किसी याचिका को खारिज करते हुए उच्च/समन्वयक पीठ के निष्कर्षों को अदालत द्वारा समान याचिका पर सुनवाई करते हुए गंभीरता से लेना चाहिए : पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय
इस तथ्य को रेखांकित करते हुए कि हालांकि प्राङ्न्याय (Res Judicata) और इस तरह के अनुरूप सिद्धांत, एक आपराधिक कार्यवाही में लागू नहीं होते हैं, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने पिछले सप्ताह यह देखा कि न्यायालय, प्रचलित पदानुक्रमित प्रणाली के मद्देनजर, न्यायिक अनुशासन के सिद्धांत से बंधा होता है।
महत्वपूर्ण रूप से, न्यायमूर्ति अलका सरीन की खंडपीठ ने आगे कहा,
"एक उच्च या एक समन्वयक बेंच के निष्कर्षों को अदालत को समान याचिका पर विचार करते हुए गंभीरता से लेना चाहिए, मुख्य रूप से तब, जब वह याचिका पहले खारिज कर दी गई हो।"
न्यायालय के समक्ष मामला
न्यायालय दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 340 r/w 195 (1) (बी) (i) (1973) के तहत एक याचिका पर सुनवाई कर रहा था।
उल्लेखनीय रूप से, याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका के कुछ हिस्सों को चतुराई से शब्दों को बदलकर कानून के समान प्रावधानों के तहत समान राहत की मांग के लिए पांचवीं बार अदालत का दरवाजा खटखटाया था क्योंकि वह पहले के चार अवसरों पर असफल रही थी।
कोर्ट का अवलोकन
कार्यवाही को "न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग से अधिक कुछ नहीं" कहते हुए, HC ने देखा,
"इस न्यायालय द्वारा पारित पहले के आदेशों ने याचिकाकर्ता को धारा 340 सीआरपीसी के तहत दायर अपनी याचिकाओं में कोई भी राहत नहीं दी है और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उन फैसलों को पलटा नहीं गया है। वर्तमान याचिका उसी कार्रवाई के लिए समान राहत की मांग करती है जोकि बनाए रखने योग्य नहीं।"
अदालत ने आगे टिप्पणी की,
"यह अच्छी तरह से तय है कि वो वादी, जो न्यायालय को धोखा देने और गुमराह करने के इरादे से, तथ्यों के पूर्ण प्रकटीकरण के बिना कार्यवाही शुरू करते हैं, मुकदमे में राहत के हकदार नहीं होते हैं।"
अंत में, वर्तमान याचिका को बनाए रखने योग्य नहीं मानते हुए Rs.25,000 / - की लागत के साथ खारिज कर दिया गया। इस लागत को 'हरियाणा कोरोना रिलीफ फंड' के साथ जमा करने के लिए निर्देशित किया गया है।