सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मामले में बहुसंख्यकवादी भावना के आगे घुटने टेक दिए, संविधान की रक्षा करने में विफल रहाः सीनियर एडवोकेट दिनेश द‌िवेदी

Update: 2020-07-09 08:16 GMT

सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट दिनेश द्विवेदी ने कहा है कि अयोध्या मामले में बहुसंख्यकवाद विरोधी भावना की रक्षा करने में सुप्रीम कोर्ट विफल रहा।

लाइवलॉ की ओर से आयोजित एक वेब‌िनार में, जिसका विषय था, "न्यायालय और संवैधानिक मूल्य" बोलते हुए दिनेश द्व‌िवेदी ने कहा, "आम तौर पर, सुप्रीम कोर्ट ने संविधान और बहुसंख्यकवाद विरोधी भावना की रक्षा की है। मेरा स्पष्ट विचार है कि एकमात्र समय जब सुप्रीम कोर्ट बहुंसख्यकवाद विरोधी भावना की रक्षा करने में विफल रहा, वह तब था, जब सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद मामले में अनुच्छेद 142 की शक्ति का प्रयोग किया और बहुसंख्यक ‌हिंदू के पक्ष में फैसला दिया। मैं मानता हूं, यह वो जगह थी, जहां वे विफल रहे।"

अयोध्या के फैसले पर टिप्पणी करते हुए, उन्होंने कहा कि दो कारण हो सकते हैं, जिन्होंने जजों के दिमाग पर असर डाला होगा।

"एक, या तो जज खुद बहुसंख्यवाद की धारा में बह रहे, या, शायद उन्होंने महसूस किया होगा कि जब तक वे इसे बहुसंख्यक हिंदूओं को नहीं नहीं देते हैं, तब तक विवाद का हल नहीं होगा। यह पूरी तरह से गलत सोच थी। सुप्रीम कोर्ट को संविधान और कानून का पालन करना होगा। मुझे निश्चित रूप से लगता है कि सुप्रीम कोर्ट बहुसंख्यकवाद के आगे घुटने टेकर संविधान को विफल कर दिया।"

दिनेश द्विवेदी के अलावा, वेबिनार में सुप्रीम कोर्ट में पूर्व जज, जस्टिस कुरियन जोसेफ और सुप्रीम कोर्ट की सीनियर एडवोकेट मीनाक्षी अरोड़ा मौजूद थी। संचालन एडवोकेट अवनी बंसल ने किया।

दिनेश द्व‌िवेदी ने कहा, "संवैधानिक नैतिकता और मूल्य ट‌िटमाते सितारों नहीं, जो ऊपर आकाश में मौजूद हैं। उन्हें स्पष्ट रूप से निर्धारित किया गया है। संविधान एक जैव‌िक वस्तु है; हमें यह भरोसा करना चाहिए कि इसके प्रत्येक भाग को क्रियाशील बनाया जाना चाहिए। संविधान में संविधान की सर्वोच्चता का उल्लेख है।"

द्विवेदी ने इस बात पर जोर दिया कि संवैधानिक मूल्यों का उल्‍लेख संविधान की प्रस्तावना में ही किया गया है।

"संवैधानिक मूल्यों का स्रोत हमारे संविधान में निहित है। सभी अवधारणाओं का उल्लेख प्रस्तावना में किया गया है जैसे कि स्वतंत्रता, बंधुत्व, गरिमा आदि। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं हो सकता। सभी अधिकारों के समान मूल्य है।"

उन्होंने कहा कि सामाजिक नैतिकता संवैधानिक नैतिकता से बड़ी नहीं है। "वी द पीपल" की अवधारणा पर विस्तार से बात करते हुए, उन्होंने कहा कि एक लोकतांत्रिक गणराज्य को प्रस्तावना में निहित सिद्धांतों के अनुसार लोगों का कल्याण करना चाहिए।

द्विवेदी ने लोगों का कल्याण करने में संवैधानिक मूल्यों के महत्व को रेखांकित किया और न्याय, स्वतंत्रता, गरिमा और बंधुत्व जैसे विभिन्न मूल्यों के संयोजन के बारे में बताया।

"प्रस्तावना सभी संवैधानिक मूल्यों का स्रोत है। 'हम लोग' में सभी को शामिल किया गया हैं, चाहे कोई भी अलगाव का कारक क्यों न हो। तब यह कहता है कि हम एक लोकतांत्रिक गणराज्य हैं। सरकार को लोगों के कल्याण के लिए कार्य करना है। प्रस्तावना आगे बताया गया है कि सामान्य कल्याण को कैसे प्राप्त किया जाएगा?"

द्विवेदी ने सभी के लिए समान अधिकार के विचार पर भी रोशनी डाली।

"इस उद्देश्य के लिए, हमें यह समझना चाहिए कि सभी अधिकार समान हैं; अधिकारों का कोई पदानुक्रम नहीं है। हम यह नहीं कह सकते हैं कि अनुच्छेद 19 अनुच्छेद 14 से बेहतर है, या 14, 25 से बेहतर है। सभी अधिकारों के समान मूल्य हैं और सभी एक साथ, जन कल्याण को प्राप्त करने में सत्ता की की मदद करेंगे।"

उन्होंने कहा कि संवैधानिक मूल्यों का पालन करने से एक जज को मानवीय पूर्वाग्रहों के अनुसार कार्य करने में बाधा आ सकती है।

"एक श्रद्धालु हिंदू जज का मामला लें, उसमें कुछ झुकाव हो सकता है। हालांकि, अगर वह अपनी शपथ के प्रति ‌निष्ठावान है और संविधान के प्रति निष्ठा रखता है, तो भक्ति को प्रधानता देने से पहले, उसे संवैधानिक मूल्यों को प्रधानता देगा। जज भी एक इंसान है। हम जिस समाज में पैदा हुए हैं, एक जज भी उसी समाज में पैदा हुआ है। वे एक द्वीप की तरह नहीं रह सकते हैं और निश्चित रूप से विचलन हो सकता है। लेकिन, संवैधानिक नैतिकता उनके विचलन या विषयांतर को रोकेगी।"

द्विवेदी ने पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई पर लगे यौन उत्पीड़न के आरोपों पर भी टिप्पणी की। उन्होंने कि महिला को पूरी तनख्वाह के साथ बहाल किया गया है, जिसका मतलब यह हे कि उसकी ओर से कोई गलती नहीं हुई थी।

उन्होंने कहा, "अगर यह न्यायपालिका को अस्थिर करने का प्रयास था, तो सुओ मोटो कंटेम्प्ट क्यों नहीं दायर किया गया? जांच रिपोर्ट भी नहीं जारी की गई। मुझे समझ नहीं आ रहा है कि इस मुद्दे में संविधान को कैसे बरकरार रखा गया।"

अंत में उन्होंने एक निरंकुश सरकार के खतरों पर टिप्पणी की, और निरंकुश और और अराजकता सरकारों के बीच उचित संतुलन खोजने की आवश्यकता पर जोर दिया।

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