घरेलू हिंसा अधिनियम और धारा 125 सीआरपीसी के तहत भरणपोषण का दावा करने का अधिकार परस्पर अनन्य नहीं: दिल्ली हाईकोर्ट

Update: 2022-05-30 06:41 GMT

दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि डीवी एक्ट, 2005 और धारा 125, सीआरपीसी के तहत भरण-पोषण के दावे का अधिकार परस्पर अनन्य नहीं है। जस्टिस आशा मेनन ने माना कि पीड़ित धारा 125, सीआरपीसी की तहत स्थायी भरण पोषण की मांग करते हुए मजिस्ट्रेट के समक्ष अंतरिम भरण पोषण की मांग कर सकता है।

अदालत ने कहा,

"एकमात्र चेतावनी यह है कि एक अदालत द्वारा दिए गए भरण-पोषण को दूसरी अदालत द्वारा भरण-पोषण देने या अस्वीकार करने से पहले ध्यान में रखा जाएगा।"

मौजूदा मामले में याचिकाकर्ता और प्रतिवादी नंबर 2 पति-पत्नी थे और उनके बीच कई मुकदमे चल रहे थे। एक मामला एमएम के समक्ष घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के तहत और दूसरा फैमिली कोर्ट के समक्ष धारा 125 सीआरपीसी के तहत दायर किया गया था।

पति ने एएसजे द्वारा 30 जनवरी 2020 को पारित आदेश के खिलाफ हाईकोर्ट के समक्ष अपील दायर की थी। पत्नी ने एमएम के आदेश के खिलाफ सीमा अधिनियम की धारा 5 के तहत आवेदन दायर किया था।

घरेलू हिंसा के तहत पत्नी द्वारा दायर शिकायत मामले में, उसका धारा 23 के तहत दायर आवेदन, जिसमें उसने पति से भरण-पोषण की मांग की थी, 29 सितंबर, 2014 के आदेश के जरिए रद्द कर दिया गया था। एएसजे ने कहा कि हालांकि अपील दायर करने में काफी देरी हुई थी, अपीलकर्ता ने देरी के कारण को पर्याप्त रूप से समझाया था। तदनुसार, 8,000 रुपये के जुर्माने के साथ विलंब की माफी के आवेदन की अनुमति दी गई थी।

कोर्ट ने पाया कि यह एक ऐसा मामला था जहां राहत के विभिन्न तरीकों ने काफी भ्रम पैदा किया था, जिसे फैमिली कोर्ट और एएसजे दोनों ने सुलझाने की कोशिश की थी।

कोर्ट ने कहा,

"डीवी एक्ट, घरेलू संबंधों और साझा घर में महिलाओं के हितों की रक्षा के लिए, न केवल शारीरिक शोषण बल्कि भावनात्मक और वित्तीय दुर्व्यवहार के खिलाफ निस्संदेह कल्याणकारी कानून का एक टुकड़ा है। इसलिए, विद्वान एएसजे उस परिप्रेक्ष्य में माफी आवेदन का निस्तारण रकने में सही थे...।"

कोर्ट ने कहा कि अत्यधिक देरी के कारण विपरीत पक्ष में कुछ अधिकार निहित हो जाते हैं, लेकिन जब डीवी एक्ट द्वारा संरक्षित परिवार के सदस्यों के भरण-पोषण और कल्याण का प्रश्न आता है, ऐसे अधिकार निहित नहीं हो सकते हैं, जिनके परिणामस्वरूप एक विशेष कानून द्वारा सुनिश्चित अधिकारों का विभाजन होगा।

इसके अलावा, यह देखा गया कि अदालतों ने हमेशा माना है कि सीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5 के तहत "पर्याप्त कारण" अदालतों द्वारा सार्थक तरीके से लागू करने के लिए पर्याप्त लोचदार था, जो न्याय के अधीन था।

कोर्ट ने कहा, "विलंब की अवधि स्पष्टीकरण के गुण-दोष का निर्धारक नहीं होगी। विलंब के स्पष्टीकरण में पेश किए गए तथ्या और माफी की मांग कर रही पार्टी की मंशा, जो परिस्थितियों से स्पष्ट होगी, पारिवारिक मामलों में विलंब को माफ करने के लिए अपने विवेक का प्रयोग करने में अदालत का मार्गदर्शन करेगी।"

इस प्रकार, मौजूदा याचिका खारिज कर दी गई।

केस टाइटल: जगमोहन कश्यप बनाम दिल्ली सरकार और अन्‍य

साइटेशन: 2022 लाइव लॉ (दिल्ली) 513

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