आदेशों में जब तक बहुत जरूरी ना हो, बलात्कार पीड़िता की पहचान का संकेत ना दिया जाए...और खुलासा किया जाए तो ऐसा करने के कारण लिखित रूप से दर्ज किए जाएंः पटना हाईकोर्ट

Update: 2021-03-01 10:17 GMT

पटना उच्च न्यायालय ने हाल ही में सभी अधीनस्थ अदालतों को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि बलात्कार पीड़िता की पहचान को आदेश/निर्णय में इंगित ना किया जाए, जब तक कि ऐसे खुलासा बहुत जरूरी ना हो, जिसके कारण विशेष अदालतें लिखित रूप में दर्ज करें।

जस्टिस चक्रधारी शरण सिंह की खंडपीठ आईपीसी की धारा 376, पोक्सो अधिनियम की धारा 4 और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3 (i) (xi), 3 (2) v के तहत दंडनीय अपराधों से संबंधित आपराधिक अपील (नियमित जमानत के लिए) पर सुनवाई कर रही थी।

अभियुक्त / अपीलार्थी को जमानत देते समय, उच्च न्यायालय ने उल्लेख किया कि निचली अदालत ने पीड़िता के नाम और उसके पिता के नाम (यही मुखबिर भी हैं) का उल्लेख किया था।

उच्च न्यायालय ने आईपीसी की धारा 228-ए और पोक्सो अधिनियम की धारा 24 को ध्यान में रखते हुए कहा कि एक बच्चे की पहचान, वह कानून के साथ संघर्ष में हो या बच्चे को देखभाल और सुरक्षा की जरूरत हो, या बाल पीड़ित हो या अपराध का गवाह हो, का खुलासा नहीं किया जाना चाहिए।

न्यायालय ने पंजाब राज्य बनाम गुरमीत सिंह और अन्य (1996) 2 SCC 384 के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लेख किया, जिसमें अदालत ने निर्देश दिया था कि अदालतें, जहां तक ​​संभव हो, यौन अपराध के मामलों में, अपने आदेश में अभियोजन पक्ष को और शर्मिंदगी से बचाने के लिए नाम का खुलासा करने से बचें।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, अपराध के पीड़ित की गुमनामी को यथासंभव पूरे देश में बनाए रखा जाना चाहिए।

इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने अपील के तहत आदेश में पीड़िता के नाम का बार-बार उपयोग करने का उल्लेख करते हुए कहा कि पीड़ित को सिर्फ अभियोजन पक्ष के रूप में संदर्भित किया जा सकता है।

उल्लेखनीय है कि निपुण सक्सेना और एक अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य (2019) 2 SCC 703 में सुप्रीम कोर्ट ने बलात्कार अपराधों के पीड़ितों की गोपनीयता और प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण निर्देश जारी किए थे। जस्टिस मदन बी लोकुर और जस्टिस दीपक गुप्ता की पीठ ने 9 महत्वपूर्ण निर्देश जारी किए थे।

सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि हालांकि आईपीसी की धारा 228-ए के तहत लगाई गई रोक उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय के निर्णयों के मुद्रण या प्रकाशन पर लागू नहीं होती है, धारा 228-ए के स्पष्टीकरण के मद्देनजर सामाजिक उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए और पीड़ितों का उत्पीड़न रोकने के लिए, यह उचित होगा कि सभी अदालतों यानी ट्रायल कोर्ट, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में पीड़िता के नाम का संकेत न दिया जाए।

मौजूदा मामले में न्यायालय ने कहा, "निचली अदालतों को आदेश में पीड़ित की पहचान का खुलासा करने की कोई आवश्यकता नहीं थी, जिसे सुरक्षित रूप से पीड़ित के रूप में संदर्भित किया जा सकता था या छद्म नाम से वर्णित किया जा सकता था।"

न्यायालय ने आगे कहा, "निपुण सक्सेना (सुप्रा) के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय कानून के मद्देनजर, यह देखा गया है कि इस न्यायालय के अधीनस्थ सभी अदालतें धारा 376, 376-A, 376-B, 376-C या 376-D या पोक्सो एक्ट के प्रावधानों के तहत दंडनीय अपराध में - पीड़‌ित के लिए ही एक ही नाम का कड़ाई से पालन सुनिश्चित करेंगी। आदेश में पीड़ित के नाम का संकेत नहीं जाना चाहिए, जब तक कि इस प्रकार का खुलासा जरूरी नहीं हो जाता, विशेष अदालतें ऐसी स्थिति में कारणों को लिखित रूप से दर्ज करेंगी।"

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बॉम्बे हाईकोर्ट (औरंगाबाद बेंच) ने हाल ही में प्रिंट/ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और आम लोगों को सोशल मीडिया का उपयोग करके, बलात्कार पीड़ित से संबंधित जानकारी को प्रकाशित करने से लेकर "प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से" उसकी पहचान का खुलासा करने पर प्रतिबंध लगा ‌दिया।

जस्टिस टीवी नलवाडे और जस्टिस एमजी सेल्लिकर की खंडपीठ संगीता (बलात्कार पीड़िता की मां) की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसने प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को निर्देश दिया था कि बलात्कार पीड़िता के नाम या पहचान का खुलासा नहीं किया जाना चाहिए।

केस टाइटिल- नागेंद्र कुमार बनाम बिहार राज्य [Criminal Appeal (SJ) No.750 of 2020]

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