मराठा आरक्षण पर रोक लगाने की याचिका पर जुलाई में सुनवाई होगी

Update: 2025-06-26 07:16 GMT

बॉम्बे हाईकोर्ट के अंतरिम आदेश को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई। हाईकोर्ट के इस आदेश में मराठा कोटा कानून पर रोक लगाने से इनकार कर दिया गया था और समुदाय को 10% आरक्षण का लाभ उठाने की अनुमति दी गई थी, जो इसे चुनौती देने वाली याचिकाओं के परिणाम के अधीन है।

जस्टिस केवी विश्वनाथन और जस्टिस एनके सिंह की खंडपीठ ने एक वकील द्वारा तत्काल सूचीबद्ध करने की मांग करने के बाद याचिका को फिर से खुलने वाले सप्ताह (14 जुलाई से शुरू होने वाले) में सूचीबद्ध करने की अनुमति दी।

वकील ने प्रस्तुत किया कि हाईकोर्ट ने मराठा आरक्षण पर रोक लगाने से इनकार कर दिया और इसे अनंतिम आधार पर संचालित करने की अनुमति दी।

वकील ने प्रस्तुत किया,

"यह उद्देश्य के लिए पर्याप्त नहीं है। इस माननीय न्यायालय ने मुकदमेबाजी के पिछले दौर में रोक लगाई है। यहां तक ​​कि उच्च न्यायालय ने पिछले दौर में भी रोक लगाई थी।"

हाईकोर्ट की तीन जजों की पीठ ने 11 जून को आदेश पारित कर मराठा समुदाय को शिक्षा और रोजगार में 10% आरक्षण का लाभ उठाने की अनुमति दी, जो 2024 के मराठा कोटा कानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं के अंतिम परिणाम के अधीन है। हाईकोर्ट ने मामले को शीघ्रता से तय करने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के अनुसरण में चुनौती पर सुनवाई के लिए शनिवार को विशेष बैठकें आयोजित करने का भी प्रस्ताव रखा।

हाईकोर्ट में याचिकाएं महाराष्ट्र राज्य सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों (SEBC) के लिए आरक्षण अधिनियम, 2024 की वैधता को चुनौती देती हैं, जो OBC श्रेणी के तहत मराठों के लिए 10% आरक्षण प्रदान करता है। जस्टिस (रिटायर) सुनील बी. शुक्रे के नेतृत्व वाले महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग (MSBCC) की रिपोर्ट के आधार पर 20 फरवरी, 2024 को विधानमंडल में अधिनियम पारित किया गया था। रिपोर्ट में मराठा समुदाय को आरक्षण देने के औचित्य के रूप में "असाधारण परिस्थितियों और असाधारण स्थितियों" का हवाला दिया गया, जो राज्य में 50 प्रतिशत कुल आरक्षण सीमा से अधिक है।

2021 में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 2018 में बनाए गए पहले के मराठा कोटा कानून रद्द कर दिया था, जिसमें 16% आरक्षण दिया गया था। इसमें कहा गया था कि कोई भी असाधारण परिस्थिति मराठों के लिए अलग से आरक्षण को उचित नहीं ठहराती है, जो 1992 के इंद्रा साहनी (मंडल) फैसले द्वारा निर्धारित 50 प्रतिशत की सीमा से अधिक है। सुप्रीम कोर्ट ने मराठों के सामाजिक पिछड़ेपन को स्थापित करने के लिए प्रस्तुत अनुभवजन्य आंकड़ों पर भी सवाल उठाया था।

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