दुर्भाग्यपूर्ण है कि जब बार के सदस्य न्यायिक कार्य नहीं करते हैं तो मुविक्कलों को परेशानी उठानी पड़ती है और केस बढ़ते हैं : इलाहाबाद हाईकोर्ट

Unfortunate That Clients Suffer When Bar Members Abstain From Judicial Work Creating Backlog Of Cases: Allahabad High Court

Update: 2020-11-03 09:20 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट नेे सोमवार (02 नवंबर) को कहा कि, ''यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि क्लाइंट/मुविक्कल ऐसे मामलों के लिए परेशान हैं, जिन्हें आसानी से निपटाया जा सकता है, लेकिन बार के सदस्य न्यायिक कार्य से अनुपस्थित रहते हैं और लंबित मामलों का भार बढ़ रहा है।''

न्यायमूर्ति जसप्रीत सिंह की खंडपीठ एक 80 वर्षीय महिला की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसने एक मामला यू.पी. राजस्व संहिता, 2006 के तहत 06 फरवरी 2019 को दायर किया था और वह मामला प्रतिवादी नंबर 1 (आयुक्त, देवी पाटन मंडल, गोंडा) के समक्ष लंबित है।

उसके वकील ने अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया कि उसके नियंत्रण से परे के कारणों के चलते मामला लंबित पड़ा है, इसलिए उसने उपरोक्त परिस्थितियों में, उपरोक्त मामले के शीघ्र निपटान के लिए प्रार्थना की थी।

दूसरी ओर, स्टैंडिंग काउंसिल ने न्यायालय का ध्यान उपरोक्त कार्यवाहियों के आदेश पत्र की टाइप की गई प्रति की ओर आकर्षित किया।

कोर्ट ने कहा कि,

''इसे देखने के बाद यह पता चलता है कि विभिन्न कारणों से यह मामला लंबित है,जिसमें बार के सदस्यों का न्यायिक काम से अनुपस्थित रहना भी एक कारण है, जिसके परिणामस्वरूप मामले में बार-बार तारीख दी गई हैं।''

इसके अलावा, याचिकाकर्ता के वकील ने प्रस्तुत किया कि जहां तक वर्तमान याचिका का संबंध है, वह और उसके वकील एक अंडरटेकिंग प्रस्तुत करने के लिए तैयार हैं कि उनमें से कोई भी कभी भी मामले को स्थगित करने की मांग नहीं करेंगे। यहां तक कि अगर कभी न्यायाल के काम से वकीलों के अनुपस्थित रहने संबंधी कोई प्रस्ताव पास किया गया,तब भी उसका वकील न्यायपालिका की सहायता करने और मामले को शीघ्र निपटाने के लिए उपस्थित रहेगा।

याचिकाकर्ता के लिए काउंसिल के सबमिशन को ध्यान में रखते हुए, कोर्ट ने कहा कि,

''चूंकि याचिकाकर्ता की आयु 80 वर्ष है और मामला 2019 से लंबित है, तदनुसार, पूर्वोक्त रिट याचिका का निपटारा करते हुए यह निर्देश दिया जा रहा है कि प्रतिवादी नंबर 1 इस मामले में विचार करें और लंबित केस संख्या 00189/2019 पर अपना अंतिम फैसला सुनाए। इस मामले में आदेश की प्रमाणित प्रति प्राप्त होने की तारीख से चार महीने की अवधि के भीतर इस मामले का निपटारा कर दिया जाए। वहीं इस मामले में दी गई अंडरटेकिंग को भी संबंधित न्यायालय के समक्ष पेश किया जाए।''

न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि याचिकाकर्ता पूर्वोक्त अंडरटेकिंग को प्रस्तुत करने में विफल रहती है, तो वह पूर्वोक्त आदेश का लाभ पाने की हकदार नहीं होगी।

उपरोक्त के साथ, रिट याचिका का निपटारा कर दिया गया।

गौरतलब है कि पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने बार एसोसिएशन आॅफ इलाहाबाद एंड अवध द्वारा किए गए हड़ताल के आह्वान की आलोचना करते हुए कहा था कि वे ''हड़ताल का सहारा लेकर अपनी मांगों को नहीं मानवा सकते हैं,इससे कुछ नहीं होगा परंतु वादियों को मिलने वाले न्याय में देरी हो सकती है।''

2019 में दिए गए एक महत्वपूर्ण फैसले में, उत्तराखंड हाईकोर्ट ने कहा था कि अधिवक्ताओं द्वारा अदालती काम का बहिष्कार करने का सहारा लेना गैरकानूनी है और यह कदाचार भी है, जिसके लिए राज्य परिषद और उसकी अनुशासनात्मक समितियों द्वारा अनुशासनात्मक कार्रवाई की जा सकती है। ।

मुख्य न्यायाधीश रमेश रंगनाथन और न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा की खंडपीठ ने कहा था कि हड़ताल का सहारा लेना एक वकील का अव्यवसायिक और गैर-जिम्मेदाराना कार्य है। वह किसी हड़ताल या बहिष्कार की काॅल को स्वीकारते हुए अदालत के काम के लिए उपस्थित होने से इनकार नहीं कर सकता है।

फरवरी 2020 में जस्टिस अरुण मिश्रा और जस्टिस एमआर शाह (सुप्रीम कोर्ट) की खंडपीठ ने स्पष्ट रूप से कहा था कि अधिवक्ताओं द्वारा अदालतों का बहिष्कार अवैध था, और इसे भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के तहत बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के उपयोग के रूप में उचित नहीं ठहराया जा सकता है।

इस बात पर ध्यान दिया जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट में पूर्व कैप्टन हरीश उप्पल बनाम भारत संघ, (2003) 2 एससीसी 45 के मामले में कहा था कि,

''बार एसोसिएशन/ परिषद बहिष्कार या हड़ताल का आह्वान नहीं कर सकती है और केवल उन दुर्लभ मामलों में जहां बार और /या बेंच की गरिमा, अखंडता और स्वतंत्रता दांव पर है, अदालतें एक दिन के लिए आंखें मूंद सकती हैं। परंतु उसके बाद सभी वकीलों को साहसपूर्वक हड़ताल या बहिष्कार के किसी भी आह्वान का पालन करने से इनकार करना चाहिए और किसी भी वकील के खिलाफ एसोसिएशन या परिषद द्वारा कोई भी प्रतिकूल कार्यवाही नहीं की जानी चाहिए। न ही वकीलों को निष्कासित करने सहित किसी भी इस तरह की कार्यवाही की धमकी दी जानी चाहिए या उनके खिलाफ ऐसा कदम उठाया जाना चाहिए।''

केस का शीर्षक - श्रीमती अमीरून निसा बनाम आयुक्त, देवी पाटन मंडल, गोंडा व अन्य (MISC. SINGLE No. - 18845 of 2020)

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