडल/संसद से आना चाहिए।"

अदालत मोंगा एक 24 वर्षीय व्यक्ति द्वारा दायर याचिका पर विचार कर रहे थे, जिस पर नाबालिग से विवाह करने का आरोप है। लड़की ने अपनी उम्र 20 साल बताई, जबकि अभियोजन पक्ष ने कहा कि वह 15 से 16 साल की नाबालिग है।

सौतेले पिता द्वारा यौन उत्पीड़न के बाद लड़की 14 साल की उम्र में माँ बन गई। बाद में बच्चे को गोद दे दिया गया। हालांकि, बाद में आरोपी ने उससे शादी कर ली। यह शादी इस्लामी कानून के तहत हुई और दंपति को एक संतान की प्राप्ति हुई।

सौतेला पिता एक आपराधिक मामले में न्यायिक हिरासत में है और उस पर मुकदमा चल रहा है। हालांकि, उसने शादी के तुरंत बाद ही पति के खिलाफ उसकी बेटी के साथ बलात्कार का मामला दर्ज करा दिया था। आरोपी पति 11 महीने से ज़्यादा समय से जेल में बंद है।

आरोपी को राहत देते हुए अदालत ने कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत लड़कियों के लिए विवाह योग्य उम्र 15 साल मानी जाती है, जब तक कि अन्यथा साबित न हो जाए।

अदालत ने कहा कि कई मिसालों ने 15 साल से ज़्यादा और 18 साल से कम उम्र की लड़कियों की इस्लामी शादियों को शरीयत के तहत वैध ठहराया है। हालांकि, जिन मामलों में यौवन या 15 वर्ष की आयु स्थापित नहीं हुई, वहां विवाह को अमान्य घोषित कर दिया गया।

अदालत ने कहा कि चाहे यह असामयिक यौवन का मामला हो, या पीड़िता वास्तव में सहमति की आयु की थी, या यह वैध इस्लामी विवाह का मामला है, ज़मानत की कार्यवाही में इसका निर्णय संभवतः नहीं किया जा सकता। अदालत ने आगे कहा कि कानून स्पष्ट है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ, POCSO Act या BNS को रद्द नहीं कर सकता।

अदालत ने कहा कि इस विवाद के बावजूद कि यह एक वैध विवाह है या नहीं, यह आरोपी पति को ज़मानत देने के लिए एक उपयुक्त मामला है।

अदालत मोंगा ने कहा कि ज़मानत के लिए भी अगर यह मान लिया जाए कि अभियुक्त पति और पीड़िता के बीच विवाह वैध नहीं है तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि उनका रिश्ता न केवल सहमति से है, बल्कि लिव-इन पार्टनर जैसा भी है, और 24 और 20 साल की उम्र होने के नाते, जैसा कि उन्होंने दावा किया, वे दोनों इस तरह के रिश्ते में आने के पूरे हकदार है।

अदालत ने आगे कहा कि यह बहस का विषय है कि दोनों मुस्लिम होने के नाते उन्हें अपने धर्म का पालन करने का पूरा अधिकार है, जो भारत के संविधान के तहत मौलिक अधिकार है। चूंकि प्रचलित इस्लामी कानून के अनुसार उनका धर्म और रीति-रिवाज विवाह की अनुमति देते हैं, इसलिए यह उनके व्यक्तिगत कानून में भी मान्य होगा। हालांकि यह विधानमंडल द्वारा बनाए गए कानून के तहत निर्धारित सहमति की उम्र का उल्लंघन हो सकता है।

याचिका स्वीकार करते हुए अदालत ने प्रथम दृष्टया कहा कि आरोपी पति को गिरफ्तारी के समय या उसके तुरंत बाद लिखित आधार भी नहीं दिए गए, जो संविधान के अनुच्छेद 22(1) और BNSS की धारा 47 का उल्लंघन है।

अदालत ने कहा,

"यह अदालत एक बार फिर सीनियर एडवोकेट (एमिक्स क्यूरी) नंदिता राव और एडवोकेट अमित पेसवानी द्वारा प्रदान की गई बहुमूल्य सहायता के लिए अपनी गहरी सराहना व्यक्त करती है। साथ ही चाणक्य नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के कुलपति प्रोफेसर फैजान मुस्तफा (इस्लामी कानून के विशेषज्ञ); जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली के इस्लामी अध्ययन विभाग के डॉ. मोहम्मद खालिद खान और वॉक्सेन यूनिवर्सिटी हैदराबाद में कानून के असिस्टेंट प्रोफेसर और इस्लामी कानून विशेषज्ञ ने इस विवाद का निपटारा करने के प्रयास में सहयोग दिया।"

Title: HAMID RAZA v. STATE OF NCT OF DELHI

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