यौन अपराधों की पीड़िता को हर स्तर पर सुनवाई का अधिकार, लेकिन उसे प्रतिवादी के रूप में शामिल करने की कोई कानूनी आवश्यकता नहीं: दिल्ली हाईकोर्ट
दिल्ली हाईकोर्ट ने माना है राज्य या आरोपी की ओर से शुरू की गई किसी भी आपराधिक कार्यवाही में कि यौन अपराधों के पीड़ित को पक्ष के रूप में शामिल करने की कोई कानूनी आवश्यकता नहीं है।
जस्टिस अनूप जयराम भंभानी ने जगजीत सिंह और अन्य बनाम आशीष मिश्रा @ मोनू और अन्य में सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले का हवाला दिया और कहा कि एक पीड़ित के पास सभी आपराधिक कार्यवाहियों में शामिल होने का "स्वच्छंद अधिकार" है, मगर यह पीड़ित को मामले में पक्षकार बनाने का अपने आप में कोई कारण नहीं है, जब तक कि दंड प्रक्रिया संहिता में ऐसा विशेष रूप से प्रदान नहीं किया गया हो।
अदालत ने कहा कि धारा 439(1ए) सीआरपीसी के तहत यह मैंडेट है कि पीड़ित को जमानत याचिकाओं में पक्षकार बनाए बिना जमानत संबंधित कार्यवाही में सुना जाना चाहिए।
सीआरपीसी की धारा 439 (1ए) में कहा गया है कि "भारतीय दंड संहिता की धारा 376 (3) या 376एबी या 376डीए या 376डीबी के तहत जमानत अर्जी की सुनवाई के दरमियान शिकायतकर्ता या उसकी ओर से अधिकृत किसी व्यक्ति की उपस्थिति अनिवार्य होगी।"
अदालत ने कहा कि हालांकि धारा 439(1ए) सीआरपीसी सुनवाई के दरमियान "शिकायतकर्ता की उपस्थिति" को अनिवार्य बनाता है, लेकिन जो अनिवार्य है, वह मामले में प्रभावी ढंग से सुनवाई का पीड़ित का अधिकार है।
कोर्ट ने कहा,
“यदि आवश्यक हो, पीड़ित का प्रतिनिधित्व करने में सहायता के लिए कानूनी सहायता वकील नियुक्त किया जा सकता है; पीड़िता, या उसके प्रतिनिधि की केवल सजावटी उपस्थिति, उन्हें सुनवाई का प्रभावी अधिकार दिए बिना, पर्याप्त नहीं होगी।”
अदालत आईपीसी की धारा 376 और पॉक्सो अधिनियम की धारा 4 के तहत दर्ज एक एफआईआर में हिरासत में बंद एक आरोपी की जमानत याचिका पर सुनवाई कर रही थी।
जस्टिस भंभानी ने सीनियर एडवोकेट रेबेका जॉन को जनवरी में एमिकस क्यूरी के रूप में यह तय करने के लिए नियुक्त किया था कि क्या किसी पीड़ित या यौन अपराधों के शिकायतकर्ता को आईपीसी और पोक्सो अधिनियम के तहत सूचना देने की आवश्यकता है, ऐसे व्यक्ति को जमानत याचिका या अपील के लिए एक पक्ष के रूप में भी शामिल करने की आवश्यकता है।
अदालत ने रजिस्ट्री को यौन अपराधों से संबंधित सभी फाइलिंग की सावधानीपूर्वक जांच करने और यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि अभियोजिका या पीड़िता की गुमनामी और निजता को सख्ती से बनाए रखा जाए।
आदेश में कहा गया कि नाम, माता-पिता, पता, सोशल मीडिया क्रेडेंशियल्स और अभियोजन पक्ष या पीड़ित की तस्वीरों को पार्टियों के मेमो सहित फाइलिंग में खुलासा नहीं किया जाना चाहिए।
अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि हाईकोर्ट में दायर यौन अपराधों से संबंधित मामलों की फाइलें या पेपर-बुक ऐसे व्यक्तियों की पहचान प्रमाण-पत्रों के सत्यापन के बाद, मुकदमे के पक्षकारों के अलावा किसी अन्य व्यक्ति को प्रदान नहीं की जानी चाहिए।
पीठ ने आगे ऐसे मामलों में जांच अधिकारियों को सादे कपड़ों में रहने का निर्देश दिया ताकि अभियोजिका या पीड़िता पर तामील को प्रभावित करने में किसी भी "अनुचित ध्यान" से बचा जा सके।
जस्टिस भंभानी ने यह भी कहा कि जारी किए गए निर्देशों को लिखित निर्देशों या रजिस्ट्रार जनरल द्वारा एक अधिसूचना के माध्यम से सारांशित किया जाना चाहिए और राष्ट्रीय राजधानी में प्रधान जिला एवं सत्र न्यायाधीशों को उनके संबंधित अधिकार क्षेत्र में और दिल्ली पुलिस के आयुक्त को भी सर्कूलेट किया जाना चाहिए।
अदालत ने कहा कि हिरासत में पूछताछ की आवश्यकता को निर्धारित करने में पीड़िता की कोई भूमिका नहीं होगी, जो कि जांच एजेंसी का काम होगा।
यह दोहराते हुए कि प्रतिनिधित्व और सुनवाई का अधिकार आपराधिक कार्यवाही में पक्षकार होने के अधिकार या दायित्व से अलग है, अदालत ने कहा, "वास्तव में, कई बार ऐसा हो सकता है कि पीड़ित अदालत के समक्ष सुनवाई की मांग नहीं कर सकता है। पीड़ित को कार्यवाही के लिए एक पक्ष बनाना उन्हें उपस्थित होने और 'बचाव' करने के लिए बाध्य करना...पीड़ित को अतिरिक्त कठिनाई और पीड़ा दे सकता है।"
अदालत ने रजिस्ट्रार जनरल को निर्देश दिया कि वह इस फैसले को मुख्य न्यायाधीश के संज्ञान में लाएं ताकि उचित अभ्यास दिशा-निर्देश या नोटिस या अधिसूचना तैयार की जा सके, जैसा कि उचित समझा जाए।
टाइटल: सलीम बनाम द स्टेट ऑफ एनसीटी ऑफ दिल्ली एंड एएनआर।
साइटेशन: 2023 लाइवलॉ (दिल्ली) 325